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Showing posts from July, 2024
भगवान् शिवका कैलास पर्वतपर गमन तथा सृष्टिखण्डका उपसंहार ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! मुने ! कुबेरके तपोबलसे भगवान् शिवका जिस प्रकार पर्वतश्रेष्ठ कैलासपर शुभागमन हुआ, वह प्रसङ्ग सुनो। कुबेरको वर देनेवाले विश्वेश्वर शिव जब उन्हें निधिपति होनेका वर देकर अपने उत्तम स्थानको चले गये, तब उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया- 'ब्रह्माजीके ललाटसे जिनका प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो प्रलयका कार्य सँभालते हैं, वे रुद्र मेरे पूर्ण स्वरूप हैं। अतः उन्हींके रूपमें मैं गुह्यकोंके निवासस्थान कैलास पर्वतको जाऊँगा। उन्हींके रूपमें मैं कुबेरका मित्र बनकर उसी पर्वतपर विलास पूर्वक रहूँगा और बड़ा भारी तप करूँगा।' शिवकी इस इच्छाका चिन्तन करके उन रुद्रदेवने कैलास जानेके लिये उत्सुक डमरू बजाया। डमरूकी वह ध्वनि, जो उत्साह बढ़ानेवाली थी, तीनों लोकोंमें व्याप्त हो गयी। उसका विचित्र एवं गम्भीर शब्द आह्वानकी गतिसे युक्त था, अर्थात् सुननेवालोंको अपने पास आनेके लिये प्रेरणा दे रहा था। उस ध्वनिको सुनकर मैं तथा श्रीविष्णु आदि सभी देवता, ऋषि, मूर्तिमान् आगम, निगम और सिद्ध वहाँ आ पहुँचे। देवता और असुर आदि सब लोग बड़े

03. रुद्रसंहिता 01 | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 17-18-19. यज्ञदत्त-कुमारको भगवान् शिवकी कृपासे कुबेरपदकी प्राप्ति तथा उनकीभगवान् शिवके साथ मैत्री

03. रुद्रसंहिता 01 | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 17-18-19. यज्ञदत्त-कुमारको भगवान् शिवकी कृपासे कुबेरपदकी प्राप्ति तथा उनकीभगवान् शिवके साथ मैत्री सूतजी कहते हैं - मुनीश्वरो ! ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर नारदजीने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और पुनः पूछा- 'भगवन् ! भक्तवत्सल भगवान् शंकर कैलास पर्वतपर कब गये और महात्मा कुबेरके साथ उनकी मैत्री कब हुई ? परिपूर्ण मङ्गलविग्रह महादेवजीने वहाँ क्या किया ? यह सब मुझे बताइये । इसे सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल है।' ब्रह्माजीने कहा- नारद ! सुनो, चन्द्रमौलि भगवान् शंकरके चरित्रका वर्णन करता हूँ। वे कैसे कैलास पर्वतपर गये और कुबेरकी उनके साथ किस प्रकार मैत्री हुई, यह सब सुनाता हूँ। काम्पिल्य नगरमें यज्ञदत्त नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहते थे, जो बड़े सदाचारी थे। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम गुणनिधि था। वह बड़ा ही दुराचारी और जुआरी हो गया था। पिताने अपने उस पुत्रको त्याग दिया। वह घरसे निकल गया और कई दिनोंतक भूखा भटकता रहा। एक दिन वह नैवेद्य चुरानेकी इच्छासे एक शिवमन्दिरमें गया। वहाँ उसने अपने वस्त्रको जलाकर उजाला किया। यह मानो उसके द्वारा भगवा

03. रुद्रसंहिता 01 | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 16. स्वायम्भुव मनु और शतरूपाकी; ऋषियोंकी तथा दक्षकन्याओंकी संतानोंका वर्णन तथा सती और शिवकी महत्ताका प्रतिपादन

03. रुद्रसंहिता 01 | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 16. स्वायम्भुव मनु और शतरूपाकी, ऋषियोंकी तथा दक्षकन्याओंकी संतानोंका वर्णन तथा सती और शिवकी महत्ताका प्रतिपादन ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! तदनन्तर मैंने शब्दतन्मात्रा आदि सूक्ष्म-भूतोंको स्वयं ही पञ्चीकृत करके अर्थात् उन पाँचोंका परस्पर सम्मिश्रण करके उनसे स्थूल आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीकी सृष्टि की। पर्वतों, समुद्रों और वृक्षों आदिको उत्पन्न किया। कलासे लेकर युगपर्यन्त जो काल-विभाग हैं, उनकी रचना की। मुने ! उत्पत्ति और विनाशवाले और भी बहुत-से पदार्थोंका मैंने निर्माण किया। परंतु इससे मुझे संतोष नहीं हुआ। तब साम्ब शिवका ध्यान करके मैंने साधनपरायण पुरुषोंकी सृष्टि की। अपने दोनों नेत्रोंसे मरीचिको, हृदयसे भृगुको, सिरसे अङ्गिराको, व्यानवायुसे मुनिश्रेष्ठ पुलहको, उदानवायुसे पुलस्त्यको, समानवायुसे वसिष्ठको, अपानसे क्रतुको, दोनों कानोंसे अत्रिको, प्राणोंसे दक्षको, गोदसे तुमको, छायासे कर्दम मुनिको तथा संकल्पसे समस्त साधनोंके साधन धर्मको उत्पन्न किया। मुनिश्रेष्ठ ! इस तरह इन उत्तम साधकोंकी सृष्टि करके महादेवजीकी कृपासे मैंने अपने-आपको कृतार्थ मान

03. रुद्रसंहिता 01 | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 15. सृष्टिका वर्णन

03. रुद्रसंहिता 01 | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 15. सृष्टिका वर्णन तदनन्तर नारदजीके पूछनेपर ब्रह्माजी बोले- मुने ! हमें पूर्वोक्त आदेश देकर जब महादेवजी अन्तर्धान हो गये, तब मैं उनकी आज्ञाका पालन करनेके लिये ध्यानमग्न हो कर्तव्यका विचार करने लगा। उस समय भगवान् शंकरको नमस्कार करके श्रीहरिसे ज्ञान पाकर परमानन्दको प्राप्त हो मैंने सृष्टि करनेका ही निश्चय किया । तात ! भगवान् विष्णु भी वहाँ सदाशिवको प्रणाम करके मुझे आवश्यक उपदेश दे तत्काल अदृश्य हो गये। वे ब्रह्माण्डसे बाहर जाकर भगवान् शिवकी कृपा प्राप्त करके वैकुण्ठधाममें जा पहुँचे और सदा वहीं रहने लगे। मैंने सृष्टिकी इच्छासे भगवान् शिव और विष्णुका स्मरण करके पहलेके रचे हुए जलमें अपनी अञ्जलि डालकर जलको ऊपरकी ओर उछाला। इससे वहाँ एक अण्ड प्रकट हुआ, जो चौबीस तत्त्वोंका समूह कहा जाता है। विप्रवर ! वह विराट् आकारवाला अण्ड जडरूप ही था। उसमें चेतनता न देखकर मुझे बड़ा संशय हुआ और मैं अत्यन्त कठोर तप करने लगा। बारह वर्षांतक भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगा रहा । तात ! वह समय पूर्ण होनेपर भगवान् श्रीहरि स्वयं प्रकट हुए और बड़े प्रेमसे मेरे अङ्गोंका स्पर्श कर