काशी 01 [बनारस या वाराणसी]



काशी-माहात्म्य

मुक्ति जन्म महि जानि, ग्यान खानि अघ हानि कर । 
जहँ बस संभु भवानि, सो कासी सेइअ कस न ॥

ऐतिहासिकारों की दृष्टिमें काशी संसारकी सबसे प्राचीन नगरी है । इसका वेदोंमें कई जगह उल्लेख है । 
आप इव काशिना संगृभीताः' (ऋक् ७ । १०४ । ८ ) 'मघवन् ! ! काशिरित्ते' (ऋ० ३ । ३० । ५) । 'यज्ञ: काशीनां भरतः सात्वतामिव' (शतप० ब्रा० १३ । ५ । ४ । १९; २१) आदि । 

पुराणोंके अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है । पहले यह भगवान् माधवकी पुरी थी। कहा जाता है कि एक बार भगवान शङ्कर से झूठ बोलने के कारण भगवान् शङ्करने ब्रह्माजीका एक सिर काट दिया। इससे ब्रह्महत्या उनके पीछे पड़ गई परिणामत: ब्रह्माजीका वह सिर उनके करतलसे संलग्न हो गया अर्थात चिपक गया। वे इससे मुक्त होने के लिए 12 वर्षों तक बदरीनारायण, कुरुक्षेत्र, ब्रह्महृद आदि तीर्थों में घूमते रहे । पर वह सिर हाथसे अलग नहीं हुआ। अन्तमें ज्यों ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्याने उनका पीछा छोड़ दिया और स्नान करते ही करसंलग्न कपाल भी अलग हो गया । जहाँ वह कपाल छूटा, वही कपालमोचन तीर्थ कहलाया। 

इससे प्रभुके आनन्दा की सीमा नहीं रही। उनकी आंखों में नेत्रों आनन्दाश्रु भर आए। जहाँ प्रभुके नेत्रोंसे आनन्दाश्रु गिरे थे, वह बिन्दुसरोवर कहलाया।

फिर भगवान् विष्णुसे प्रार्थना करके, उन्होंने उस उत्तर० पुरीको अपने नित्य आवासके लिये माँग लिया। और भगवान शङ्कर  बिन्दुमाधव नामसे प्रतिष्ठित हुए। ( स्कन्दपुराण, काशी०; बृहन्नारदी ० अ० २९ । १-७२१ उ० ४८ । ९-१२) ।

काशीके 12 नाम
काशीखण्ड आदि के अनुसार काशीके 12 नाम हैं काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तपःस्थली, मुक्तिभूमि (क्षेत्र, पुरी ) और श्रीशिवपुरी (त्रिपुरारि - राजनगरी )।

काशीके माहात्म्यके सम्बन्धमें स्कन्दपुराण कहता है 
भूमिष्ठापि न यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरधः स्थापि या या बद्धा भुवि मुक्तिदा स्युरमृतं यस्यां मृता जन्तवः । या नित्यं त्रिजगत्पवित्रतटिनी तीरे सुरैः सेव्यते सा काशी त्रिपुरारिराजनगरी पायादपायाज्जगत् ॥

( काशीख ० १ । १ ।)
"जो पृथ्वीपर होनेपर भी पृथ्वीसे सम्बद्ध नहीं है ( साधारण पृथ्वी नहीं है—तीन लोकसे न्यारी है), जो अधःस्थित (नीची होनेपर भी ) स्वर्गादि लोकोंसे भी अधिक प्रतिष्ठित एवं उच्चतर है, जो जागतिक सीमाओंसे आबद्ध होनेपर भी सभीका बन्धन काटनेवाली मोक्षदायिनी है, जो सदा त्रिलोकपावनी भगवती भागीरथीके तटपर सुशोभित तथा देवताओंसे सुसेवित है, वह त्रिपुरारि भगवान् विश्वनाथ की राजनगरी सम्पूर्ण जगत्को नष्ट होनेसे बचाये ।'

काशीकी सीमा शास्त्रोंमें यो वर्णित है— 
द्वियोजनमथाई पूर्वपश्चिमतः स्थितम् । 
अर्द्धयोजन विस्तीर्णं दक्षिणोत्तरतः स्मृतम् ॥ 
वरणासिर्नदी यावदसिः शुष्कनदी शुभे । 
एष क्षेत्रस्य विस्तारः प्रोक्तो देवेन शम्भुना ॥ 
अयनं तूत्तरं देवं तिमिचण्देश्वरं ततः । 
दक्षिणं शंकुकर्णं तु ॐकारं तदनन्तरम् ॥ 
          ( ना० पु० उ० ४९ । १९-२० अग्निपु० ११२ । ६) 

अर्थात काशी पूर्व-पश्चिम ढाई योजन ( दस कोस ) लंबी तथा दक्षिणोत्तर आधा योजन ( दो कोस ) चौड़ी है। भगवान् शङ्करने इसका विस्तार वरणासे शुष्क नदी असीतक बतलाया है। इसके उत्तर में अयन तथा तिमिचण्डेश्वर एवं दक्षिणमें शंकुकर्ण एवं ॐकारेश्वर में है।

नारदपुराण कहता है-

वाराणसी तु भुवनत्रयसारभूता रम्या नृणां सुगतिदा किल सेव्यमाना । 
अनागता विविधदुष्कृतकारिणोऽपि पापक्षये विरजसः सुमनःप्रकाशाः ॥
( ना० पु० उ० ४८ । १३ )

"काशी परम रम्य ही नहीं, त्रिलोकीका सार है। वह सेवन किये जानेपर मनुष्योंको सद्गति प्रदान करती है। अनेक पापाचारी भी यहाँ आकर पापमुक्त होकर देववत प्रकाशित होने लगते हैं ।'

कहा जाता है कि अवन्तिका आदि सात मोक्षपुरियाँ हैं। पर वे कालान्तरमें काशीप्राप्ति कराके ही मोक्ष प्रदान करती हैं। 

काशी ही एक पुरी है जो साक्षात् मोक्ष देती है--- 
अन्यानि मुक्तिक्षेत्राणि काशीप्राप्तिकराणि च ।
काशीं प्राप्य विमुच्येत नान्यथा तीर्थकोटिभिः ॥
( काशीखं० )

'काशीखण्ड का कहना है कि मैं कब काशी जाऊँगा, कब शङ्करजीका दर्शन करूँगा' इस प्रकार जो सोचता तथा कहता है, उसे सर्वदा काशीवासका फल प्राप्त होता है।

कदा काश्यां गमिष्यामि कदा द्रक्ष्यामि शङ्करम् ।
इति ब्रुवाणः सततं काशीवासफलं लभेत् ॥

जिनके हृदयमें काशी सदा विराजमान है, उन्हें संसार-सर्पके विषसे क्या भय ?

येषां हृदि सदैवास्ते काशी स्वाशीविषाङ्गदः । संसाराशीविषविषं न तेषां प्रभवेत् कचित् ॥

जिसने काशी--यह दो अक्षरोंका अमृत कानोंसे पान कर लिया. उसे गर्भजनित व्यथाकथा नहीं सुननी पड़ती।

श्रुतं कर्णामृतं येन काशीत्यक्षरयुग्मकम् । 
न समाकर्णयत्येव स पुनर्गर्भजां कथाम् ॥ । 
काशीखं० अध्या० ६४

जो दूरसे भी काशी काशी सदा जपता रहता है, वह अन्यत्र रहकर भी मोक्ष प्राप्त कर लेता है

काशी काशीति काशीति जपतो यस्य संस्थितिः । अन्यत्रापि सतस्तस्य पुरो मुक्तिः प्रकाशते ॥ ( ६४ )

काशी के विभिन्न क्षेत्रोंमें किये गये स्नान, दानः जय, तपः अध्ययनादिकी अनन्त महिमा है । काशी-माहात्म्य के सम्बन्धमें अधिक जानने के लिये स्कन्दपुराण - काशीखण्ड अध्याय १ से १००, नारदपुराण उ० भा० अ० ४८ से ५३; अ० २९; अग्निपु० अ० ११२; शिवपुराण, शतरु० अ०२३ पद्मपुराण पूना आनन्दाश्रमसं० आदिख० ३२ से ३७ अध्यायतक; वेङ्कटेश्वर सं० स्वर्गख० ३२ से ३७ तक, उत्तरख० अध्याय २३३ भविष्य पु० उ० १३० आदि स्थलोंको देखना चाहिये

काशी

इसे बनारस या वाराणसी भी कहा जाता है। कहा जाता है कि यह पुरी भगवान् शङ्करके त्रिशूलपर बसी है और प्रलय में भी इसका नाश नहीं होता। वरणा और असि नामक नदियों के बीच बसी होनेसे इसे वाराणसी कहते हैं। जहाँ देह त्यागने से प्राणी मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है यहाँ देह त्यागके समय भगवान् शङ्कर मरणोन्मुख प्राणीको तारकमन्त्र सुनाते हैं और उससे जीवको तत्त्वज्ञान हो जाता है, उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूप प्रकाशित हो जाता है। इस प्रकार 'जहाँ ब्रह्म प्रकाशित हो, वह काशी' यह काशी नामका अर्थ है ।

अयोध्या-मथुरा-माया-काशी-कांची-त्वन्तिका, पुरी -द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।
अयोध्या, मथुरा, माया ( कनखल-हरिद्वार), काशी: काञ्ची, अवन्तिका (उज्जैन) तथा द्वारिका -- ये सात पुरियाँ हैं । इनमें भी काशी मुख्य मानी गयी है। 'काश्यां हि मरणान्मुक्तिः' काशी में कैसा भी प्राणी मरे, वह मुक्त हो जाता है। यह शास्त्रकी घोषणा है और इसपर आस्था रखते हुए सहस्रों वर्षसे देश के कोने कोने से लोग देहोत्सर्ग के लिये काशी आते रहे हैं । बहुत-से लोग तो मरनेके लिये काशी में ही निवास करते हैं । वे काशीसे बाहर जाते ही नहीं।

काशी भारतका प्राचीनतम विद्याकेन्द्र और सांस्कृतिक नगर है। यह किसी एक प्रान्त, एक सम्प्रदाय या एक समाजका नगर नहीं है । भारतके सभी प्रान्तोंके निवासियों के यहाँ मुहल्ले हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी और आप्ताम 

भूटान से कच्छतकके लोग यहाँ स्थायीरूपसे बसे हैं । भगवान् विश्वनाथकी इस पुरीमें सभी सम्प्रदायके लोग रहते हैं, उनकी संस्थाएँ हैं और उपासनास्थान हैं। संस्कृत विद्याका तो यह सदासे सम्मान्य केन्द्र रहा है । धार्मिक व्यवस्था में पूरे देशके लिये काशीके विद्वानोंका निर्णय सदा शिरोधार्य रहा है।

और काशीके विद्वान् कौन ? 
वे काशीके विद्वान्, जो काशी में रहें । उनका और उनके पूर्वपुरुषोंका जन्म कहाँ किस प्रान्तमें हुआ, इससे कोई विवाद नहीं; क्योंकि काशी तो पूरे भारतकी नगरी है । भगवान् विश्वनाथकी पुरी में प्रान्तीयता या और किसी संकीर्णताको स्थान कैसे हो सकता है।

द्वादश ज्योतिर्लिङ्गोंमें भगवान् शङ्करका विश्वनाथनामक ज्योतिर्लिङ्ग काशी में है और ५१ शक्तिपीठोंमेंसे एक शक्तिपीठ ( मणिकर्णिकापर विशालाक्षी) काशी में ही है। यहाँ सतीका दाहिना कर्णकुण्डल गिरा था । इनके भैरव कालभैरव हैं। पुराणों में काशीकी अपार महिमा है। 

भगवती भागीरथीके बायें तटपर यह नगर अर्धचन्द्राकार तीन मीलतक बसा है और अब तो नगरका विस्तार बढ़ता ही जा रहा है। इसे मन्दिरोंका नगर कहा जाता है; क्योंकि यहाँ गली-गली में अनेकों मन्दिर हैं । उन सब मन्दिरोंकी नामावली भी दे पाना कठिन है । 

कथन ग्रहणेषु काशी मकरे प्रयागः' के अनुसार चन्द्रग्रहण के समय काशी में स्नानार्थियोंकी बहुत भीड़ होती है ।

काशीका पौराणिक इतिहास

महाराज सुदेव के पुत्र सम्राट् दिवोदासने गङ्गातटपर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान् शंकरने देखा कि पार्वतीजीको यह अच्छा नहीं लगता कि वे सदा पितृ- गृहमें ही पति के साथ रहें। पार्वतीकी प्रसन्नता के लिये शंकर- जीने हिमालय छोड़कर किसी सिद्धक्षेत्र में रहनेका विचार किया। 

उन्हें काशीक्षेत्र प्रिय लगा। शंकरजीने अपने निकुम्भ नामक गणको आदेश दिया- 'वाराणसीको निर्जन करो ।' निकुम्भने आदेशका पालन किया । नगर निर्जन हो जानेपर भगवान् शंकर अपने गणों के साथ वहाँ आकर रहने लगे। भगवान् शंकरके सांनिध्य में रहने की इच्छासे वहाँ देवता तथा नागलोग भी निवास करने लगे ।

प्रतापी सम्राट दिवोदास अपनी राजधानी छिन जानेसे दुखी थे उन्होंने तपस्या करके ब्रह्माजीसे वरदान माँगा- "देवता अपने दिव्यलोकों में रहें और नाग पाताललोकमें पृथ्वी मनुष्यों के लिये रहे ।' ब्रह्माजीने 'एवमस्तु' कह दिया फल यह हुआ कि शंकरजी तथा सब देवताओंको वाराणसी छोड़ देना पड़ा; किंतु शंकरजीने यहाँ विश्वेश्वररूपसे निवास किया तथा दूसरे देवता भी श्रीविग्रहरूप में स्थित हुए।

भगवान् शंकर काशी छोड़कर मन्दराचलपर चले तो गये, किंतु उन्हें अपनी यह नित्यपुरी बहुत प्रिय थी। वे यहीं रहना चाहते थे। उन्होंने राजा दिवोदासको यहाँसे निकालनेके लिये चौसठ योगिनियाँ भेजीं; किंतु राजाने उन्हें एक घाटपर स्थापित कर दिया। शंकरजीने सूर्यको भेजा; किंतु इस पुरीका वैभव देखकर वे लोल (चञ्चल) बन गये और अपने बारह रूपोंसे यहीं बस गये। शंकरजीकी प्रेरणासे ब्रह्माजी पधारे, उन्होंने दिवोदासकी सहायतासे यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ किये और स्वयं भी बस गये। अन्तमें शंकरजी की इच्छा पूर्ण करने भगवान् विष्णु यहाँ ब्राह्मणके रूपमें पधारे उन्होंने दिवोदासको ज्ञानोपदेश किया। इससे वह पुण्यात्मा नरेश विरक्त हो गया। नरेशने स्वयं एक शिवलिङ्गकी स्थापना की । विमानमें बैठकर दिवोदास शंकरजीके धाम गये और तब भगवान् शंकर मन्दराचलसे आकर काशीमें स्थित हुए। 

भगवान् शिवका यह क्रीडाक्षेत्र अविमुक्तक्षेत्र, आनन्दकानन आदि नामोंसे प्रसिद्ध है काशी में समस्त तीर्थ एवं सभी देवता निवास करते हैं जब विश्वामित्रजीने राजा हरिश्चन्द्रसे समस्त राज्य दानमें ले लिया, तब राजा इसी काशीपुरी में आये । यहीं उन्होंने अपनी पत्नी एक ब्राह्मणके घर दासी कर्म के लिये बेची और स्वयं चाण्डालके हाथ बिककर ऋषिको दक्षिणा दी।





मार्ग

प्रसिद्ध ग्रांडट्रंक रोडपर काशी अवस्थित है। सड़कके मार्गसे यहाँसे एक ओर पटना- कलकत्ता, दूसरी ओर लखनऊ, दिल्ली या प्रयाग जाया जा सकता है पूर्वोत्तर रेलवे और उत्तरी रेलवेका यहाँ जंक्शन स्टेशन है बनारस छावनी । यही यहाँका मुख्य स्टेशन है पूर्वोत्तर रेलवेसे आनेवाले बनारस सिटी और उत्तरी रेलवेसे आनेवाले काशी स्टेशनपर भी उतरते हैं।

काशी स्टेशन के पास ही गङ्गाजीपर राजघाटका पुल है। इस स्टेशनसे गङ्गाजी केवल सौ गज होंगी । किंतु तीर्थ यात्री प्रायः मणिकर्णिकाघाट या दशाश्वमेधघाटपर स्नान करते हैं । बनारस छावनीसे दशाश्वमेधघाट लगभग ३ मील और मणिकर्णिकाघाट भी लगभग उतना ही दूर है। काशी स्टेशनसे मणिकर्णिकाघाट ३ मील और दशाश्वमेधघाट ३॥ मील । बनारस सिटी स्टेशनसे घाटोंकी दूरी बनारस छावनी स्टेशनकी अपेक्षा आधा मील कम हो जाती है ।

मणिकर्णिकाघाट या दशाश्वमेध घाट कहीं स्नान किया जाय, वहाँसे श्रीविश्वनाथजी तथा अन्नपूर्णाजीके मन्दिर दो फर्लांगसे अधिक दूर नहीं हैं। यह दूरी गलियोंमें होकर पार करनी पड़ती है, अतः घाटसे मन्दिर पैदल ही जाना पड़ता है ।

काशी नगरमें सरकारी बसें चलती हैं और सब कहीं रिक्शे-ताँगे किरायेपर पर्याप्त मिलते हैं । स्टेशनोंपर टैक्सी मोटरें भी मिलती हैं।

ठहरनेके स्थान काशी में मठों, मन्दिरों तथा अनेक साहित्यिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओंके कार्यालय हैं। देशके धनी मानी लोगोंने यहाँ अनेक अन्नसत्र खोल रखे हैं और अनेक धर्मशालाएँ बनवा रखी हैं। कुछ धर्मशालाओंके नाम नीचे दिये जा रहे हैं, किंतु इनके अतिरिक्त भी बहुत-सी धर्मशालाएँ हैं ।

१- श्रीकृष्ण-धर्मशाला, बनारस छावनी स्टेशनके पास । २- राधाकृष्ण शिवदत्तरायकी, ज्ञानवापी । ३- लक्ष्मीरामकी फाटक सुखलाल साव । ४-लखनऊवालेकी, बुलानाला । बैजनाथ ५- मोतीलाल भागीरथमलकी, बुलानाला । ६-३ दूदवेवालेकी, बुलानाला । ७-बागला धर्मशाला, हौज कटरा ८- सत्यनारायण धर्मशाला, बाँसफाटक । ९-मधुरासावकी धर्मशाला, बड़ा गणेश १०- पार्वतीदेवीकी धर्मशाला, गोमठ, मणिकर्णिका । ११- बैजनाथ पटेलकी धर्मशाला, पत्थरगली । १२- वृन्दावनजी सारस्वतकी, गढ़वासी टोला। १३ - विशनजी मोरारकाकी,दूधविनायक । १४-धर्मदास नन्दसाहू दीपचन्दकी, मीरघाट । १५-सुखलाल साहू विशनसिंहकी, शटक में । १६- जटाशंकरजीकी, टेहनी टोला । १७-लक्ष्मीरामजीकी विश्वनाथ-मन्दिरके पास । १८-रेवाबाईकी (गुजरातिर्योके लिये ) टाउनहाल १९- हरसुन्दरी ( बंगालियोंके लिये ); दशाश्वमेधके पास ।

काशीके घाट

काशीके घाटोंमें पाँच घाट मुख्य माने जाते हैं-१-वरणा सङ्गमघाट, २–पञ्चगङ्गाघाट, ३-मणिकर्णिकाघाट, ४- दशाश्व मेघघाट, ५–असीसंगमघाट इनके अतिरिक्त और भी बहुत से घाट है। घाटोंकी कुल संख्या ५०-६० के लगभग है। उनमेंसे मुख्य घाटोंका वर्णन नीचे दिया जा रहा है। 

१. वरणासंगमघाट — पश्चिमसे आकर बरणा नामकी छोटी नदी यहाँ गङ्गाजी में मिलती है। यहाँ भाद्रशुक्र १२ तथा महावारुणीपर्वको मेला लगता है। संगमसे पहले वरणानदीके बायें किनारे वादोष्ठेश्वर तथा ऋतीश्वर नामके शिवमन्दिर हैं । वरणासंगमके पास विष्णुपादोदक-तीर्थ तथा श्वेतद्वीप तीर्थ हैं। घाट की सीढ़ियों के ऊपर भगवान् आदि केशवका मन्दिर है। इस मन्दिरमै भगवान् केशब की चतुर्भुज श्याम रंग की खड़ी मूर्ति है। यहाँ दीवाल में केशवादित्य शिव है। पास ही हरिहरेश्वर- शिवमन्दिर है। इससे थोड़ी दूरपर वेदेश्वर, नक्षत्रेश्वर तथा श्वेतद्वीपेश्वर महादेव हैं। काशी स्टेशनसे वरणासंगमघाट डेढ़ मील है ।

२. राजघाट - यह घाट काशी स्टेशनके पास ही है। यहाँ गङ्गाजीपर मालवीय पुल नामक रेलवे पुल है। यहाँ पासमें योगी वीरका मन्दिर है। राजघाट तथा प्रह्लादघाट के बीच गङ्गा- तटके ऊपर स्वलीनेश्वर तथा वरद विनायक मन्दिर हैं ।

३. प्रह्लादघाट - राजघाटसे कुछ ही दूर यह घाट है । इसके पास प्रह्लादेश्वर शिवमन्दिर है । यहाँसे त्रिलोचन घाट के मध्य भृगुकेशव मन्दिर है । यहाँ प्रचण्ड-विनायक हैं ।

४. त्रिलोचनघाट - - यह 'त्रिविष्टपतीर्थ' हैं यहाँ अक्षयतृतीयाको मेला लगता है। त्रिलोचननाथ- शिवमन्दिर है। तथा मण्डलाकार अरुणादित्य मन्दिर भी है एक छोटे मन्दिरमें वाराणसीदेवी हैं तथा उद्दण्ड-मुण्ड विनायक हैं । त्रिलोचन मन्दिर के बाहर आदिमहादेव मन्दिर है, उसके पास मोदकप्रिय गणपति हैं । यहीं पार्वतीश्वर-लिङ्ग है और उसके पास संहारभैरव हैं।

५. महताघाट- इस घाट के ऊपर नर-नारायण मन्दिर है पौष पूर्णिमाको यहाँ स्नानका अधिक महत्त्व है

६. गायघाट - यह गोप्रेक्ष-तीर्थ है। घाटके पास हनुमान्जीका मन्दिर है, इसमें निर्मालिका गौरीमूर्ति है । 

७. लालघाट - इस घाटपर गोप्रेक्षेश्वर महादेव तथा गोपी-गोबिन्दकी मृतियाँ हैं । 

८. शीतलाघाट -- इसपर शीतलादेवीकी मूर्ति है ।

९. राजमन्दिरघाट -- यहाँ हनुमान मन्दिरमें लक्ष्मी-नृसिंह-मूर्ति है

१०. ब्रह्माघाट - इस घाटपर ब्रह्मेश्वर शिवमन्दिर है । घाटसे थोड़ी दूर ऊपर दत्तात्रेय भगवान्‌का मन्दिर है । ११. दुर्गाघाट-घाटपर नृसिंहजीकी मूर्ति है यहाँ मकान में ब्रह्मचारिणी दुर्गाजी की श्याममूर्ति है। उससे कुछ दूरपर श्रीराममन्दिर है ।

१२. पञ्चगङ्गाघाट- कहा जाता है कि यहाँ सरस्वती, किरणा और धूतपापा नदियाँ गुप्तरूपसे गङ्गाजी में मिलती हैं; इसीसे इस घाटका नाम पञ्चगङ्गा है। यहाँ विष्णु- काञ्ची तीर्थ तथा बिन्दुतीर्थ हैं। घाटके ऊपर बहुत से मन्दिर हैं । एक मन्दिर है बिन्दुमाधवजीका । अग्निबिन्दु नामक ब्राह्मणको भगवान् नारायणने वरदान दिया था-- - “मैं यहाँ रहूँगा ।" इससे उनका नाम यहाँ बिन्दुमाधव पड़ा। पास ही पञ्चगङ्गेश्वर महादेवका मन्दिर है। इस घाट के पास ही माधवरामका धरहरा | पुराना बिन्दुमाव मन्दिर तोड़कर औरंगजेबने मस्जिद बनवा दी थी, उस मस्जिद के पीछे द्वारिकाधीश तथा राधाकृष्ण- के मन्दिर हैं । पञ्चगङ्गाघाटपर कार्तिकस्नानका महत्त्व है।

१३. लक्ष्मण-बालाघाट - इस घाट के ऊपर लक्ष्मण- बालाजी अथवा वेङ्कटेशभगवान्का मन्दिर है पास गर्भस्तीश्वर महादेवका छोटा मन्दिर है तथा समीपके एक मकानमें मङ्गलगौरी- देवीस्वर-मूर्ति है । यहाँ मयूखादित्य तथा मित्रविनायकके मन्दिर भी हैं।

१४. रामघाट - यह रामतीर्थ कहा जाता है। यहाँ लोग रामनवमीको प्रायः स्नान करने आते हैं। घाटके ऊपर काल- विनायक तथा घाटसे कुछ दूर आनन्दभैरव मन्दिर है ।

१५. अग्नीश्वरघाट - यहाँ अग्नीश्वर शिवमन्दिर है ।

१६. भोंसलाघाट-घाटपर लक्ष्मीनारायण मन्दिर, नागेश्वर-शिवमन्दिर तथा नागेश-विनायक हैं। यह घाट नाग- पुरके भोंसला-राजवंशका बनवाया हुआ है।

१७. गङ्गा-महलघाट — इस घाटपर हनुमान्जीकी दो मूर्तियाँ तथा गङ्गाजीका मन्दिर है । १८. संकठाघाट - इसे यमतीर्थ कहा जाता है। यहाँ यमेश्वर तथा यमादित्य नामके दो शिवमन्दिर हैं। यमद्वितीया को

यहाँ मेला लगता है। घाटपर संकटादेवी का मन्दिर है। इस मन्दिरके बाहर कृष्णेश्वर और याज्ञवल्कनेश्वर महादेव हैं। एक हरिश्चन्द्रे-श्वर-मन्दिर है। उससे थोड़ी दूरपर वसिष्ठेश्वर, वामदेवेश्वर तथा अरुन्वतीदेवी एक मन्दिर में हैं। उस मन्दिरके द्वारपर चिन्तामणि नामक विनायकमूर्ति है। उससे थोड़ी दूर सेना-विनायक हैं। विन्ध्यवासिनी देवीका मन्दिर भी यहाँ संकठादेवी- मन्दिर के बाहर है ।

१९. सिंधियाघाट-घाटपर आत्मबीरेश्वर मन्दिर है । मन्दिरमें दुर्गाजी, मङ्गलेश्वर महादेव, मङ्गलविनायक तथा अन्य देवताओंकी भूतियाँ हैं। गलीकी दूसरी ओर बृहस्पतीश्वर, पार्वतीश्वर आदि मूर्तियाँ हैं; एक मन्दिरमें सिद्धेश्वरीदेवी तथा सिद्धेश्वर, कलियुगेश्वर और चन्द्रेश्वर नामक लिङ्ग हैं, चन्द्र- कूप है। ब्रह्मपुरी विद्येश्वर महादेव हैं। यह घाट ग्वालियर- के प्रसिद्ध सिंधिया नरेशोंका बनवाया हुआ है।

२०. मणिर्कणिकाघाट- इस घाटको वीरतीर्थ भी कहते हैं, इस घाटके ऊपर मणिकर्णिका-कुण्ड है, जिसमें चारों ओर सीढ़ियाँ हैं । २१ सीढ़ी नीचे जल हैं । इस कुण्डकी तहमें एक भैरवकुण्ड है। इस कुण्डका पानी प्रति आठवें दिन निकाल दिया जाता है और एक छिद्र से स्वच्छ जलधारा अपने-आप निकलती है, जिससे कुण्ड भर जाता है। पास ही तारकेश्वर शिव-मन्दिर तथा दूसरे मन्दिर हैं यहाँ वीरेश्वर मन्दिर है । वीरतीर्थ में स्नान करके लोग वीरेश्वरकी पूजा करते हैं । 

२१. चिताघाट-मणिकर्णिका के दक्षिण-पश्चिम यह काशीका श्मशान घाट है ।

२२. राजराजेश्वरीघाट-इसपर राजराजेश्वरी मन्दिर है ।

२३. ललिताघाट - इसपर ललितादेवीका मन्दिर है । घाटके समीप ललितातीर्थ है । यहाँ आश्विन- कृष्णा द्वितीयाको मेला होता है। ललितामन्दिर में काशी- देवीकी मूर्ति तथा गङ्गाकेशव, गङ्गादित्य, मोक्षेश्वर एवं करुणेश्वर शिवलिङ्ग हैं । इसी घाटपर चीन के मन्दिरोंकी शैलीका नेपाली शिव मन्दिर है । यहाँ नेपाली यात्रियों के लिये धर्मशाला है

२४. मीर घाट - यहाँ विशाल-तीर्थ है। घाटपर धर्मकूप नामक कुआँ है, जिसके पास विश्वबाहु देवीका मन्दिर है । इसमें दिवोदासेश्वर शिवलिङ्ग है कूपसे दक्षिण धर्मेश्वरमन्दिर है उसके पास ही विशालाक्षी नामक पार्वती-मन्दिर है। घाटके पांस आशाविनायक तथा हनुमानजीकी बड़ी मूर्ति है । पासके मकानमें वृद्धादित्यकी तथा एक गलीमे आनन्दभैरव- की मूर्ति है

२५. मानमन्दिरघाट - यहाँ दालभ्येश्वर, सोमेश्वर, सेतुबन्ध रामेश्वर और स्थूलदन्त विनायककी मूर्तियाँ हैं । लक्ष्मीनारायण मन्दिर और वाराही देवीका मन्दिर भी है । जयपुरके राजा मान सिंहका बनवाया हुआ प्रसिद्ध मानमन्दिर यहीं है, जिसकी छत के ऊपर उन्हींकी बनवायी हुई एक वेधशाला है, जिसमें नक्षत्रों और ग्रहोंके निरीक्षणके सात यन्त्र जीर्ण दशामें हैं ।

२६. दशाश्वमेध घाट - यह जान लेना चाहिये कि वरणा संगमघाट से यह घाट लगभग ३ मील और राजघाटसे १||मील है। कहा जाता है कि ब्रह्माजीने यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ किये थे । काशीका यह मुख्य एवं प्रशस्त घाट है। यहाँ बहुत स्नानार्थी आते हैं । यहाँ जलके भीतर रुद्र-सरोवर तीर्थ है। घाटपर दशाश्वमेधेश्वर शिवजी हैं तथा शीतलादेवीकी मूर्ति है। एक मन्दिरमें गङ्गा, सरस्वती, यमुना, ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं नृसिंहजीकी मनुष्य-बराबर मूर्तियाँ हैं। घाटके उत्तर विशाल शिवमन्दिर है । उसके उत्तर शूलटङ्केश्वर-शिवमन्दिर है, जिसमें अभयविनायक हैं। घाटपर प्रयागेश्वर, प्रयागमाधव तथा आदिवाराहेश्वरके मन्दिर हैं ज्येष्ठशुक्ला १०- गङ्गादशहराको इस घाटपर स्नानका अधिक माहात्म्य है ।

इस घाटसे थोड़ी दूरपर बालमुकुन्द मन्दिर है । उसके समीप ब्रह्मेश्वर तथा सिद्धतुण्ड गणेश हैं ।

२७. राणामहलघाट - दशाश्वमेधघाट के पश्चात अहल्याबाईघाट, एवं मुंशीघाटके पश्चात् यह घाट है । इसपर वक्रतुण्ड विनायककी मूर्ति है । 

२८. चौसट्ठीघाट-इस घाटपर चौसठ योगिनियोंकी मूर्ति है । पास ही मण्डपमें भद्रकाली-मूर्ति है । घाटसे थोड़ी दूरपर पुष्पदन्तेश्वर, गरुडेश्वर तथा पातालेश्वर महादेव हैं । पुष्पदन्तेश्वर मन्दिर में एकदन्तविनायक मूर्ति है । इसके पश्चात् पाडेघाट, सर्वेश्वरघाट, राजघाट हैं ।

२९. नारदघाट - इसपर नारदेश्वर शिवमन्दिर है ।

३०. मानसरोवरघाट-इसपर मानसरोवर-कुण्ड है । पासमें हंसेश्वर नामक शिवमन्दिर है थोड़ी दूरपर रुक्माङ्गदेश्वर शिव तथा चित्रग्रीवा देवीका मन्दिर है ।

३१. क्षेमेश्वरघाट - इसपर क्षेमेश्वर मन्दिर है 

३२. चौकीघाट-यहाँ एक चबूतरेपर बहुत-सी मूर्तियाँ हैं

३३. केदारघाट-इसके ऊपर गौरीकुण्ड है, जिसके पार केदारेश्वर-मन्दिर है इस मन्दिर में पार्वती, स्वामिकार्तिक, गणपति, दण्डपाणि भैरव, नन्दी आदि अनेक मूर्तियाँ हैं । यहाँ लक्ष्मीनारायण-मन्दिर तथा मीनाक्षीदेवीका मन्दिर भी है। केदारेश्वर मन्दिर के बाहर नीलकण्ठेश्वर मन्दिर है, जिसके सम्मुख संगमेश्वर शिव हैं कुछ दूर तिलभाण्डेश्वर मन्दिर है।

३४. ललीघाट- यहाँ चिन्तामणि- विनायक हैं

३५. श्मशानघाट - यहाँ पहले मुर्दे जलाये जाते थे । यहाँ श्मशानेश्वर शिव हैं। इसीका दूसरा नाम हरिश्चन्द्रघाट है । महाराज हरिश्चन्द्र यहीं चाण्डालके हाथ बिककर श्मशान कर वसूल करते थे ।

३६. हनुमानघाट- यहाँ हनुमानजी की मूर्ति है ।

समीपमें ही रुरु-भैरव हैं। आगे दण्डीघाट है।

३७. शिवालाघाट - यहाँ स्वप्नेश्वर शिवलिङ्ग तथा स्वप्नेश्वरी देवी हैं। इसके दक्षिण हयग्रीवकुण्ड तथा हयग्रीव- भगवान की मूर्ति है

३८. वृक्षराजघाट - यहाँ तीन जैन मन्दिर हैं।

३९. जानकीघाट - यहाँ चार मन्दिर हैं

४०. तुलसीघाट - घाटके ऊपर गङ्गासागरकुण्ड है । इसी घाटपर गोस्वामी तुलसीदासजी बहुत दिन रहे और यहीं संवत् १६८० उन्होंने देह छोड़ा । यहाँ उनके द्वारा स्थापित हनुमानजी की मूर्ति है इस मन्दिरमें तुलसीदासजी की चरण-पादुका तथा अन्य कई स्मारक सुरक्षित हैं। इस मन्दिरमें भगवान् कपिलकी मूर्ति भी है तुलसीघाटसे थोड़ी दूरपर लोलार्क कुण्ड है यह एक कुआँ है, जिसमें एक पासके हौजमें होकर नीचेतक जानेका मार्ग है कुण्डकी सीढ़ियों के ऊपर लोलादित्य तथा लोलार्केश्वर शिव मूर्तियाँ हैं पास ही अमरेश्वर एवं परेश्वरेश्वर शिव मन्दिर हैं। इसके समीप ही अर्कविनायक हैं

४१. असि-संगमघाट - यह घाट कच्चा है । यहाँ असि नामक नदी गङ्गाजी में मिलती है । इस घाटके ऊपर जैनमन्दिर है | यहाँ हरिद्वार तीर्थ माना जाता है । कार्तिककृष्णा ६ को यहाँ स्नानका विशेष महत्त्व है । यह घाट दशाश्वमेघघाटसे लगभग २ मील है ।

काशीके मन्दिर एवं कुण्ड

१. श्रीविश्वनाथजी - काशीका सर्वप्रधान मन्दिर यही है। मन्दिरपर स्वर्णकलश चढ़ा है, जिसे इतिहास-प्रसिद्ध पंजाब केसरी महाराज रणजीतसिंहने अर्पित किया था । इस मन्दिर के सम्मुख सभामण्डप है और मण्डपके पश्चिम दण्डपाणीश्वर मन्दिर है । सभामण्डपमें बड़ा घण्टा तथा अनेक देवमूर्तियाँ हैं । मन्दिरके प्राङ्गणके एक ओर सौभाग्यगौरी तथा गणेशजी और दूसरी ओर शृङ्गार- गौरी, अविमुक्तेश्वर तथा सत्यनारायण के मन्दिर हैं। दण्डपाणीश्वर- मन्दिरके पश्चिम शनैश्वरेश्वर महादेव हैं।

द्वादश ज्योतिर्लिङ्गमें यह विश्वेश्वर-लिङ्ग है इसकी कुछ विशेषताएँ हैं। यहाँ जलहरी शङ्कुके आकारकी नहीं, चौरस है। उसमेंसे जल निकलनेका मार्ग नहीं है । जल लोटेसे उलीचकर निकाला जाता है कार्तिकशुक्ला १४ तथा महाशिवरात्रिको विश्वेश्वरका अर्चन महान फलदायी है।

श्रीविश्वनाथजी काशी के सम्राट हैं। उनके मन्त्री हरेश्वर, कथावाचक ब्रह्मेश्वर, कोतवाल भैरव, धनाध्यक्ष तारकेश्वर, चोबदार दण्डपाणि, भंडारी वीरेश्वर, अधिकारी ढुण्डिराज तथा काशी के अन्य शिवलिङ्ग प्रजापालक हैं।

विश्वनाथ मन्दिरके वायव्यकोणमें लगभग डेढ़ सौ शिव- लिङ्ग हैं इनमें धर्मराजेश्वर मुख्य हैं। इस मण्डलीको शिवकी कचहरी कहते हैं । यहाँ मोद विनायक, प्रमोद विनायक, सुमुख- विनायक और गणनाथ - विनायककी मूर्तियाँ हैं ।

२. ज्ञानवापी -श्रीविश्वनाथ मन्दिरके पास ही ज्ञानवापी- कूप है । कहा जाता है कि औरंगजेबने जब विश्वनाथ मन्दिर तुड़वाया, तब श्रीविश्वनाथजी इस कूपमें चले गये। पीछे उन्हें वहाँसे निकालकर वर्तमान मन्दिर में स्थापित किया गया । इस कूपके जलसे यात्री आचमन करते हैं ।

यहींपर ७ फुट ऊँचा नन्दी है, प्राचीन विश्वनाथ- मन्दिरकी ओर मुख करके स्थित है। यहाँ प्राचीन मन्दिरके स्थानपर औरंगजेबने मसजिद बनवा दी; किंतु उसमें मन्दिरके चिह्न अभीतक देखे जाते हैं। मसजिद के बाहर एक छोटे चबूतरेपर बहुत छोटे मन्दिरमें गौरीशंकर-मूर्ति है ।

३. अक्षयवट -श्रीविश्वनाथ मन्दिर के द्वारसे निकलकर ढुण्डिराज गणेशकी ओर चलें तो प्रथम बायीं ओर शनैश्वरका मन्दिर मिलता है इनका मुख चाँदीका है, शरीर नहीं है । नीचे केवल कपड़ा पहिनाया होता है । पास एक ओर महावीरजी हैं। एक कोने में एक वटवृक्ष है, जिसे अक्षयवट कहते हैं । यहाँ द्रुपदादित्य तथा नकुलेश्वर महादेव हैं।

४. अन्नपूर्णा - विश्वनाथ मन्दिरसे थोड़ी दूरपर ही यह मन्दिर है । चाँदीके सिंहासनपर अन्नपूर्णाकी पीतलकी मूर्ति विराजमान है । मन्दिरके सभामण्डपके पूर्व कुबेर, सूर्य, गणेश, विष्णु तथा हनुमानजी की मूर्तियाँ तथा आचार्य श्रीभास्कररायद्वारा स्थापित यन्त्रेश्वर लिङ्ग है, जिसपर श्रीयन्त्र खुदा हुआ है। इस मन्दिरके साथ लगा एक खण्ड और है, जिसका आँगन विस्तृत है । उसमें महाकाली, शिव- १३२

परिवार, गङ्गावतरण, लक्ष्मीनारायण, श्रीरामदरबार, राधा- कृष्ण, उमामहेश्वर एवं अन्तमें नृसिंहजीकी संगमरमरकी सुन्दर मूर्तियाँ हैं। चैत्र शु० ९ तथा आश्विन शु० ८ को अन्नपूर्णा के दर्शन-पूजनकी विशेष महिमा है ।

५. दुण्डिराज गणेश - अन्नपूर्णा मन्दिर के पश्चिम गली- के पास ढुण्डिराज गणेश हैं। इनके प्रत्येक अङ्गपर चाँदी मढ़ी है। कहा जाता है कि महाराज दिवोदासने गण्डकीके पाषाणसे यह मूर्ति बनवायी थी। माघ शुक्ल ४ को इनके पूजनका अधिक महत्त्व है ।

६. दण्डपाणि-दुण्डिराजके समीप उत्तर ओर एक छोटे मन्दिर में दण्डपाणिकी मूर्ति है । उनके दोनों ओर उनके दो गण हैं-शुभ्रं और विभ्रं ।

७. आदिविश्वेश्वर - ज्ञानवापीके पास प्राचीन विश्वनाथ- मन्दिर तोड़कर औरंगजेबने मसजिद बनवा दी है। उसके पश्चिमोत्तर सड़क के पास आदि-विश्वेश्वरका मन्दिर है ।

८. लाङ्गलीश्वर - आदिविश्वेश्वर के समीप पाँच पाण्डवोंसे आगे एक मन्दिर में लाङ्गलीश्वर नामक विशाल शिवलिङ्ग है । आदिविश्वेश्वरके आगे सड़कपर सत्यनारायण- जीका भव्य मन्दिर है ।

९. काशी- करवत - औरंगजेबवाली उक्त मसजिद के पास एक गली में यह स्थान है । एक अँधेरे कुएँ में एक शिवलिङ्ग है | कुएँमें जानेका मार्ग बंद रहता है, किसी निश्चित समय ही वह खुलता है। कुएँ में ऊपरसे ही अक्षत- पुष्प चढ़ाया जाता है । पहिले लोग यहाँ 'करवत' लेते थे ।

इस स्थानसे थोड़ी दूरपर मदालसेश्वर शिवमन्दिर है । वहाँसे आगे कालिका-गली में चण्डी-चण्डीश्वरका मन्दिर है । उससे आगे एक मन्दिर में कालरात्रि दुर्गाजीका विग्रह है । आगे शुक्रकूप तथा शुक्रेश्वर महादेव हैं । यहाँसे थोड़ी दूरपर भवानीशंकर महादेव तथा भवानी गौरीका मन्दिर है । पास ही एक मकान में सृष्टिविनायककी मूर्ति है। इनसे थोड़ी दूरपर प्रतिकेश्वर शिव हैं । यहाँसे पश्चिम एक मकान में पञ्चमुख गणेश हैं।

दुण्डिराज गणेशके पश्चिम यज्ञविनायक मन्दिर है। उससे थोड़ी दूरपर समुद्रेश्वर तथा ईशानेश्वरके मन्दिर हैं । श्रीविश्वेश्वर मन्दिरसे कुछ दूरपर चित्रघण्ट विनायक हैं। वहाँसे उत्तर चित्रघण्टा देवी हैं। इस गली के बाहर पशुपतीश्वर- मन्दिर है यहाँसे कुछ दूरपर शीतला गली में एक अँधेरे कूपमें पितामहेश्वर मूर्ति है, जिसका दर्शन केवल शिवरात्रिको होता है । यहाँसे थोड़ी दूरपर ब्रह्मपुरी मुहल्ले में कलशेश्वर महादेव तथा कलशेश्वरी देवीका मन्दिर है यहाँसे थोड़ी दूरपर सत्यकालेश्वर महादेव हैं।

१०. गोपालमन्दिर - सत्यकालेश्वरसे पूर्व चौखंभा

मुहल्लेमें वल्लभसम्प्रदायका यह मुख्य मन्दिर है । इसमें श्रीगोपालजी तथा श्रीमुकुन्दरायजी के विग्रह हैं । पूजा सेवा वल्लभ-सम्प्रदाय के अनुसार होती है।

गोपालमन्दिरके सामने रणछोड़जीका मन्दिर, बड़े महाराजका मन्दिर, बलदेवजीका मन्दिर और दाऊजी का मन्दिर है ये मन्दिर भी वल्लभसम्प्रदायके हैं।

११. सिद्धिदा दुर्गा-गोपालमन्दिरसे थोड़ी दूरपर यह मन्दिर है दाऊजी के मन्दिर के पास बिन्दुमाधव- मन्दिर है और वहाँसे थोड़ी दूरपर कर्दमेश्वर कालमा व तथा पापक्षेमेश्वर शिवमन्दिर हैं ।

१२. कालभैरव - यह मन्दिर भैरवनाथ मुहल्ले में है । यह सिंहासनपर स्थित चतुर्भुज मूर्ति है, जो चाँदीसे मढ़ी है। मन्दिरके आगे बड़े महावीर तथा दाहिने मण्डपमें योगीश्वरी देवी हैं मन्दिरके पिछले द्वारके बाहर क्षेत्रपाल भैरवकी मूर्ति है श्रीभैरवजीका वाहन काला कुत्ता है । ये नगरके कोटपाल हैं कार्तिककृष्णा ८, मार्गशीर्ष कृष्णा ८: चतुर्दशी तथा रविवारको भैरवजी के दर्शन-पूजन का विशेष महत्त्व है।

कालभैरव के पास एक गली में व्यतीपातेश्वर (नवग्रहेश्वर) महादेव हैं वहाँसे थोड़ी दूरपर कालेश्वर महादेव हैं, इस मन्दिर में तीन हाथका कालदण्ड है । यहाँ कालीकी मूर्ति और कालकूप भी है। समीप ही जतनवर (चैतन्यवट ) नामक स्थान है। महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव काशी में यहीं ठहरे थे. प्रबोधानन्द सरस्वतीने यहीं उनका शिष्यत्व ग्रहण किया था ।

१३. दुर्गाजी - असि संगमघाट से थोड़ी दूरपर पुष्कर-तीर्थ सरवर है वहाँसे लगभग आव मीलार दुर्गाकुण्ड नामका विशाल सरोवर है। इसके किनारे दुर्गाजीका मन्दिर है इस मन्दिरमें कुष्माण्डा देवी की मूर्ति है, जिसे लोग दुर्गाजी कहते हैं मन्दिरके घेरे में शिव, गणपति आदि देवताओंके मन्दिर हैं। मुख्य द्वारके पास दुर्गा-विनायक तथा चण्डभैरवकी मूर्तियाँ हैं पास ही कुक्कुटेश्वर महादेव हैं। राजा सुबाहुपर प्रसन्न होकर भगवती यहाँ दुर्गारूपसे स्थित हुई हैं।

१४. संकटमोचन - दुर्गाजीसे आगे यह मन्दिर एक बड़े बगीचे में है यहाँकी हनुमानजी की मूर्ति गोस्वामी तुलसीदासजीद्वारा स्थापित है। सामने राम मन्दिर है ।

काशीपु

स्थान दूरपर १५. कुरुक्षेत्र-तीर्थ-दुर्गाकुण्डसे थोड़ी दूरपर नगरकी और कुरुक्षेत्र सरोवर है वहाँसे कुछ दूरपर सिद्धकुण्ड है । आगे कुछ दूरपर कृमिकुण्ड है यहाँ बाबा किनारामका है इसके पास कूटदन्त-विनायक हैं । यहाँसे थोड़ी रेवतीतीर्थ सरोवर है, जिसे अब 'रेवड़ी तालाब कहते हैं यहाँसे कुछ दूरपर शङ्खोद्धारतीर्थ, द्वारकातीर्थ, दुर्वासातीर्थ तथा कृष्ण-रुक्मिणीतीर्थ हैं यहाँसे कुछ उत्तर कामाक्षा कुण्ड है, जिसके पास वैद्यनाथ, क्रोधभैरव तथा कामाक्षा- योगिनीकी मूर्तियाँ हैं यहाँसे कुछ दूरपर रामकुण्ड है, जिसके पास लवेश्वर तथा कुशेश्वर शिव हैं। आगे शिवगिरि सरोवर के पास त्रिमुख-विनायक और त्रिपुरान्तकके मन्दिर हैं यहाँसे कुछ दूर लालपुर मुहल्ले में मातृकुण्ड है, जिसके पास पित्रीश्वर शिव तथा क्षिप्रप्रसाद विनायक हैं। इनके पीछे मातृदेवी मन्दिर है । आगे पितृकुण्ड सरोवर है ।

१६. पिशाचमोचन - मातृकुण्डसे थोड़ी दूरपर यह कुण्ड है । यहाँ पिण्डदानसे मृतात्मा प्रेतयोनिसे छूट जाती है। यह बड़ा सरोवर है। घाटपर महावीर, कपर्दीश्वर, पञ्च- विनायक, पिशाच मस्तक, विष्णु, वाल्मीकि तथा अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं । यहाँ वाल्मीकेश्वर शिव तथा हेरम्ब- विनायक हैं।

१७. लक्ष्मीकुण्ड - पिशाचमोचनसे कुछ दूरपर लक्ष्मीकुण्ड मुहल्ले में लक्ष्मीकुण्ड सरोवर है । इसके पास महालक्ष्मीका मन्दिर है | इस मन्दिर में मयूरी योगिनी की मूर्ति भी है। पास ही शिवमन्दिर तथा कालीमठ हैं। कुण्डके पास कुण्डिकाक्ष-विनायक हैं। थोड़ी दूरपर सूर्यकुण्डपर साम्बादित्य तथा द्विमुख-विनायक हैं ।

१८. मन्दाकिनी - इस मुहल्लेको अब मैदागिन कहते हैं। यहाँ कम्पनी बागमें मन्दाकिनी सरोवर है, जिसके पास मन्दाकिनी-मन्दिर है | कम्पनी-बागसे थोड़ी दूर पर मध्यमेश्वर- मन्दिर है । आगे गणेशगंज में ऋणहरेश्वर शिव मन्दिर है। समीपके वृद्धकाल मुहल्ले में रत्नेश्वर महादेव हैं, उनके पास ही मतीश्वर शिव तथा अवन्तिका देवीका मन्दिर है । समीप रत्न चूड़ामणि कूप है। आलमगीरी मसजिद के पास हरतीर्थ नामक सरोवर है, इसके पास हंसेश्वर तथा रुद्रेश्वरके मन्दिर हैं । कम्पनी-बागके पास बड़े गणेशकी भव्य मूर्ति है।

१९. कृत्तिवासेश्वर - वृद्धकाल गलीके दाहिनी ओर हरतीर्थ मुहल्लेमें कृत्तिवासेश्वर-मन्दिर था, जिसे तोड़ाकर औरंगजेबने मसजिद बनवा दीं। इस आलमगीरी मसजिद के चौगान में एक हौज में २३ फुट ऊँचा फुहारास्तम्भ है, यही पुराना कृत्तिवासेश्वर लिङ्ग है। अब आलमगीरी मसजिद के पास कृत्तिवासेश्वरका नवीन मन्दिर है। यहाँ पास ही वृद्धकालेश्वर मन्दिर भी है । उसमें वृद्धकालेश्वर तथा महाकालेश्वर लिङ्ग हैं । इस मन्दिरके चौकमै वृद्धकाल नामक कूप है, जिसके पास अमृतकुण्ड नामक सरोवर है। अमृतकुण्डमें स्नानसे कुष्ठतकके मिटने की बात कही जाती है। कूपके उत्तर दक्षेश्वर महादेव हैं तथा हनुमान्जीका भी मन्दिर है । अमृतकुण्डके पास असिताङ्ग भैरवका मन्दिर तथा मालतीश्वर मन्दिर हैं ।

वृद्धकाल-मन्दिरसे कुछ दूरपर मृत्युञ्जय-मन्दिर है । वहाँसे थोड़ी दूरपर मणिप्रदीपेश्वर शिव हैं। उनके पास ही धनसेरा स्थान में धनेश्वर महादेव तथा नृसिंहजी हैं । यहाँसे कुछ दूर सुमन्तेश्वर शिव तथा हनुमान् जीका मन्दिर है। उसके उत्तर ऋणमोचन और पापमोचन नामके दो सरोवर हैं, जिनके पास विश्वकर्मेश्वर-शिवमन्दिर है ।

२०. गोरखनाथ मन्दिर - मैदागिन मुहल्ले में ही यह मन्दिर है । इसमें गोरखनाथजी के चरणचिह्न हैं। साथ ही वृषेश्वर महादेव हैं यहाँ गोरखसम्प्रदाय के साधु रहते हैं।

इस स्थान से थोड़ी दूरपर नृसिंह चबूतरा है। उसके पास रामानुज सम्प्रदाय के मन्दिर हैं । इसके दक्षिण कल्याणी देवीका मन्दिर है वहाँसे थोड़ी दूरपर हनुमानजी तथा जम्बुकेश्वर-शिवमन्दिर हैं । थोड़ी दूरपर वक्रतुण्ड- विनायकका विशाल मन्दिर है । इसमें हस्तदन्त-विनायक- मूर्ति है। इस मन्दिरमें सिद्धकण्ठेश्वर शिवलिङ्ग है । यहाँसे कुछ दूर श्रीजगन्नाथ मन्दिर तथा आषाढ़ीश्वर शिवमन्दिर हैं।

२१. भूतभैरव - काशीपुरा मुहल्ले में भूतभैरवका मन्दिर है । इन्हें भीषणभैरव भी कहते हैं। पास ही कन्हुकेश्वर शिव- मन्दिर है और कुछ दूर निवासेश्वर, व्याघ्रेश्वर एवं जैगीषव्येश्वरके मन्दिर हैं । जैगीषव्य-मन्दिरमें जैगीषव्य नामक गुफा है, जिसमें बहुत-से शिवलिङ्ग हैं। इस मुहल्लेमें ही ज्येष्ठेश्वरका मन्दिर है, जिसके पास ज्येष्ठागौरी, ज्येष्ठविनायकके मन्दिर तथा ज्येष्ठा वापी है।

२२. काशीदेवी - ज्येष्ठेश्वरसे थोड़ी दूरपर काशीदेवीका मन्दिर है, जिसके पास सप्तसागर कूप है। इसके पश्चिम कर्णघण्टा सरोवर है यहाँ एक ओर कर्णघण्टेश्वर-मन्दिर तथा व्यासेश्वर सरोवर और व्यासकूप भी हैं । यहाँसे आगे हरिशंकर मुहल्ले में हरिशंकरेश्वर गुप्तालङ्ग है। मछरहट्टा मुहल्ले- में चित्रगुप्तेश्वर मन्दिर है । उसके पास एक गली में भारभूतेश्वर, राजविनायक तथा विकेश्वर महादेवके मन्दिर हैं। इनके पश्चिम अस्थिक्षेप सरोवर है। इसके समीप एक मन्दिरमें हाटकेश्वर तथा उनकेश्वर महादेव हैं।

२३. कबीरचौरा - इस मुहल्लेमें कबीरजी की गद्दी है । गद्दी के पास कबीरजीकी टोपी तथा रामानन्द स्वामी एवं कबीरजी चित्र हैं।

२४. धूपचण्डी- धूपचण्डी मुहल्ले में इसी नामके सरोवर- के तटपर धूपचण्डी देवीका मन्दिर है तथा विकटद्विज- विनायक हैं। थोड़ी दूरपर चित्रकूट सरोवर है आगे विधिराज - विनायकका मन्दिर है ।

क्वीन्स कॉलेज से लौटते समय माधवबागके पास नाटी इमली में विजया-दशमी के दिन मेला होता है। आगे ईश्वरगंगी मुहल्ले में चिन्तामणि- विनायक हैं और तीन हाथ ऊँचा पहलदार आनीघ्रेश्वर ( योगेश्वर ) लिङ्ग है मन्दिर के पार आग्नीध्रकुण्ड है । इसीको ईश्वरगंगी कहते हैं। आगे एक अँधेरी गुफा है एक कोठरीमें, जिसे गुहागङ्गा कहते हैं । पासमें उर्वशीश्वर महादेव हैं।

जैतपुरा मुहल्ले में जवाहरेश्वर महादेव हैं। समीप ही सिद्धेश्वर हैं । यहीं एक मन्दिरमें सिंहपर बैठी वागीश्वरी ( स्कन्दमाता ) मूर्ति है । इस मन्दिरमें अन्य अनेक देवताओं की मूर्तियाँ हैं यहाँसे थोड़ी दूर नागकुआँ मुहल्ले में कर्कोटकतीर्थ है। इसे नागकूप कहते हैं। यहाँ नागपञ्चमीको मेला लगता है इसके पास एक बकरियाकुण्ड नामक सरोवर है, जहाँ उत्तरार्कादित्य-मन्दिर है वरणातटके मढ़ियाघाटपर शैलपुत्री देवीका मन्दिर है, वहाँ शैलेश्वर महादेव हैं।

२५. कपालमोचन - बकरिया-कुण्डसे एक मीलपर कपालमोचन कुण्ड है यह बड़ा सरोवर है। यहाँ एक घेरे में एक सात फुट ऊँचा ताँबेसे मढ़ा स्तम्भ है, जिसे लाट- भैरव या कपालभैरव कहते हैं। यह स्थान जलालीपुर गाँव में है यहाँ एक पत्थरकी कुत्तेकी मूर्ति और एक कुआँ है। यहाँ वरणाके आँवलीघाटपर चण्डीश्वर शिव तथा मुण्ड- विनायक हैं।

२६. बटुकभैरव-स्कूलके पास यह भैरवजीका मन्दिर है । पासमें ही कामाक्षा देवी हैं। 

२७. तिलभाण्डेश्वर-बंगाली टोला स्कूल के पास यह मन्दिर है। इसकी लिङ्गमूर्ति साढ़े चार फुट ऊँची है। इसके आगे केदारेश्वर मन्दिर है। यहाँ शिवरात्रिको तथा श्रावणके सोमवारों को भीड़ रहती है।

काशी में मन्दिर तो गली गली में घर-घर में हैं। यहाँ तो कुछ थोड़े-से मन्दिरोंका ही नाम दिया गया है; क्योंकि सबका वर्णन देना शक्य नहीं था।

काशीका तीर्थदर्शन - अन्तर्वेदी और पञ्चकोशी

परिक्रमाएँ

नित्ययात्रा - श्रीगङ्गाजी में या मणिकर्णिकाकुण्ड में स्नान करके भगवान् विष्णु, दण्डपाणि महेश्वर दुदिराज, ज्ञानवापी, नन्दिकेश्वर, तारकेश्वर तथा महाकालेश्वरका दर्शन करके फिर दण्डपाणिका दर्शन करे और तब श्रीविश्वनाथजी एवं अन्नपूर्णाजीका दर्शन करे ।

अन्तर्वेदी परिक्रमा - प्रातःकाल स्नान करके पञ्च- विनायक तथा विश्वनाथजीका दर्शन करके निर्वाणमण्डप में जाकर नियम-ग्रहण करके मणिकर्णिकामें स्नान करे और मौन होकर मणिकर्णकेश्वरका पूजन करे वहाँसे कम्बलाश्वतर वासुकीश्वर, पर्वतेश्वर, गङ्गाकेशव, ललितादेवी, जरासंधेश्वर, सोमनाथ, वाराहेश्वर, ब्रह्मेश्वर अगस्तीश्वर, कश्यपेश्वर, हरिकेशव, वैद्यनाथ, ध्रुवेश्वर, गोकर्णेश्वर, हाटकेश्वर, अस्थि- क्षेप सरोवर, कीकेश्वर, भारभूतेश्वर, चित्रगुप्तेश्वर, चित्रघण्टा, दुर्गाजी, पशुपतीश्वर, पितामहेश्वर, कलशेश्वर, चन्द्रेश्व वीरेश्वर, विद्येश्वर, आग्नीध्रेश्वर, नागेश्वर, हरिश्चन्द्रेश्व चिन्तामणि- विनायक, सेनाविनायक, वसिष्ठेश्वर, वामदेवेश्वर, त्रिसङ्गेश्वर, विशालाक्षी, धर्मेश्वर, विश्वबाहुक, आशाविनायकः वृद्धादित्य, चतुर्वक्त्रेश्वर, ब्राह्मीश्वर, मनःप्रकामेश्वर, ईशानेश्वर, चण्डी-चण्डीश्वर, भवानीशंकर, ढुण्डिराज, राजराजेश्वर लाङ्गलीश्वर, नकुलीश्वर, परान्नेश्वर, परद्रव्येश्वर, प्रतिग्रहेश्वर निष्कलङ्केश्वर, मार्कण्डेयेश्वर, अप्सरेश्वर, गङ्गेश्वर, ज्ञानवापी, नन्दिकेश्वर, तारकेश्वर, महाकालेश्वर, दण्डपाणि महेश्वरः मोक्षेश्वर, तीरभद्रेश्वर, अविमुक्तेश्वर तथा पञ्चविनायकका दर्शन करके विश्वनाथजीका दर्शन करे और तब मौन समाप्त करें ।

सामान्यदर्शन-जिनसे अन्तर्वेदी परिक्रमा नित्य नहीं हो सकती और नित्य यात्रा भी नहीं हो सकती, उन्हें प्रतिदिन मणिकर्णिकापर गङ्गास्नान करके ढुण्डिराज गणेश' काशी विद्यापीठ नामक राष्ट्रिय शिक्षा-संस्था है । काशी- नागरी प्रचारिणी सभा, भारत-धर्म महामण्डल, क्वीन्स कालेज तथा सरस्वती-भवन पुस्तकालय देखनेयोग्य हैं ।


काशी के आस-पास के तीर्थ

काशी के समीप के तीर्थों में रामनगर, सारनाथ, चन्द्रावती, मार्कण्डेय, जमनिया, कौलेश्वरनाथ और विन्ध्याचल हैं।

रामनगर
यह नगर गङ्गाके दाहिने तटपर असि संगमघाट से एक मील और मालवीय-पुलसे चार मील दूर है । नगवासे नौकाद्वारा गङ्गा पार करके रामनगर लोग जाते हैं। मोटरद्वारा या ताँगेद्वारा जाना हो तो मालवीय- पुलको पार करके पक्की सड़क रामनगरतक जाती है। यहाँ यात्रियों के ठहरने के लिये अच्छी धर्मशाला है । यहाँ राज- महलसे एक मील दूर एक बड़ा तालाब और विशाल मन्दिर है । आश्विन मासभर यहाँ रामलीला होती है। राजमहलके एक भागमें वेदव्यासेश्वर तथा शुकदेवेश्वर लिङ्गमूर्तियाँ हैं

सारनाथ
बनारस छावनी स्टेशनने पाँच मील, बनारस- सिटी स्टेशनसे तीन मील और सड़क के मार्ग से सारनाथ चार मील पड़ता है। यह पूर्वोत्तर रेलवेका स्टेशन है और बनारससे यहाँ जानेके लिये सवारियाँ ताँगा-रिक्शा आदि मिलते हैं सारनाथ में बौद्ध-धर्मशाला है । यह बौद्ध-तीर्थ है भगवान् बुद्धने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था यहींसे उन्होंने धर्मचक्र प्रवर्तन प्रारम्भ किया था।

सारनाथकी दर्शनीय वस्तुएँ हैं
अशोकका चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान् बुद्धका मन्दिर ( यही यहाँका प्रधान मन्दिर है ), धमेख स्तूप, चौखण्डीस्तूप, सारनाथका वस्तु- संग्रहालय, जैनमन्दिर, मूलगन्धकुटी और नवीन विहार ।

सारनाथ बौद्ध धर्मका प्रधान केन्द्र था; किंतु मुहम्मद गोरीने आक्रमण करके इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। वह यहाँकी स्वर्ण- मूर्तियाँ उठा ले गया और कलापूर्ण मूर्तियोंको उसने तोड़ डाला। फलतः सारनाथ उजाड़ हो गया। केवल धमेखस्तूप टूटी- फूटी दशामें बच रहा । यह स्थान चरागाहमात्र रह गया था। सन् १९०५ ई० में पुरातत्त्व विभागने यहाँ खुदाईका काम प्रारम्भ किया। विद्वानों तथा बौद्ध-धर्म के अनुयायियों का इधर ध्यान गया। तबसे सारनाथ महत्त्व प्राप्त करने लगा।

इसका जीर्णोद्धार हुआ, यहाँ वस्तु संग्रहालय स्थापित हुआ, नवीन विहार निर्मित हुआ, भगवान् बुद्धका मन्दिर और बौद्ध-धर्मशाला बनी । सारनाथ अब बराबर विस्तृत होता जा रहा है ।

जैन-ग्रन्थोंमें इसे सिंहपुर कहा गया है। जैनधर्मावलम्बी इसे ‘अतिशय क्षेत्र' मानते हैं श्रेयांसनाथके यहाँ गर्भ, जन्म और तप -- ये तीन कल्याणक हुए हैं। श्रेयांसनाथजीकी प्रतिमा है यहाँके जैन-मन्दिरमें । इस मन्दिर के सामने ही अशोक स्तम्भ है ।

चन्द्रावती - इसका प्राचीन नाम चन्द्रपुरी है । यह जैन-तीर्थ है । यहाँ चन्द्रप्रभु ( जैनाचार्य ) का जन्म हुआ था यह अतिशय क्षेत्र माना जाता है । यहाँ गङ्गा-किनारे जैन-मन्दिर और जैन धर्मशाला है । यह स्थान बनारससे १३ मील पड़ता है । यहाँके लिये पैदल आना हो तो पूर्वोत्तर रेलवेके कादीपुर स्टेशनपर उतरकर लगभग ४ मील चलना होगा ।

पश्चिमवाहिनी गङ्गा-श्रीगङ्गाजी की धारा पश्चिमवाहिनी

अत्यन्त पुण्यरूप मानी जाती है । हरिद्वार, प्रयाग तथा गङ्गासागर के समान ही पश्चिमवाहिनी धाराका भी माहात्म्य है। प्रयागमें गङ्गाजी पश्चिमवाहिनी होकर यमुनाको अङ्कमाल देती हैं; किंतु वहाँ पश्चिमवाहिनी धारा नाममात्रको है । गङ्गाजी काशीसे १५ मील आगे बलुआ नामक बाजारसे पश्चिम- वाहिनी होती हैं और ४ मीलतक पश्चिमवाहिनी रहकर चन्द्रावतीमें उत्तर की ओर मुड़ जाती हैं। मकरसंक्रान्तिपर बलुआघाटपर पश्चिमवाहिनी -स्नानका मेला लगता है।

Comments

Popular posts from this blog

02. विद्येश्वरसंहिता || 19. पार्थिवलिङ्गके निर्माणकी रीति तथा वेद-मन्त्रोंद्वारा उसके पूजनकी विस्तृत एवं संक्षिप्त विधिका वर्णन

शमी पत्र व मंदार की मार्मिक कथा

02. विद्येश्वरसंहिता || 20. पार्थिवलिङ्गके निर्माणकी रीति तथा सरल पूजन विधिका वर्णन