भगवान् शिवका कैलास पर्वतपर गमन तथा सृष्टिखण्डका उपसंहार
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! मुने ! कुबेरके तपोबलसे भगवान् शिवका जिस प्रकार पर्वतश्रेष्ठ कैलासपर शुभागमन हुआ, वह प्रसङ्ग सुनो। कुबेरको वर देनेवाले विश्वेश्वर शिव जब उन्हें निधिपति होनेका वर देकर अपने उत्तम स्थानको चले गये, तब उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया- 'ब्रह्माजीके ललाटसे जिनका प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो प्रलयका कार्य सँभालते हैं, वे रुद्र मेरे पूर्ण स्वरूप हैं। अतः उन्हींके रूपमें मैं गुह्यकोंके निवासस्थान कैलास पर्वतको जाऊँगा। उन्हींके रूपमें मैं कुबेरका मित्र बनकर उसी पर्वतपर विलास पूर्वक रहूँगा और बड़ा भारी तप करूँगा।' शिवकी इस इच्छाका चिन्तन करके उन रुद्रदेवने कैलास जानेके लिये उत्सुक डमरू बजाया। डमरूकी वह ध्वनि, जो उत्साह बढ़ानेवाली थी, तीनों लोकोंमें व्याप्त हो गयी। उसका विचित्र एवं गम्भीर शब्द आह्वानकी गतिसे युक्त था, अर्थात् सुननेवालोंको अपने पास आनेके लिये प्रेरणा दे रहा था। उस ध्वनिको सुनकर मैं तथा श्रीविष्णु आदि सभी देवता, ऋषि, मूर्तिमान् आगम, निगम और सिद्ध वहाँ आ पहुँचे। देवता और असुर आदि सब लोग बड़े उत्साहमें भरकर वहाँ आये। भगवान् शिवके समस्त पार्षद तथा सर्वलोकवन्दित महाभाग गणपाल जहाँ कहीं भी थे, वहाँसे आ गये।
इतना कहकर ब्रह्माजीने वहाँ आये हुए गणपालोंका नामोल्लेखपूर्वक विस्तृत परिचय दिया, फिर इस प्रकार कहना आरम्भ किया। वे बोले- वहाँ असंख्य महाबली गणपाल पधारे। वे सब-के-सब सहस्रों भुजाओंसे युक्त थे और मस्तकपर जटाका ही मुकुट धारण किये हुए थे। सभी चन्द्रचूड़, नीलकण्ठ और त्रिलोचन थे। हार, कुण्डल, केयूर तथा मुकुट आदिसे अलंकृत थे। वे मेरे, श्रीविष्णुके तथा इन्द्रके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। अणिमा आदि आठों सिद्धियोंसे घिरे थे तथा करोड़ों सूर्योके समान उद्भासित हो रहे थे। उस समय भगवान् शिवने विश्वकर्माको उस पर्वतपर निवास स्थान बनानेकी आज्ञा दी। अनेक
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