शमी पत्र व मंदार की मार्मिक कथा

शमी पत्र व मंदार की मार्मिक कथा


कथा इस प्रकार है :-

एक बार नारद मुनि तीनों लोकों में विचरते हुए स्वर्गलोक में देवराज इंद्र के पास पहुँचे। इंद्र ने उनका यथोचित स्वागत किया। वार्तालाप के क्रम में इंद्र ने मुनि से कहा हे मुनिवर आप पृथ्वी लोग का भ्रमण करके आ रहे हैं तो कृपया मुझे औरव ऋषि और उनकी पुत्री की कथा सुनाने की कृपा कीजिए।

नारदमुनि ने सहर्ष इस प्रकार कथा सुनाई, वे बोले, "इंद्र देव ! आपने एक ऐसी कथा सुनाने का आग्रह किया है जो मृत्यु लोक में लोगों के कष्टों को दूर करने वाली है । चलिए अब मैं महान ऋषि औरब तथा उनकी पुत्री शमी की कहानी आपको सुनाने जा रहा हूं।

"एक समय में मालवा में औरव नाम के ऐसे विद्वान ब्राह्मण हुए जिनका तेज वेदों के ज्ञान रूपी सूर्य के सामान प्रदीप्त था। उन्हें देवताओं के सामान ही शक्तियां प्राप्त थी। बहुत दिनों बाद उनकी पत्नी ने एक अत्यंत सुन्दर पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम शमी रखा गया। 

ऋषि शमी को बहुत ही स्नेह दिया करते थे। शमी जब बड़ी होने लगी तो उसने एक नियम बना लिया कि जो भी व्यक्ति उनके घर आता वह उसे भूखा नहीं जाने देती । वह भूखी रह जाती पर किसी को भूखा नहीं जाने देते। कोई भी भूखा मिल जाता तो वह अपने भोजन को भी उसे दे देती।

शमी उन विचारों की थी कि उसके थाली में कुछ बचे न बचे चलेगा लेकिन उसके घर से कोई भूखा जाए यह नहीं चलेगा।

मन्दार नामक एक सुंदर बालक औरब ऋषि के मित्र शौनक ऋषि के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त कर रहा था । 

जब शमी युवा हुई तो उन्होंने शमी का विवाह धौम्य ऋषि के पुत्र मन्दार से कर दिया। इस प्रकार दोनों का मंगल विवाह हो गया। मंदार विवाह के पश्चात शमी को उसके माता पिता के पास छोड़कर शिक्षा पूरी करने पुनः शौनक ऋषि के आश्रम चला गया। 

यही पर शौनक ऋषि और औरव ऋषि के आश्रमों के मार्ग को जोड़ने वाले रास्ते पर एक अन्य महान तपस्वी ऋषि भुशुण्डी का आश्रम पड़ता था। वे गणपति के अनन्य भक्त थे। वे  किसी अन्य देश का नाम तक नहीं लेते थे। उन्होंने बहुत समय तक गणपति की तपस्या की, तब भगवान भोलेनाथ गणेश जी से बोले, " बेटा ! तुम्हारा एक भक्त तुम्हारी तपस्या में लीन है जाओ और उसे वरदान दो और उसकी इच्छा पूरी करके आओ।

अपनी तपस्या से प्रसन्न भगवाक्षक्षन गणेश को अपने सामने देखा तो ऋषि उनके सामने नतमस्तक हो गए। जब गणेश जी ने उनसे वर मांगने के लिए कहा तो भुशुण्डी ऋषि बोले, "हे भगव ! मुझे और किसी पर से कुछ नहीं लेना देना मुझे तो अपना स्वरूप प्रदान कीजिए ताकि मैं खुद में आपको देखा करूं।"

गणेश जी मुस्कुराए। उनको मुस्कुराते हुए ऋषि फिर से बोले, "भगवान मैं आप जैसा तो नहीं बन सकता और आप मुझ जैसे नहीं बन सकते । परंतु आप मुझे अपना थोड़ा सा स्वरूप दे दीजिए । अपने शीश का स्वरूप दे दीजिए।"

"वत्स ! एक बार फिर से सोच लो।" गणेश जी बोले

"नहीं, मैंने सोच लिया।"

"मुझे आप अपना स्वरूप प्रदान करें ।"

"जैसी तुम्हारी इच्छा वत्स !" कहकर गणेश जी अंतर्ध्यान हो गए।

इस प्रकार भुशुण्डी ऋषि गणेश रूपी हो गए। उनके गणेश जी के समान ही सूंड निकल आई। भुशुण्डी जी, गणेश जी के स्वरूप वाले एकमात्र व्यक्ति हैं।

जब मन्दार और शमी पूर्ण यौवन को प्राप्त हुए तब मन्दार अपने ससुराल गए और शमी को विदा कराकर पुनः शौनक ऋषि के आश्रम की ओर वापस चल दिए ।

रास्ते में श ऋषि भुशुण्डी का आश्रम पड़ता था। दोनों ने सोचा क्यों न हम भुशुण्डी ऋषि का आशीर्वाद लेकर गुरु आश्रम जाएं।

इसलिए वे दोनों उनके आश्रम की ओर चल दिए । उन्हें ऋषि भुशुण्डी के स्वरूप का पता नहीं था । जब वे आश्रम के निकट पहुंचे तो उन्होंने आश्रम के बाहर गजमुख व्यक्ति को देखा। तो शमी और मन्दार दोनों को हँसी आ गई। वे दोनों ठहाके मारकर ऋषि पर हंसने लगे। 

ऋषि बोले, " ऋषि पुत्रों का इस प्रकार किसी पर हंसना ठीक नहीं है। यह मेरे गुरुदेव का स्वरूप है। तुम मेरा नहीं मेरे गुरुदेव का अपमान कर रहे हो।"

लेकिन वे हंसते ही रहे और हंसते हंसते लोटपोट होते रहे। पहले तो मैं उन्हें बच्चे समझ रहा था। लेकिन जब उन्होंने हंसना बंद नहीं किया। तो वे मुझे क्रोध दिलाने का प्रयास करने लगे।।

और उन्होंने एक बात और बोल दी कि जैसा चेला शायद वैसा ही गुरु भी हो।

ऋषि पुत्रों मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी कि ऋषि पुत्र एक जड़ की तरह मुझसे व्यवहार करें। उन्होंने ऋषि बात नहीं सुनी और वे हंसते रहे।

इस पर ऋषि बहुत क्रुद्ध हो गए और कुपित हो कर उन्होंने दोनों को श्राप दे दिया कि - तुम दोनों वृक्ष बन जाओ, ऐसा वृक्ष कि जिसके पास पशु -पक्षी भी न आएं। 

ऐसा ही हुआ। ऋषि के श्राप के प्रभाव से दोनों तुरंत वृक्ष में बदल गए। मंदार ऐसा वृक्ष बना जिसकी पत्तियां कोई पशु नहीं खाता और शमी ऐसा वृक्ष बनी जिसपर काँटों की अधिकता के कारण कोई पक्षी शरण नहीं लेता। 

दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करते रहे छमा मांगते रहे, छमा मांगते रहे। हे ऋषिवर हम पर दया कीजिए, कृपा कीजिए, करुणा कीजिए ही ऋषिवर हमें क्षमा कीजिए। हमसे गलती हो गई हमें क्षमा कीजिए।

परंतु ऋषि ने उन पर दया नहीं दिखाई और वे वहां से चले गए। "अब तो हम कहीं जा भी नहीं सकते । किस से कहें, किसे पुकारें।" यह कहकर दोनों फूट-फूट कर रोने लगे।

इस पर मंदार बोला, "समी ! मुझे माफ करना । "

"आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि यह सब आपकी वजह से हुआ। मैं भी तो उनके स्वरूप को नहीं समझ सकी थी और मैंने भी तो उनका हंसी उड़ाने में कमी तो नहीं की।"

"अब क्या करें ?" मंदार रोते हुए बोला ।

शमी बोली, "पिताजी कहा करते थे कि सब देव तो झोली झाड़ कर देते हैं और मेरा देवों का देव महादेव छप्पर फाड़ कर देता हैं। आओ हम दोनों मिलकर उन्हीं की आराधना करते हैं। "

और वे दोनों मिलकर भगवान भोलेनाथ की आराधना करने लगे।

बहुत दिन बीतने पर भी जब शमी और मंदार ऋषि शौनक के आश्रम नहीं पहुंचे तब शौनक ऋषि उनकी खोज में निकले। पहले वे शमी के पिता औरव के घर गए। 

वहाँ उन्हें न पा कर दोनों ऋषी शमी और मंदार खोजते हुए भृशुण्डी के आश्रम पर आये । दोनों ने उन्हें सम्मान पूर्वक प्रणाम किया।

तब ऋषिवर बोले, "मान्यवर ! आपके यहां आने का प्रयोजन क्या है कृपया बताएं?"

तब दोनों ने शमी और मंदार के गुम होने की कहानी उन्हें सुनाई तो ऋषि भृशुण्डी ने सारा वृतांत बता दिया।

जब उन्हें सारे वृत्तांत की जानकारी हुई तो उन्होंने भृशुण्डी ऋषि से दोनों को शापमुक्त करने का अनुरोध किया ।

"हे प्रभु ! वे दोनों तो अबोध बालक थे । आप सर्व ज्ञान संपन्न एक महान ऋषि फिर भी आपने उन्हें श्राप दे दिया जो ठीक नहीं है। उनकी गलती के लिए उन्हें छोटा-मोटा दंड देते तो ज्यादा अच्छा रहता।

ऋषि भृशुण्डी बोले, "आपको ज्ञात होगा कि दोनों बच्चे शिक्षा संपन्न थे और उन्होंने अपनी सभी शिक्षाएं पूर्ण कर ली थी । उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि अपनों से बड़ों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। "

मुझ पर हंसते तो बात दूसरी थी। वे मेरे गुरुदेव के स्वरूप पर हंसे और एक बार नहीं बार-बार गुरुदेव के स्वरूप को देखते और जोर से हंसते।

तुम दोनों महान ऋषियों की संतान हो और मेरे साथ एक जड़ जैसा व्यवहार कर रहे हो। तुमने मेरे साथ मेरे गुरु का भी अपमान किया है इसलिए मैं गुरु को साक्षी रखकर तुम्हें श्राप देता हूं कि तुम दोनों वृक्ष बन जाओ, ऐसा वृक्ष कि जिसके पास पशु -पक्षी भी न आएं। 

"मान्यवर ! जो हुआ वह गलत हुआ अब बच्चों को माफ करके उन्हें श्राप से मुक्ति दिला दो। किन्तु भृशुण्डी ने इसमें अपनी असमर्थता व्यक्त की।"

तब शौनक ऋषि और औरव ऋषि ने भगवान गणेश को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या प्रारम्भ की। उनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर गणपति दस हाथ ऊँचे सिंह पर आरूढ़ हो प्रकट हुए। 

 गणपति ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। उन्होंने शमी और मन्दार को अपने प्रिय भक्त भृशुण्डी को शापमुक्त कर पुनः पूर्वावस्था में लाने का वरदान माँगा। 

किन्तु गणेश अपने प्रिय भक्त भृशुण्डी के श्राप की अवहेलना नहीं करना चाहते थे। 

गणेश जी बोले, " पुत्रों ! मैं अपने प्रिय भक्त भृशुण्डी की श्राप को वापस तो नहीं ले सकता परन्तु बदले में यह वरदान दे सकता हूं कि भविष्य में ये दोनों वृक्ष तीनो लोको में पूजनीय होंगे और मेरे पिता शिव की पूजा इनकी उपस्थिति के बिना पूर्ण नहीं मानी जायेंगी । 

यह कहकर गणपति अंतर्ध्यान हो गए। ऋषि शौनक तो अपने घर लौट गए परन्तु ऋषि औरव वही अपनी पुत्री के समीप अर्थात शमी वृक्ष के पास बैठ गए और वही उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। उनके शरीर से अग्नि रूप में उत्पन्न तेज  शमी वृक्ष के तने में स्थिर हो गया।" 

समय बीता, भगवान भोलेनाथ शमी और मंदार की तपस्या से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दोनों को आशीर्वाद दिया, "सुनो समी !  सुनो मंदार ! सुनो समी, सुनो मंदार ! यदि भूल से भी कोई तुम्हारा एक पत्र या  पत्ता मेरे शिवलिंग पर अर्पित कर देगा। तो वह हज़ारों लाखों अश्वमेध यज्ञों का फल तुरंत प्राप्त कर लेगा।

समी जो मुझे संपूर्ण स्नान कराने और श्रृंगार आदि कराने के उपरांत तुम्हारी पत्ती, जगत जननी के स्थान पर स्पर्श कराकर और अपनी कामना जगत जननी से बोलने के उपरांत मेरे शिवलिंग पर अर्पित करेगा। तो मैं उसकी मनोकामना अवश्य पूरी करूंगा। क्योंकि इस कामना में जगत जननी की प्रार्थना भी शामिल है।  

जब किसी का जीवन बहुत कष्टमय हो जाए तो दो बेलपत्र और सात समी पत्रों का प्रयोग करना चाहिए। यहां भी पूरा श्रृंगार करने के उपरांत एक बेलपत्र जहां जलाधारी से जल गिरता है तथा दूसरा इसके विपरीत जहां माता के बैठने का स्थान है पर रखो और अपने मन की बात बोलते हुए सात समी पत्रों को भगवान भोलेनाथ के शिवलिंग को अर्पित करें । 

"हे भोलेनाथ ! कांटो से भरी है जिंदगी सभी की जिसे तूने निहाल कर दिया और कांटों से भरी है जिंदगी मेरी मुझे विश्वास है कि तू मुझे भी निहाल कर देगा।

इसलिए आज भी शिव और गणेश जी के मंदिरों में हवन से पहले शमी की लकड़ियों को घिसकर अग्नि प्रज्जलित की जाती है और उसमे शमी की लकड़ियों की आहूतियां डाली जाती हैँ। बिना मंदार पुष्प और शमी पत्रों के शिव एवं गणपति की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती।  

इस प्रकार नारद ऋषि ने इंद्र को औरव की कथा सुनाई। 

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