03. रुद्रसंहिता 01 | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 17-18-19. यज्ञदत्त-कुमारको भगवान् शिवकी कृपासे कुबेरपदकी प्राप्ति तथा उनकीभगवान् शिवके साथ मैत्री

03. रुद्रसंहिता 01 | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 17-18-19. यज्ञदत्त-कुमारको भगवान् शिवकी कृपासे कुबेरपदकी प्राप्ति तथा उनकीभगवान् शिवके साथ मैत्री

सूतजी कहते हैं - मुनीश्वरो ! ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर नारदजीने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और पुनः पूछा- 'भगवन् ! भक्तवत्सल भगवान् शंकर कैलास पर्वतपर कब गये और महात्मा कुबेरके साथ उनकी मैत्री कब हुई ? परिपूर्ण मङ्गलविग्रह महादेवजीने वहाँ क्या किया ? यह सब मुझे बताइये । इसे सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल है।'

ब्रह्माजीने कहा- नारद ! सुनो, चन्द्रमौलि भगवान् शंकरके चरित्रका वर्णन

करता हूँ। वे कैसे कैलास पर्वतपर गये और कुबेरकी उनके साथ किस प्रकार मैत्री हुई, यह सब सुनाता हूँ। काम्पिल्य नगरमें यज्ञदत्त नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहते थे, जो बड़े सदाचारी थे। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम गुणनिधि था। वह बड़ा ही दुराचारी और जुआरी हो गया था। पिताने अपने उस पुत्रको त्याग दिया। वह घरसे निकल गया और कई दिनोंतक भूखा भटकता रहा। एक दिन वह नैवेद्य चुरानेकी इच्छासे एक शिवमन्दिरमें गया। वहाँ उसने अपने वस्त्रको जलाकर उजाला किया। यह मानो उसके द्वारा भगवान् शिवके लिये दीपदान किया गया । तत्पश्चात् वह चोरीमें पकड़ा गया और उसे प्राणदण्ड मिला। अपने कुकमेकि कारण वह यमदूतो- द्वारा बाँधा गया। इतनेमें ही भगवान् शंकरके पार्षद वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने उसे उनके बन्धनसे छुड़ा दिया। शिवगणोंके सङ्गसे उसका हृदय शुद्ध हो गया था। अतः वह उन्हींके साथ तत्काल शिवलोकमें चला गया। वहाँ सारे दिव्य भोगोंका उपभोग तथा उमा-महेश्वरका सेवन करके कालान्तरमें वह कलिङ्गराज अरिंदमका पुत्र हुआ। वहाँ उसका नाम था दम। वह निरन्तर भगवान् शिवकी सेवामें लगा रहता था। बालक होने- पर भी वह दूसरे बालकोंके साथ शिवका भजन किया करता था। वह क्रमशः युवा-वस्थाको हुआ और पिताके प्राप्त परलोकगमनके पश्चात् राजसिंहासनपर बैठा ।

राजा दम बड़ी प्रसन्नताके साथ सब ओर शिवधर्मोका प्रचार करने लगे। भूपाल दमका दमन करना दूसरोंके लिये सर्वथा कठिन था। ब्रह्मन् ! समस्त शिवालयोंमें दीपदान करनेके अतिरिक्त वे दूसरे किसी धर्मको नहीं जानते थे। उन्होंने अपने राज्यमें रहनेवाले समस्त ग्रामाध्यक्षोंको बुलाकर यह आज्ञा दे दी कि 'शिवमन्दिरमें दीपदान करना सबके लिये अनिवार्य होगा। जिस-जिस ग्रामाध्यक्षके गाँवके पास जितने शिवालय हों, वहाँ-वहाँ बिना कोई विचार किये सदा दीप जलाना चाहिये ।' आजीवन इसी धर्मका पालन करनेके कारण राजा दमने बहुत बड़ी धर्मसम्पत्तिका संचय कर लिया। फिर वे काल-धर्मके अधीन हो गये। दीपदानकी वासनासे युक्त होनेके कारण उन्होंने शिवालयोंमें बहुत-से दीप जलवाये और उसके फलस्वरूप जन्मान्तरमें वे रत्नमय दीपोंकी प्रभाके आश्रय हो अलकापुरीके स्वामी हुए। इस प्रकार भगवान् शिवके लिये किया हुआ थोड़ा-सा भी पूजन या आराधन समयानुसार महान् फल देता है, ऐसा जानकर उत्तम सुखकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको शिवका भजन अवश्य करना चाहिये। वह दीक्षितका पुत्र, जो सदा सब प्रकारके अधमोंमें ही रचा-पचा रहता था, दैवयोगसे शिवालयमें धन चुरानेके लिये गया और उसने स्वार्थवश अपने कपड़ेको दीपककी बत्ती बनाकर उसके प्रकाशसे शिवलिङ्गके ऊपरका अँधेरा दूर कर दिया; इस सत्कर्मके फलस्वरूप वह कलिङ्ग देशका राजा हुआ और धर्ममें उसका अनुराग हो गया। फिर दीपकी वासनाका उदय होनेसे शिवालयोंमें दीप जलवाकर उसने यह दिक्पालका पद पा लिया। मुनीश्वर ! देखो तो सही, कहाँ उसका वह कर्म और कहाँ यह दिक्पालकी पदवी, जिसका यह मानवधर्मा प्राणी इस समय यहाँ उपभोग कर रहा है। तात ! यह तो उसके ऊपर शिवके संतुष्ट होनेकी बात बतायी गयी। अब एकचित्त होकर यह सुनो कि किस प्रकार सदाके लिये उसकी भगवान् शिवके साथ मित्रता हो गयी। मैं इस प्रसङ्गका तुमसे वर्णन करता हूँ।

नारद ! पहलेके पाद्मकल्पकी बात है, मुझ ब्रह्माके मानस पुत्र पुलस्त्यसे विश्रवाका जन्म हुआ और विश्रवाके पुत्र वैश्रवण (कुबेर) हुए। उन्होंने पूर्वकालमें अत्यन्त उग्र तपस्याके द्वारा त्रिनेत्रधारी महादेवकी आराधना करके विश्वकर्माकी बनायी हुई इस अलकापुरीका उपभोग किया। जब वह कल्प व्यतीत हो गया और मेघवाहनकल्प आरम्भ हुआ, उस समय वह यज्ञदत्तका पुत्र, जो प्रकाशका दान करनेवाला था, कुबेरके रूपमें अत्यन्त दुस्सह तपस्या करने लगा। दीपदानमात्रसे मिलनेवाली शिवभक्तिके प्रभावको जानकर वह शिवकी चित्प्रकाशिका काशिकापुरीमें गया और अपने चित्तरूपी रत्नमय प्रदीपोंसे ग्यारह रुद्रोंको उद्बोधित करके अनन्यभक्ति एवं स्नेहसे सम्पन्न हो वह तन्मयतापूर्वक शिवके ध्यानमें मग्न हो निश्चलभावसे बैठ गया। जो शिवकी एकताका महान् पात्र है, तपरूपी अग्निसे बढ़ा हुआ है, काम-क्रोधादि महाविघ्न्नरूपी पतङ्गोंके आघातसे शून्य है, प्राणनिरोधरूपी वायुशून्य स्थानमें निश्चलभावसे प्रकाशित है, निर्मल दृष्टिके कारण स्वरूपसे भी निर्मल है तथा सद्भावरूपी पुष्पोंसे जिसकी पूजा की गयी है, ऐसे शिवलिङ्गकी प्रतिष्ठा करके वह तबतक तपस्यामें लगा रहा, जबतक उसके शरीरमें केवल अस्थि और चर्ममात्र ही अवशिष्ट नहीं रह गये। इस प्रकार उसने दस हजार वर्षोंतक तपस्या की। तदनन्तर विशालाक्षी पार्वतीदेवीके साथ भगवान् विश्वनाथ कुबेरके पास आये। उन्होंने प्रसन्नचित्तसे अलकापतिकी ओर देखा। वे शिवलिङ्गमें मनको एकाग्र करके दूँठे काठकी भाँति स्थिरभावसे बैठे थे। भगवान् शिवने उनसे कहा- 'अलकापते ! मैं वर देनेके लिये उद्यत हूँ। तुम अपना मनोरथ बताओ ।'

यह वाणी सुनकर तपस्याके धनी कुबेरने ज्यों ही आँखें खोलकर देखा, त्यों ही उमावल्लभ भगवान् श्रीकण्ठ सामने खड़े दिखायी दिये। वे उदयकालके सहस्त्रों सूर्योंसे भी अधिक तेजस्वी थे और उनके मस्तकपर चन्द्रमा अपनी चाँदनी बिखेर रहे थे। भगवान् शंकरके तेजसे उनकी आँखें चौंधिया गयीं। उनका तेज प्रतिहत हो गया और वे नेत्र बंद करके मनोरथसे भी परे विराजमान देवदेवेश्वर शिवसे बोले- 'नाथ ! मेरे नेत्रोंको वह दृष्टिशक्ति दीजिये, जिससे आपके चरणारविन्दोंका दर्शन हो सके । स्वामिन् ! आपका प्रत्यक्ष दर्शन हो, यही मेरे लिये सबसे बड़ा वर है। ईश दूसरे किसी वरसे मेरा क्या प्रयोजन है। चन्द्रशेखर ! आपको नमस्कार है।'

कुबेरकी यह बात सुनकर देवाधिदेव उमापतिने अपनी हथेलीसे उनका स्पर्श करके उन्हें देखनेकी शक्ति प्रदान की। दृष्टिशक्ति मिल जानेपर यज्ञदत्तके उस पुत्रने आँखें फाड़-फाड़कर पहले उमाकी ओर ही देखना आरम्भ किया। वह मन-ही-मन सोचने लगा, 'भगवान् शंकरके समीप यह सर्वाङ्गसुन्दरी कौन है ? इसने कौन-सा ऐसा तप किया है, जो मेरी भी तपस्यासे बढ़ गया है। यह रूप, यह प्रेम, यह सौभाग्य और यह असीम शोभा - सभी अद्भुत हैं।' वह ब्राह्मणकुमार बार-बार यही कहने लगा। जब बार-बार यही कहता हुआ वह क्रूर दृष्टिसे उनकी ओर देखने लगा, तब वामाके अवलोकनसे उसकी बायीं आँख फूट गयी। तदनन्तर देवी पार्वतीने महादेवजीसे कहा- 'प्रभो ! यह दुष्ट तपस्वी बार-बार मेरी ओर देखकर क्या बक रहा है ? आप मेरी तपस्याके तेजको प्रकट कीजिये।' देवीकी यह बात सुनकर भगवान् शिवने हँसते हुए उनसे कहा- 'उमे ! यह तुम्हारा पुत्र है। यह तुम्हें क्रूर दृष्टिसे नहीं देखता, अपितु तुम्हारी तपः सम्पत्तिका वर्णन कर रहा है।' देवीसे ऐसा कहकर भगवान् शिव पुनः उस ब्राह्मणकुमारसे बोले- 'वत्स ! में तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट होकर तुम्हें वर देता हूँ। तुम निधियोंके स्वामी और गुह्यकोंके राजा हो जाओ। सुव्रत ! यक्षों, किन्नरों और राजाओंके भी राजा होकर पुण्यजनोंके पालक और सबके लिये धनके दाता बनो। मेरे साथ तुम्हारी सदा मैत्री बनी रहेगी और मैं नित्य तुम्हारे निकट निवास करूँगा। मित्र ! तुम्हारी प्रीति बढ़ानेके लिये मैं अलकाके पास ही रहूँगा। आओ, इन उमादेवीके चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम करो। क्योंकि ये तुम्हारी माता हैं। महाभक्त यज्ञदत्त कुमार ! तुम अत्यन्त प्रसन्नचित्तसे इनके चरणोंमें गिर जाओ ।'

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद ! इस प्रकार वर देकर भगवान् शिवने पार्वतीदेवीसे फिर कहा- 'देवेश्वरी ! इसपर कृपा करो। तपस्विनि ! यह तुम्हारा पुत्र है।' भगवान् शंकरका यह कथन सुनकर जगदम्बा पार्वतीने प्रसन्नचित्त हो यज्ञदत्तकुमारसे कहा- 'वत्स ! भगवान् शिवमें तुम्हारी सदा निर्मल भक्ति बनी रहे। तुम्हारी बायीं आँख तो फूट ही गयी। इसलिये एक ही पिङ्गलनेत्रसे युक्त रहो। महादेवजीने जो वर दिये हैं, वे सब उसी रूपमें तुम्हें सुलभ हो। बेटा ! मेरे रूपके प्रति ईर्ष्या करनेके कारण तुम कुबेर नामसे प्रसिद्ध होओगे।' इस प्रकार कुबेरको वर देकर भगवान् महेश्वर पार्वतीदेवीके साथ अपने विश्वेश्वरधाममें चले गये। इस तरह कुबेरने भगवान् शंकरकी मैत्री प्राप्त की और अलकापुरीके पास जो कैलास पर्वत है, वह भगवान् शंकरका निवास हो गया। (अध्याय १७-१९)

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