03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 10. श्रीहरिको सृष्टिकी रक्षाका भार एवं भोग-मोक्ष-दानका अधिकार दे भगवान् शिवका अन्तर्धान होना
03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 10. श्रीहरिको सृष्टिकी रक्षाका भार एवं भोग-मोक्ष-दानका अधिकार दे भगवान् शिवका अन्तर्धान होना परमेश्वर शिव बोले- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हरे ! विष्णो ! अब तुम मेरी दूसरी आज्ञा सुनो। उसका पालन करनेसे तुम सदा समस्त लोकोंमें माननीय और पूजनीय बने रहोगे। ब्रह्माजीके द्वारा रचे गये लोकमें जब कोई दुःख या संकट उत्पन्न हो, तब तुम उन सम्पूर्ण दुःखोंका नाश करनेके लिये सदा तत्पर रहना। तुम्हारे सम्पूर्ण दुस्सह कार्योंमें मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। तुम्हारे जो दुर्जेय और अत्यन्त उत्कट शत्रु होंगे, उन सबको मैं मार गिराऊँगा। हरे ! तुम नाना प्रकारके अवतार धारण करके लोकमें अपनी उत्तम कीर्तिका विस्तार करो और सबके उद्वारके लिये तत्पर रहो। तुम रुद्रके ध्येय हो और रुद्र तुम्हारे ध्येय हैं। तुममें और रुद्रमें कुछ भी अन्तर नहीं है। * रुद्रध्येयो भवांश्चैव भवङ्ख्येयो हरस्तथा। युवयोरन्तरं नैव तव रुद्रस्य किचन।। (शि० पु० रु० सृ० खं० १०।६) * जो मनुष्य रुद्रका भक्त होकर तुम्हारी निन्दा करेगा, उसका सारा पुण्य तत्काल भस्म हो जायगा । पुरुषोत्तम विष्णो ! तुमसे द्वेष करनेके