01. शिवपुराण माहात्म्य || 02-03. शिवपुराणके श्रवणसे देवराजको शिवलोककी प्राप्ति तथा चञ्चुलाका पापसे भय एवं संसारसे वैराग्य

01. शिवपुराण माहात्म्य || 02-03. शिवपुराणके श्रवणसे देवराजको शिवलोककी प्राप्ति तथा चञ्चुलाका पापसे भय एवं संसारसे वैराग्य

श्री शौनकजीने कहा
महाभाग सूतजी ! आप धन्य है, परमार्थ-तत्वके ज्ञाता हैं, आपने कृपा करके हमलोगोको यह बड़ी अद्भुत एवं दिव्य कथा सुनायी है। भूतलपर इस कथाके समान कल्याणका सर्वश्रेष्ठ साधन दूसरा कोई नहीं है, यह बात हमने आज आपकी कृपासे निश्चयपूर्वक समझ ली। सूतजी कलियुगमें इस कथाके द्वारा कौन-कौन-से पापी शुद्ध होते हैं? उन्हें कृपापूर्वक बताइये और इस जगत्‌को कृतार्थ कीजिये। सूतजी बोले—मुने ! जो मनुष्य पापी, दुराचारी, खल तथा काम-क्रोध आदिमें निरन्तर डूबे रहनेवाले हैं, वे भी इस पुराणके श्रवण-पठनसे अवश्य ही शुद्ध हो जाते हैं। इसी विषय में जानकार मुनि इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिसके श्रवणमात्रसे पापोंका पूर्णतया नाश हो जाता है।

पहलेकी बात है, कहीं किरातोंके नगरमें एक ब्राह्मण रहता था, जो ज्ञानमें अत्यन्त दुर्बल, दरिद्र, रस बेचनेवाला तथा वैदिक धर्मसे विमुख था वह स्नान-संध्या आदि कमोंसे भ्रष्ट हो गया था और वैश्यवृत्तिमें तत्पर रहता था। उसका नाम था देवराज । वह अपने ऊपर विश्वास करनेवाले लोगोंको ठगा करता था। उसने ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों शुद्रों तथा दूसरोंको भी अनेक बहानोंसे मारकर उन-उनका धन हड़प लिया था। परंतु उस पापीका थोड़ा-सा भी धन कभी धर्मके काममें नहीं लगा था। वह वेश्यागामी तथा सब प्रकारसे आचार भृष्ट था।

एक दिन घूमता-घामता वह दैवयोगसे प्रतिष्ठानपुर (झूसी - प्रयाग) में जा पहुँचा। वहाँ उसने एक शिवालय देखा, जहाँ बहुत से साधु-महात्मा एकत्र हुए थे। देवराज उस शिवालय में ठहर गया, किंतु वहाँ उस ब्राह्मणको ज्वर आ गया। उस ज्वरसे उसको बड़ी पीड़ा होने लगी। वहाँ एक ब्राह्मणदेवता शिवपुराणकी कथा सुना रहे थे। ज्वरमें पड़ा हुआ देवराज ब्राह्मणके मुखारविन्दसे निकली हुई उस शिवकथाको निरन्तर सुनता रहा। एक मासके बाद वह ज्वरसे अत्यन्त पीड़ित होकर चल बसा। यमराजके दूत आये और उसे पाशोंसे बाँधकर बलपूर्वक यमपुरीमे ले गये। इतनेमें ही शिवलोकसे भगवान् शिवके पार्षदगण आ गये। उनके गौर अङ्ग कर्पूरके समान उज्ज्वल थे, हाथ त्रिशूलसे सुशोभित हो रहे थे, उनके सम्पूर्ण अङ्ग परमसे उद्भासित थे और रूद्राक्षकी मालाएँ उनके शरीरकी शोभा बढ़ा रही थीं।

ये सब-के-सब क्रोधपूर्वक यमपुरीमे गये और यमराजके दूतोंको मार-पीटकर, बारंबार धमकाकर उन्होंने देवराजको उनके चंगुल से छुड़ा लिया और अत्यन्त अद्भुत विमानपर बिठाकर जब वे शिवदूत कैलास जानेको उद्यत हुए, उस समय यमपुरीमें बड़ा भारी कोलाहल मच गया। उस कोलाहल सुनकर धर्मराज अपने महल से बाहर आये। साक्षात् दूसरे रुद्रोंके समान प्रतीत होनेवाले उन चारों दूतोंको देखकर धर्मज्ञ धर्मराजने उनका विधिपूर्वक पूजन किया और ज्ञानदृष्टिसे देखकर सारा वृत्तान्त जान लिया। उन्होंने भयके कारण भगवान् शिवके उन महात्मा दूतोंसे कोई बात नहीं पूछी, उलटे उन सबकी पूजा एवं प्रार्थना की। तत्पश्चात् वे शिवदूत कैलासको चले गये और वहाँ पहुँचकर उन्होंने उस ब्राह्मणको दयासागर साम्ब शिवके हाथोंमें दे दिया।
शौनकजीने कहा 
महाभाग सूतजी | आप सर्वज्ञ हैं। महामते ! आपके कृपाप्रसादसे में बारंबार कृतार्थ हुआ। इस इतिहासको सुनकर मेरा मन अत्यन्त आनन्दमें निमग्न हो रहा है। अतः अब भगवान् शिवमें प्रेम बढ़ानेवाली शिवसम्बन्धिनी दूसरी कथाको भी कहिये ।

★★ स्वर्ण की चोरी करें, करें सुई का दान
 अंत समय दुहाई दें, आया नहीं विमान।★★

                                 ।।2।।

श्रीसूतजी बोले ! सुनो, मैं तुम्हारे सामने गोपनीय कथावस्तुका भी वर्णन करूँगा; क्योंकि तुम शिव भक्तोंमें अप्रगण्य तथा वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हो । समुद्रके निकटवर्ती प्रदेशमें एक वाष्कल नामक ग्राम है, जहाँ वैदिक धर्मसे विमुख महापापी द्विज निवास करते हैं। वे सब-के सब बड़े दुष्ट हैं, उनका मन दूषित विषय भोगोंमें ही लगा रहता है। वे न देवताओंपर विश्वास करते हैं न भाग्यपर; वे सभी कुटिल वृत्तिवाले हैं। किसानी करते और भाँति भाँतिके घातक अस्त्र-शस्त्र रखते हैं। वे व्यभिचारी और खल हैं। ज्ञान, वैराग्य तथा सद्धर्मका सेवन ही मनुष्यके लिये परम पुरुषार्थ है-इस बातको वे बिलकुल नहीं जानते हैं। वे सभी पशुबुद्धिवाले हैं

(जहाँके द्विज ऐसे हों, वहाँके अन्य वर्णोंके विषयमें क्या कहा जाय।) अन्य वर्णोंक लोग भी उन्हींकी भाँति कुत्सित विचार रखनेवाले, स्वधर्मविमुख एवं खल हैं; वे सदा कुकर्ममें लगे रहते और नित्य विषयभोगोंमें ही डूबे रहते हैं । वहाँकी सब स्त्रियाँ भी कुटिल स्वभावकी, स्वेच्छाचारिणी, पापासक्त, कुत्सित विचारवाली और व्यभिचारिणी हैं। वे सद्व्यवहार तथा सदाचारसे सर्वथा शून्य हैं। इस प्रकार वहाँ दुष्टोंका ही निवास है।

उस वाष्कल नामक ग्राममें किसी समय एक बिन्दुग नामधारी ब्राह्मण रहता था, वह बड़ा अधम था। दुरात्मा और महापापी था। यद्यपि उसकी स्त्री बड़ी सुन्दरी थी, तो भी वह कुमार्गपर ही चलता था। उसकी पत्नीका नाम चञ्चुला था; वह सदा उत्तम धर्मके पालनमें लगी रहती थी, तो भी उसे छोड़कर यह दुष्ट ब्राह्मण वेश्यागामी हो गया था। इस तरह कुकर्ममे लगे हुए उस बिन्दुगके बहुत वर्ष व्यतीत हो गये। उसकी स्त्री चञ्चुला कामसे पीड़ित होनेपर भी स्वधर्मनाशके भयसे क्लेश सहकर भी दीर्घकालतक धर्मसे भ्रष्ट नहीं हुई। परंतु दुराचारी पतिके आचरणसे प्रभावित हो आगे चलकर वह स्त्री भी दुराचारिणी हो गयी।

इस तरह दुराचारमें डूबे हुए उन मूढ चित्तवाले पति-पत्नीका बहुत-सा समय व्यर्थ बीत गया। तदनन्तर शूद्रजातीय वेश्याका पति बना हुआ वह दूषित बुद्धिवाला दुष्ट ब्राह्मण बिन्दुग समयानुसार मृत्युको प्राप्त हो नरकमें जा पड़ा। बहुत दिनोंतक नरकके दुःख भोगकर वह मूढ बुद्धि पापी विन्ध्यपर्वतपर भयंकर पिशाच हुआ। इधर, उस दुराचारी पति बिन्दुगके मर जानेपर वह मुड़हृदया चञ्चुला बहुत समयतक पुत्रोंके साथ अपने घरमें ही रही

एक दिन दैवयोगसे किसी पुण्य पर्वके आनेपर यह स्त्री भाई-बन्धुओंके साथ गोकर्ण क्षेत्र में गयी। तीर्थयात्रियों के संगसे उसने भी उस समय जाकर किसी तीर्थके जलमें स्नान किया। फिर वह साधारणतया (मेला देखनेकी दृष्टिसे) बन्धुजनोंके साथ यत्र-तत्र घूमने लगी। घूमती घामती किसी देवमन्दिरमें गयी और वहाँ उसने एक दैवज्ञ ब्राह्मणके मुखसे भगवान् शिवकी परम पवित्र एवं मङ्गलकारिणी उत्तम पौराणिक कथा सुनी। कथावाचक ब्राह्मण कह रहे थे कि 'जो स्त्रियां परपुरुषोंके साथ व्यभिचार करती हैं, वे मरनेके बाद जब यमलोकमें जाती हैं, तब यमराजके दूत उनकी योनिमें तपे हुए लोहेका परिघ डालते हैं।' पौराणिक ब्राह्मणके मुखसे यह वैराग्य बढ़ानेवाली कथा सुनकर चञ्चुला भयसे व्याकुल हो वहाँ काँपने लगी। जब कथा समाप्त हुई और सुननेवाले सब लोग वहाँसे बाहर चले गये, तब वह भयभीत नारी एकान्तमें शिवपुराणकी कथा बाँचनेवाले उन ब्राह्मण देवतासे बोली।

चञ्चुलाने कहा-ब्रह्मन् ! मैं अपने धर्मको नहीं जानती थी। इसलिये मेरे द्वारा बड़ा दुराचार हुआ है। स्वामिन्! मेरे ऊपर अनुपम कृपा करके आप मेरा उद्धार कीजिये। आज आपके वैराग्य- रससे ओतप्रोत इस प्रवचनको सुनकर मुझे बड़ा भय लग रहा है। मैं काँप उठी हूँ और मुझे इस संसारसे वैराग्य हो गया है। मुझ मूढ़ चित्तवाली पापिनीको धिक्कार है। मैं सर्वथा निन्दाके योग्य हूँ। कुत्सित विषयोंमें फँसी हुई हूँ और अपने धर्मसे विमुख हो गयी हूँ। हाय ! न जाने किस-किस घोर कष्टदायक दुर्गतिमें मुझे पड़ना पड़ेगा और वहाँ कौन बुद्धिमान् पुरुष कुमार्गमें मन लगानेवाली मुझ पापिनीका साथ देगा। मृत्युकालमें उन भयंकर यमदूतोंको मैं कैसे देखूँगी ? जब वे बलपूर्वक मेरे गलेमें फंदे डालकर मुझे बाँधंगे, तब मैं कैसे धीरज धारण कर सकूँगी। नरकमें जब मेरे शरीरके टुकड़े टुकड़े किये जायेंगे, उस समय विशेष दुःख देनेवाली उस महायातनाको मैं वहाँ कैसे सहूँगी ? हाय! मैं मारी गयी। मैं जल गयी! मेरा हृदय विदीर्ण हो गया और मैं सब प्रकारसे नष्ट हो गयी; क्योंकि में हर तरहसे पापमें ही डूबी रही हूँ। ब्रह्मन ! आप ही मेरे गुरु, आप ही माता और आप ही पिता हैं। आपकी शरण में आयी हुई मुझ दीन अबलाका आप ही उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये ।

सूतजी कहते हैं- 
शौनक ! इस प्रकार स्वेद और वैराग्यसे युक्त हुई चचुला ब्राह्मण देवताके दोनों चरणोंमें गिर पड़ी। तब उन बुद्धिमान् ब्राह्मणने कृपापूर्वक उसे उठाया और इस प्रकार कहा।
                                  ‌‌।‌। ।3।।

(अध्याय 2-3)

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