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Showing posts from January, 2024

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 10. श्रीहरिको सृष्टिकी रक्षाका भार एवं भोग-मोक्ष-दानका अधिकार दे भगवान् शिवका अन्तर्धान होना

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 10. श्रीहरिको सृष्टिकी रक्षाका भार एवं भोग-मोक्ष-दानका अधिकार दे भगवान् शिवका अन्तर्धान होना परमेश्वर शिव बोले- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हरे ! विष्णो ! अब तुम मेरी दूसरी आज्ञा सुनो। उसका पालन करनेसे तुम सदा समस्त लोकोंमें माननीय और पूजनीय बने रहोगे। ब्रह्माजीके द्वारा रचे गये लोकमें जब कोई दुःख या संकट उत्पन्न हो, तब तुम उन सम्पूर्ण दुःखोंका नाश करनेके लिये सदा तत्पर रहना। तुम्हारे सम्पूर्ण दुस्सह कार्योंमें मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। तुम्हारे जो दुर्जेय और अत्यन्त उत्कट शत्रु होंगे, उन सबको मैं मार गिराऊँगा। हरे ! तुम नाना प्रकारके अवतार धारण करके लोकमें अपनी उत्तम कीर्तिका विस्तार करो और सबके उद्वारके लिये तत्पर रहो। तुम रुद्रके ध्येय हो और रुद्र तुम्हारे ध्येय हैं। तुममें और रुद्रमें कुछ भी अन्तर नहीं है।  * रुद्रध्येयो भवांश्चैव भवङ्ख्येयो हरस्तथा।  युवयोरन्तरं नैव तव रुद्रस्य किचन।। (शि० पु० रु० सृ० खं० १०।६) * जो मनुष्य रुद्रका भक्त होकर तुम्हारी निन्दा करेगा, उसका सारा पुण्य तत्काल भस्म हो जायगा । पुरुषोत्तम विष्णो ! तुमसे द्वेष करनेके

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 09. उमासहित भगवान् शिवका प्राकट्य, उनके द्वारा अपने स्वरूपका विवेचन तथा ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंकी एकताका प्रतिपादन

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 09. उमासहित भगवान् शिवका प्राकट्य, उनके द्वारा अपने स्वरूपका विवेचन तथा ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंकी एकताका प्रतिपादन ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! भगवान् विष्णुके द्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनकर करुणानिधि महेश्वर बड़े प्रसन्न हुए और उमादेवीके साथ सहसा वहाँ प्रकट हो गये। उस समय उनके पाँच मुख और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र शोभा पाते थे। भालदेशमें चन्द्रमाका मुकुट सुशोभित था। सिरपर जटा धारण किये गौरवर्ण, विशाल- नेत्र शिवने अपने सम्पूर्ण अङ्गोंमें विभूति लगा रखी थी। उनके दस भुजाएँ थीं। कण्ठमें नील चिह्न था। उनके श्रीअङ्ग समस्त आभूषणोंसे विभूषित थे। उन सर्वाङ्गसुन्दर शिवके मस्तक भस्ममय त्रिपुण्ड्रसे अङ्कित थे। ऐसे विशेषणोंसे युक्त परमेश्वर महादेवजीको भगवती उमाके साथ उपस्थित देख मैंने और भगवान् विष्णुने पुनः प्रिय वचनोंद्वारा उनकी स्तुति की। तब पापहारी करुणाकर भगवान् महेश्वरने प्रसन्नचित्त होकर उन श्रीविष्णुदेवको श्वासरूपसे वेदका उपदेश दिया। मुने ! उनके बाद शिवने परमात्मा श्रीहरिको गुह्य ज्ञान प्रदान किया । फिर उन परमात्माने कृपा करके मुझे भी वह ज्ञान दि

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 08. ब्रह्मा और विष्णुको भगवान् शिवके शब्दमय शरीरका दर्शन

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 08. ब्रह्मा और विष्णुको भगवान् शिवके शब्दमय शरीरका दर्शन ब्रह्माजी कहते हैं-मुनिश्रेष्ठ नारद ! इस प्रकार हम दोनों देवता गर्वरहित हो निरन्तर प्रणाम करते रहे। हम दोनोंके मनमें एक ही अभिलाषा थी कि इस ज्योतिर्लिङ्गके रूपमें प्रकट हुए परमेश्वर प्रत्यक्ष दर्शन दें। भगवान् शंकर दीनोंके प्रतिपालक, अहंकारियोंका गर्व चूर्ण करनेवाले तथा सबके अविनाशी प्रभु हैं। वे हम दोनोंपर दयालु हो गये। उस समय वहाँ उन सुरश्रेष्ठसे, 'ओ३म्' 'ओ३म्' ऐसा शब्दरूप नाद प्रकट हुआ, जो स्पष्टरूपसे सुनायी देता था। वह नाद प्लुत स्वरमें अभिव्यक्त हुआ था। जोरसे प्रकट होनेवाले उस शब्दके विषयमें 'यह क्या है' ऐसा सोचते हुए समस्त देवताओंके आराध्य भगवान् विष्णु मेरे साथ संतुष्टचित्तसे खड़े रहे। वे सर्वथा वैरभावसे रहित थे। उन्होंने लिङ्गके दक्षिणभागमें सनातन आदिवर्ण अकारका दर्शन किया। उत्तरभागमें उकारका, मध्यभागमें मकारका और अन्तमें 'ओ३म्' इस नादका साक्षात् दर्शन एवं अनुभव किया। दक्षिणभागमें प्रकट हुए आदिवर्ण अकारको सूर्यमण्डलके समान तेजोमय देखकर जब उन्होंने उत्

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 07. भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव, शिवेच्छावश ब्रह्माजीका उससे प्रकट होना, कमलनालके उद्गमका पता लगानेमें असमर्थ ब्रह्माका तप करना, श्रीहरिका उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा- विष्णुके बीचमें अग्नि-स्तम्भका प्रकट होना तथा उसके ओर- छोरका पता न पाकर उन दोनोंका उसे प्रणाम करना

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 07. भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव, शिवेच्छावश ब्रह्माजीका उससे प्रकट होना, कमलनालके उद्गमका पता लगानेमें असमर्थ ब्रह्माका तप करना, श्रीहरिका उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा- विष्णुके बीचमें अग्नि-स्तम्भका प्रकट होना तथा उसके ओर- छोरका पता न पाकर उन दोनोंका उसे प्रणाम करना ब्रह्माजी कहते हैं-देवर्षे ! जब नारायणदेव जलमें शयन करने लगे, उस समय उनकी नाभिसे भगवान् शंकरके इच्छावश सहसा एक उत्तम कमल प्रकट हुआ, जो बहुत बड़ा था। उसमें असंख्य नालदण्ड थे। उसकी कान्ति कनेरके फूलके समान पीले रंगकी थी तथा उसकी लबाई और ऊँचाई भी अनन्त योजन थी। वह कमल करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशित हो रहा था, सुन्दर होनेके साथ ही सम्पूर्ण तत्त्वोंसे युक्त था और अत्यन्त अद्भुत, परम रमणीय, दर्शनके योग्य तथा सबसे उत्तम था । तत्पश्चात् कल्याणकारी परमेश्वर साम्ब सदाशिवने पूर्ववत् प्रयत्न करके मुझे अपने दाहिने अङ्गसे उत्पन्न किया। मुने ! उन महेश्वरने मुझे तुरंत ही अपनी मायासे मोहित करके नारायणदेवके नाभिकमलमें डाल दिया और लीलापूर्वक मुझे वहाँसे प्रकट किया। इस प्रकार उस क

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 06. महाप्रलयकालमें केवल सद्ब्रह्मकी सत्ताका प्रतिपादन, उस निर्गुण- निराकार ब्रह्मसे ईश्वरमूर्ति (सदाशिव) का प्राकट्य, सदाशिवद्वारा स्वरूपभूता शक्ति (अम्बिका) का प्रकटीकरण, उन दोनोंके द्वारा उत्तम क्षेत्र (काशी या आनन्दवन) का प्रादुर्भाव, शिवके वामाङ्गसे परम पुरुष (विष्णु) का आविर्भाव तथा उनके सकाशसे प्राकृत तत्त्वोंकी क्रमशः उत्पत्तिका वर्णन

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 06. महाप्रलयकालमें केवल सद्ब्रह्मकी सत्ताका प्रतिपादन, उस निर्गुण- निराकार ब्रह्मसे ईश्वरमूर्ति (सदाशिव) का प्राकट्य, सदाशिवद्वारा स्वरूपभूता शक्ति (अम्बिका) का प्रकटीकरण, उन दोनोंके द्वारा उत्तम क्षेत्र (काशी या आनन्दवन) का प्रादुर्भाव, शिवके वामाङ्गसे परम पुरुष (विष्णु) का आविर्भाव तथा उनके सकाशसे प्राकृत तत्त्वोंकी क्रमशः उत्पत्तिका वर्णन ब्रह्माजी ने कहा-  ब्रह्मन् ! देवशिरोमणे ! तुम सदा समस्त जगत्के उपकारमें ही लगे रहते हो। तुमने लोगोंके हितकी कामनासे यह बहुत उत्तम बात पूछी है। जिसके सुननेसे सम्पूर्ण लोकोंके समस्त पापोंका क्षय हो जाता है, उस अनामय शिवतत्त्वका मैं तुमसे वर्णन करता हूँ। शिवतत्त्वका स्वरूप बड़ा ही उत्कृष्ट और अद्भुत है। जिस समय समस्त चराचर जगत् नष्ट हो गया था, सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था। न सूर्य दिखायी देते थे न चन्द्रमा । अन्यान्य ग्रहों और नक्षत्रोंका भी पता नहीं था। न दिन होता था न रात; अग्नि, पृथ्वी, वायु और जलकी भी सत्ता नहीं थी। प्रधान तत्त्व (अव्याकृत प्रकृति) से रहित सूना आकाशमात्र शेष था, दूसरे किसी तेजकी उपलब्