03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 07. भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव, शिवेच्छावश ब्रह्माजीका उससे प्रकट होना, कमलनालके उद्गमका पता लगानेमें असमर्थ ब्रह्माका तप करना, श्रीहरिका उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा- विष्णुके बीचमें अग्नि-स्तम्भका प्रकट होना तथा उसके ओर- छोरका पता न पाकर उन दोनोंका उसे प्रणाम करना

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 07. भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव, शिवेच्छावश ब्रह्माजीका उससे प्रकट होना, कमलनालके उद्गमका पता लगानेमें असमर्थ ब्रह्माका तप करना, श्रीहरिका उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा- विष्णुके बीचमें अग्नि-स्तम्भका प्रकट होना तथा उसके ओर- छोरका पता न पाकर उन दोनोंका उसे प्रणाम करना


ब्रह्माजी कहते हैं-देवर्षे ! जब नारायणदेव जलमें शयन करने लगे, उस समय उनकी नाभिसे भगवान् शंकरके इच्छावश सहसा एक उत्तम कमल प्रकट हुआ, जो बहुत बड़ा था। उसमें असंख्य नालदण्ड थे। उसकी कान्ति कनेरके फूलके समान पीले रंगकी थी तथा उसकी लबाई और ऊँचाई भी अनन्त योजन थी। वह कमल करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशित हो रहा था, सुन्दर होनेके साथ ही सम्पूर्ण तत्त्वोंसे युक्त था और अत्यन्त अद्भुत, परम रमणीय, दर्शनके योग्य तथा सबसे उत्तम था । तत्पश्चात् कल्याणकारी परमेश्वर साम्ब सदाशिवने पूर्ववत् प्रयत्न करके मुझे अपने दाहिने अङ्गसे उत्पन्न किया। मुने ! उन महेश्वरने मुझे तुरंत ही अपनी मायासे मोहित करके नारायणदेवके नाभिकमलमें डाल दिया और लीलापूर्वक मुझे वहाँसे प्रकट किया। इस प्रकार उस कमलसे पुत्रके रूपमें मुझ हिरण्यगर्भका जन्म हुआ। मेरे चार मुख हुए और शरीरकी कान्ति लाल हुई। मेरे मस्तक त्रिपुण्ड्रकी रेखासे अङ्कित थे। तात ! भगवान् शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण मेरी ज्ञानशक्ति इतनी दुर्बल हो रही थी कि मैंने उस कमलके सिवा दूसरे किसीको अपने शरीरका जनक या पिता नहीं जाना। मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ।

मेरा कार्य क्या है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूँ और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है-इस प्रकार संशयमें पड़े हुए मेरे मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ - 'मैं किसलिये मोहमें पड़ा हुआ हूँ ? जिसने मुझे उत्पन्न किया है, उसका पता लगाना तो बहुत सरल है। इस कमलपुष्पका जो पत्रयुक्त नाल है, उसका उद्गमस्थान इस जलके भीतर नीचेकी ओर है। जिसने मुझे उत्पन्न किया है, वह पुरुष भी वहीं होगा- इसमें संशय नहीं है।'

ऐसा निश्चय करके मैंने अपनेको कमलसे नीचे उतारा। मुने ! मैं उस कमलकी एक-एक नालमें गया और सैकड़ों वर्षोंतक वहाँ भ्रमण करता रहा, किंतु कहीं भी उस कमलके उद्गमका उत्तम स्थान मुझे नहीं मिला। तब पुनः संशयमें पड़कर मैं उस कमलपुष्पपर जानेको उत्सुक हुआ और नालके मार्गसे उस कमलपर चढ़ने लगा। इस तरह बहुत ऊपर जानेपर भी मैं उस कमलके कोशको न पा सका। उस दशामें मैं और भी मोहित हो उठा। मुने ! उस समय भगवान् शिवकी इच्छासे परम मङ्गलमयी उत्तम आकाशवाणी प्रकट हुई, जो मेरे मोहका विध्वंस करनेवाली थी। उस वाणीने कहा- 'तप' (तपस्या करो) । उस आकाशवाणीको सुनकर मैंने अपने जन्मदाता पिताका दर्शन करनेके लिये उस समय पुनः प्रयत्नपूर्वक बारह वर्षोंतक घोर तपस्या की। तब मुझपर अनुग्रह करनेके लिये ही चार भुजाओं और सुन्दर नेत्रोंसे सुशोभित भगवान् विष्णु वहाँ सहसा प्रकट हो गये। उन परम पुरुषने अपने हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। उनके सारे अङ्ग सजल जलधरके समान श्यामकान्तिसे सुशोभित थे। उन परम प्रभुने सुन्दर पीताम्बर पहन रखा था। उनके मस्तक आदि अङ्गोंमें मुकुट आदि महामूल्यवान् आभूषण शोभा पाते थे। उनका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिला हुआ था। मैं उनकी छविपर मोहित हो रहा था। वे मुझे करोड़ों कामदेवोंके समान मनोहर दिखायी दिये। उनका वह अत्यन्त सुन्दर रूप देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे साँवली और सुनहरी आभासे उद्भासित हो रहे थे। उस समय उन सदसत्स्वरूप, सर्वात्मा, चार भुजा धारण करनेवाले, महाबाहु नारायण- देवको वहाँ उस रूपमें अपने साथ देखकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ ।

तदनन्तर उन नारायणदेवके साथ मेरी बातचीत आरम्भ हुई। भगवान् शिवकी लीलासे वहाँ हम दोनोंमें कुछ विवाद छिड़ गया। इसी समय हमलोगोंके बीचमें एक महान् अग्निस्तम्भ (ज्योतिर्मयलिङ्ग) प्रकट हुआ। मैंने और श्रीविष्णुने क्रमशः ऊपर और नीचे जाकर उसके आदि-अन्तका पता लगानेके लिये बड़ा प्रयत्न किया, परंतु हमें कहीं भी उसका ओर-छोर नहीं मिला। मैं थककर ऊपरसे नीचे लौट आया और भगवान् विष्णु भी उसी तरह नीचेसे ऊपर आकर मुझसे मिले। हम दोनों शिवकी मायासे मोहित थे। श्रीहरिने मेरे साथ आगे-पीछे और अगल-बगलसे परमेश्वर शिवको प्रणाम किया। फिर वे सोचने लगे - 'यह क्या वस्तु है?' इसके स्वरूपका निर्देश नहीं किया जा सकता; क्योंकि न तो इसका कोई नाम है और न कर्म ही है। लिङ्गरहित तत्त्व ही यहाँ लिङ्गभावको प्राप्त हो गया है। ध्यानमार्गमें भी इसके स्वरूपका कुछ पता नहीं चलता। इसके बाद मैं और श्रीहरि दोनोंने अपने चित्तको स्वस्थ करके उस अग्निस्तम्भको प्रणाम करना आरम्भ किया ।

हम दोनों बोले- महाप्रभो ! हम आपके स्वरूपको नहीं जानते। आप जो कोई भी क्यों न हों, आपको हमारा नमस्कार है। महेशान ! आप शीघ्र ही हमें अपने यथार्थ रूपका दर्शन कराइये।

मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अहंकारसे आविष्ट हुए हम दोनों ही वहाँ नमस्कार करने लगे। ऐसा करते हुए हमारे सौ वर्ष बीत गये।

(अध्याय ७)


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