02. विद्येश्वरसंहिता || 20. पार्थिवलिङ्गके निर्माणकी रीति तथा सरल पूजन विधिका वर्णन

02. विद्येश्वरसंहिता || 20. पार्थिवलिङ्गके निर्माणकी रीति तथा सरल पूजन विधिका वर्णन

पार्थिव लिंग पूजन की दूसरी विधि

ब्राह्मणो ! यहाँ जो वैदिक विधिसे पूजनका क्रम बताया गया है, इसका पूर्णरूपसे आदर करता हुआ मैं पूजाकी एक दूसरी विधि भी बता रहा हूँ, जो उत्तम होनेके साथ ही सर्व-साधारणके लिये उपयोगी है। मुनिवरो ! पार्थिव-लिङ्गकी पूजा भगवान् शिवके नामोंसे बतायी गयी है। 

वह पूजा सम्पूर्ण अभीष्टोंको देनेवाली है। मैं उसे बताता हूँ, सुनो ! हर, महेश्वर, शम्भु, शूलपाणि, पिनाकधृक्, शिव, पशुपति और महादेव - ये क्रमशः शिवके आठ नाम कहे गये हैं। 
इनमेंसे प्रथम नामके द्वारा अर्थात् 'ॐ हराय नमः' का उच्चारण करके पार्थिवलिङ्ग बनानेके लिये मिट्टी लाये । 
दूसरे नाम अर्थात् 'ॐ महेश्वराय नमः' का उच्चारण करके लिङ्ग-निर्माण करे। 
फिर 'ॐ शम्भवे नमः' बोलकर उस पार्थिव-लिङ्गकी प्रतिष्ठा करे। 
तत्पश्चात् 'ॐ शूलपाणये नमः' कहकर उस पार्थिवलिङ्गमें भगवान् शिवका आवाहन करे । 
'ॐ पिनाकधृषे नमः' कहकर उस शिवलिङ्गको नहलाये। 
'ॐ शिवाय नमः' बोलकर उसकी पूजा करे। 
फिर 'ॐ पशुपतये नमः' कहकर क्षमा-प्रार्थना करे और अन्तमें 
'ॐ महादेवाय नमः' कहकर आराध्यदेवका विसर्जन कर दे। 

प्रत्येक नामके आदिमें ॐकार और अन्तमें चतुर्थी विभक्तिके साथ 'नमः' पद लगाकर बड़े आनन्द और भक्तिभावसे पूजनसम्बन्धी सारे कार्य करने चाहिये ।

हरो महेश्वरः शम्भुः शूलपाणिः पिनाकधृक् । 
शिवः पशुपतिश्चैव महादेव इति क्रमात् ॥ मृदाहरणसंघट्टप्रतिष्ठाह्वानमेव च। 
स्नपनं पूजनं चैव क्षमस्वेति विसर्जनम् ॥ ॐकारादिचतुर्थ्यन्तैर्नमोऽन्तैर्नामभिः क्रमात् । 
कर्तव्याश्च क्रियाः सर्वा भक्त्या परमया मुदा।।

षडक्षर-मन्त्रसे अङ्गन्यास और करन्यासकी विधि भलीभाँति सम्पन्न करे । 
* अङ्गन्यास और करन्यासका प्रयोग इस प्रकार समझना चाहिये। यहाँ करन्यास और हृदयादिषडङ्गन्यासके छः-छः वाक्य दिये गये हैं। 
करन्यास
करन्यासके प्रथम वाक्यको पढ़कर दोनों तर्जनी अंगुलियोंसे अंगुष्ठोंका स्पर्श करना चाहिये। शेष वाक्योंको पढ़कर अङ्गष्ठोंसे तर्जनी आदि अंगुलियोंका स्पर्श करना चाहिये। 
करन्यासः
ॐ ॐ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः १ । 
ॐ नं तर्जनीभ्यां नमः २ । 
ॐ में मध्यमाभ्यां नमः ३ । 
ॐ शिं अनामिकाभ्यां नमः ४ । 
ॐ वां कनिष्ठिकाभ्यां नमः ५। 
ॐ यं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ६ ।
 इति करन्यासः । 
अङ्गन्यास
इसी प्रकार अङ्गन्यासमें भी दाहिने हाथसे हृदयादि अङ्गोंका स्पर्श करनेकी विधि है। केवल कवचन्यासमें दाहिने हाथसे बायीं भुजा और बायें हाथसे दायीं भुजाका स्पर्श करना चाहिये।
ॐ ॐ हृदयाय नमः १ । 
ॐ नं शिरसे स्वाहा २ ।
ॐ में शिखायै वषट् ३ । 
ॐ शिं कवचाय हुम् ४। 
ॐ वां नेत्रत्रयाय वौषट् ५। 
ॐ यं अस्त्राय फट् ६। 
इति हृदयादिषडङ्गन्यासः । 
यहाँ करन्यास और हृदयादिषडङ्गन्यासके छः-छः वाक्य पढ़ने के उपरांत। 
इनमें 'अस्त्राय फट्' इस अन्तिम वाक्यको पढ़ते हुए दाहिने हाथको सिरके ऊपरसे ले आकर बायीं हथेलीपर ताली बजानी चाहिये। 

षडक्षर-मन्त्रसे अङ्गन्यास और करन्यासकी विधि भलीभाँति सम्पन्न करके - फिर नीचे लिखे अनुसार ध्यान करे । 
ध्यान
ध्यानसम्बन्धी श्लोक, जिनके भाव नीचे दिये गये हैं, जो इस प्रकार हैं-

कैलासपीठासनमध्यसंस्थं 'भक्तैः सनन्दादिभिरर्च्यमानम् । भक्तार्तिदावानलहाप्रमेयं ध्यायेदुमालिङ्गितविश्वभूषणम् ॥ ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्। पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥
(शि० पु० वि० २० । ५१-५२)
जो कैलास पर्वतपर एक सुन्दर सिंहासनके मध्यभागमें विराजमान हैं, जिनके वामभागमें भगवती उमा उनसे सटकर बैठी हुई हैं, सनक-सनन्दन आदि भक्तजन जिनकी पूजा कर रहे हैं तथा जो भक्तोंके दुःखरूपी दावानलको नष्ट कर देनेवाले अप्रमेय-शक्तिशाली ईश्वर हैं, उन विश्वविभूषण भगवान् शिवका चिन्तन करना चाहिये । भगवान् महेश्वरका प्रतिदिन इस प्रकार ध्यान करे - उनकी अङ्ग-कान्ति चाँदीके पर्वतकी भाँति गौर है। वे अपने मस्तकपर मनोहर चन्द्रमाका मुकुट धारण करते हैं। रत्नोंके आभूषण धारण करनेसे उनका श्रीअङ्ग और भी उद्भासित हो उठा है। उनके चार हाथोंमें क्रमशः परशु, मृगमुद्रा, वर एवं अभयमुद्रा सुशोभित हैं। वे सदा प्रसन्न रहते हैं। कमलके आसनपर बैठे हैं और देवतालोग चारों ओर खड़े होकर उनकी स्तुति कर रहे हैं। उन्होंने वस्त्रकी जगह व्याघ्रचर्म धारण कर रखा है। वे इस विश्वके आदि हैं, बीज (कारण) रूप हैं। तथा सबका समस्त भय हर लेनेवाले हैं। उनके पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुखमण्डलमें तीन-तीन नेत्र हैं। 

इस प्रकार ध्यान तथा उत्तम पार्थिवलिङ्गका पूजन करके गुरुके दिये हुए पञ्चाक्षर-मन्त्रका विधिपूर्वक जप करे । विप्रवरो ! विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह देवेश्वर शिवको प्रणाम करके नाना प्रकारकी स्तुतियोंद्वारा उनका स्तवन करे तथा शतरुद्रिय (यजु० १६ वें अध्यायके मन्त्रों) का पाठ करे । तत्पश्चात् अञ्जलिमें अक्षत और फूल लेकर उत्तम भक्तिभावसे निम्नाङ्कित मन्त्रोंको पढ़ते हुए प्रेम और प्रसन्नताके साथ भगवान् शंकरसे इस प्रकार प्रार्थना करे -

तावकस्त्वद्‌गुणप्राणस्त्वच्चितोऽहं सदा मृड। 
कृपानिधे इति ज्ञात्वा भूतनाथ प्रसीद मे ॥ 
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया। 
कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर ॥
अहं पापी महानद्य पावनश्च भवान्महान्। 
इति विज्ञाय गौरीश यदिच्छसि तथा कुरु ॥
बेदैः पुराणैः सिद्धान्तैऋषिभिर्विविधैरपि। 
न ज्ञातोऽसि महादेव कुतोऽहं त्वां सदाशिव ।।
यथा तथा त्वदीयोऽस्मि सर्वभावैर्महेश्वर। 
रक्षणीयस्त्वयाहं वै प्रसीद परमेश्वर ॥

'सबको सुख देनेवाले कृपानिधान भूतनाथ शिव ! मैं आपका हूँ। आपके गुणोंमें ही मेरे प्राण बसते हैं अथवा आपके गुण ही मेरे प्राण-मेरे जीवनसर्वस्व हैं। मेरा चित्त सदा आपके ही चिन्तनमें लगा हुआ है। यह जानकर मुझपर प्रसन्न होइये। कृपा कीजिये । शंकर ! मैंने अनजानमें अथवा जानबूझकर यदि कभी आपका जप और पूजन आदि किया हो तो आपकी कृपासे वह सफल हो जाय । गौरीनाथ ! पै आधुनिक युगका महान् पापी हूँ, पतित हूँ और आप सदासे ही परम महान् पतितपावन हैं। इस बातका विचार करके आप जैसा चाहें, वैसा करें। महादेव ! सदाशिव ! वेदों, पुराणों, नाना प्रकारके शास्त्रीय सिद्धान्तों और विभिन्न महर्षियोंने भी अबतक आपको पूर्णरूपसे नहीं जाना है। फिर मैं कैसे जान सकता हूँ ? महेश्वर ! मैं जैसा हूँ, वैसा ही, उसी रूपमें सम्पूर्ण भावसे आपका हूँ, आपके आश्रित हूँ, इसलिये आपसे रक्षा पानेके योग्य हूँ। परमेश्वर ! आप मुझपर प्रसन्न होइये।' * 

मुने ! इस प्रकार प्रार्थना करके हाथमें लिये हुए अक्षत और पुष्पको भगवान् शिवके ऊपर चढ़ाकर उन शम्भुदेवको भक्तिभावसे विधिपूर्वक साष्टाङ्ग प्रणाम करे। तदनन्तर शुद्ध बुद्धिवाला उपासक शास्त्रोक्त विधिसे इष्टदेवकी परिक्रमा करे । फिर श्रद्धापूर्वक स्तुतियोंद्वारा देवेश्वर शिवकी स्तुति करे । इसके बाद गला बजाकर (गलेसे अव्यक्त शब्दका उच्चारण करके) पवित्र एवं विनीत चित्तवाला साधक भगवान्को प्रणाम करे । फिर आदरपूर्वक विज्ञप्ति करे और उसके बाद विसर्जन । मुनिवरो ! इस प्रकार विधिपूर्वक पार्थिवपूजा बतायी गयी। वह भोग और मोक्ष देनेवाली तथा भगवान् शिवके प्रति भक्तिभावको बढ़ानेवाली है।
(अध्याय 20)

 पूरा मन्त्र इस प्रकार है-
१. हरो महेश्वरः शम्भुः शूलपाणिः पिनाकधृक् । 
शिवः पशुपतिश्चैव महादेव इति क्रमात् ॥ मृदाहरणसंघट्टप्रतिष्ठाह्वानमेव च। 
स्नपनं पूजनं चैव क्षमस्वेति विसर्जनम् ॥ ॐकारादिचतुर्थ्यन्तैर्नमोऽन्तैर्नामभिः क्रमात् । 
कर्तव्याश्च क्रियाः सर्वा भक्त्या परमया मुदा।। (शि० पु० वि० २०।४७-४९)

* अङ्गन्यास और करन्यासका प्रयोग इस प्रकार समझना चाहिये। यहाँ करन्यास और हृदयादिषडङ्गन्यासके छः-छः वाक्य दिये गये हैं। 
करन्यास
करन्यासके प्रथम वाक्यको पढ़कर दोनों तर्जनी अंगुलियोंसे अंगुष्ठोंका स्पर्श करना चाहिये। शेष वाक्योंको पढ़कर अङ्गष्ठोंसे तर्जनी आदि अंगुलियोंका स्पर्श करना चाहिये। 
ॐ ॐ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः १ । ॐ नं तर्जनीभ्यां नमः २ । ॐ में मध्यमाभ्यां नमः ३ । ॐ शिं अनामिकाभ्यां नमः ४ । ॐ वां कनिष्ठिकाभ्यां नमः ५। ॐ यं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ६ । इति करन्यासः । 
अङ्गन्यास
इसी प्रकार अङ्गन्यासमें भी दाहिने हाथसे हृदयादि अङ्गोंका स्पर्श करनेकी विधि है। केवल कवचन्यासमें दाहिने हाथसे बायीं भुजा और बायें हाथसे दायीं भुजाका स्पर्श करना चाहिये।
ॐ ॐ हृदयाय नमः १ । ॐ नं शिरसे स्वाहा २ ।
ॐ में शिखायै वषट् ३ । ॐ शिं कवचाय हुम् ४। ॐ वां नेत्रत्रयाय वौषट् ५। ॐ यं अस्त्राय फट् ६। इति हृदयादिषडङ्गन्यासः । 
यहाँ करन्यास और हृदयादिषडङ्गन्यासके छः-छः वाक्य पढ़ने के उपरांत। 
इनमें 'अस्त्राय फट्' इस अन्तिम वाक्यको पढ़ते हुए दाहिने हाथको सिरके ऊपरसे ले आकर बायीं हथेलीपर ताली बजानी चाहिये। 

ध्यान
ध्यानसम्बन्धी श्लोक, जिनके भाव ऊपर दिये गये हैं, इस प्रकार हैं-

कैलासपीठासनमध्यसंस्थं 'भक्तैः सनन्दादिभिरर्च्यमानम् । भक्तार्तिदावानलहाप्रमेयं ध्यायेदुमालिङ्गितविश्वभूषणम् ॥ ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्। पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥
(शि० पु० वि० २० । ५१-५२)

* तावकस्त्वद्‌गुणप्राणस्त्वच्चितोऽहं सदा मृड। 
कृपानिधे इति ज्ञात्वा भूतनाथ प्रसीद मे ॥ 
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया। 
कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर ॥
अहं पापी महानद्य पावनश्च भवान्महान्। 
इति विज्ञाय गौरीश यदिच्छसि तथा कुरु ॥
बेदैः पुराणैः सिद्धान्तैऋषिभिर्विविधैरपि। 
न ज्ञातोऽसि महादेव कुतोऽहं त्वां सदाशिव ।।
यथा तथा त्वदीयोऽस्मि सर्वभावैर्महेश्वर। 
रक्षणीयस्त्वयाहं वै प्रसीद परमेश्वर ॥

(शि० पु० वि० २० । ५६-६०)


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