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दुर्गा मंदिर, वाराणसी

दुर्गा मंदिर, वाराणसी

दुर्गा मंदिर दुर्गा कुंड से सटे संकट मोचन रोड पर, तुलसी मानस मंदिर से 250 मीटर उत्तर में, संकट मोचन मंदिर से 700 मीटर उत्तर-पूर्व में और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 1.3 किलोमीटर उत्तर में स्थित है । यह मंदिर वाराणसी कैंट स्टेशन से 5 किमी की दूरी पर है। इस जानकारी से आप जहां भी हैं इस मंदिर के आसानी से दर्शन पा सकते हैं।

बनारस में दुर्गा मंदिर स्थापित है दुर्गाकुंड के पास होने के कारण इस मंदिर को दुर्गा कुंड मंदिर के रूप में भी जाना जाता है। तथा संपूर्ण क्षेत्र ही दुर्गाकुंड के नाम से प्रसिद्ध है।

यह मंदिर पवित्र शहर वाराणसी के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है । कहते हैं कि प्राचीन काल में  काशी में केवल तीन मंदिर ही थे, जिसमें पहला काशी विश्वनाथ, दूसरा मां अन्नपूर्णा, और तीसरा दुर्गा मंदिर है। 
 
जैसा कि नाम से ही विदित है कि यह मंदिर मां दुर्गा को समर्पित है। दुर्गाकुंड मंदिर काशी के पुरातन मंदिरों मे से एक है। इस मंदिर का उल्लेख 'काशी खंड' में भी मिलता है। 

हमें यह भी बताया गया कि जहां पर माता स्वयं प्रकट होती हैं उन्हें स्थानों पर माता की मूर्ति लगाने का विधान नहीं है। उन मंदिरों में माता की प्रतीक चिन्हों की पूजा होती है इसी कारण दुर्गा माता मंदिर भी इसी श्रेणी में आता है इस कारण इस मंदिर में माता दुर्गा की यंत्र रूप में पूजा की जाती है। इस मंदिर में माता दुर्गा के मुखोटे और और चरण पादुका की पूजा की जाति है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जिन स्थानों पर या जिन मंदिरों में माता स्वयं प्रकट होती हैं वहां माता की प्रतीक रूप में स्थापित कर उनकी पूजा की जाती है। उनमें माता की मूर्ति लगाने का विधान नहीं है। लेकिन यहां पर जो प्रतीक है वह भी भूमि से उत्पन्न माना जाता है।

इस मंदिर के सच्चे मन से दर्शन करने पर मां का आशीर्वाद प्राप्त होता है और उसे सकारात्मक उर्जा का अनुभव होता है।इस मंदिर में देवी का तेज इतना भीषण है कि मां के सामने खड़े होकर दर्शन करने मात्र से ही कई जन्मों के पाप जलकर भस्म हो जाते हैं। 

इस मंदिर में मां दुर्गा के विशेष स्वरूप के साथ-साथ बाबा भैरोनाथ, महालक्ष्मीजी, महासरस्वतीजी, और माता महाकाली के दर्शन होते हैं, अर्थात इनकी भी मुखौटा रूप मूर्तियां अलग से मंदिरों में स्थापित की गई हैं। 

मंदिर के बाहर को कुक्कुटेश्वर महादेव के दर्शन करना अनिवार्य माना जाता है ऐसी मान्यता है कि माता के दर्शन करने के बाद यदि आपने कुक्कुटेश्वर महादेव के दर्शन नहीं किए तो आपको इन दर्शनों का पूरा फल प्राप्त नहीं होगा अर्थात इनकी पूजा पूरी नहीं मानी जाती। इनकी संपूर्ण जानकारी इसी वीडियो में हम आपको देंगे।

इस मंदिर के अंदर एक विशाल हवन कुंड है, जहां रोज हवन होते हैं। कुछ लोग यहां तंत्र पूजा भी करते हैं। 

भगवान भोलेनाथ के त्रिशूल पर टिकी काशी नगरी के इस मंदिर में मां के दिव्य स्वरूप के दर्शन होते हैं। वैसे तो इस मंदिर में मैं भक्त पूरे वर्ष आते रहते हैं लेकिन श्रद्धेय नवरात्रों में चतुर्थ नवरात्रि को अर्थात माता कूष्मांडा के पूजन वाले दिन इस मंदिर में माता कुष्मांडा के रूप में दुर्गा का पूजन किया जाता है इसलिए लोग इसे कुष्मांडा मंदिर के नाम से भी पुकारते हैं।

इसके साथ एक कथा यह भी जुड़ी हुई है कि मां माता ने जब शुंभ और निशुंभ का वध किया तो भगवान भोलेनाथ ने उन्हें यहां पर विश्वास करने की सलाह दी और तभी से माता जी यहीं निवास करती है। 

निर्माण 
लाल पत्थरों से बने इस भव्य मंदिर के एक तरफ दुर्गा कुंड है। इस मंदिर की स्थापना बीसा यंत्र के अनुरूप की गई है। बीसा यंत्र यानी बीस कोण की यांत्रिक संरचना अर्थात दुर्गा मंदिर का स्थापत्य बीसा यंत्र पर आधारित है। जिसके ऊपर मंदिर की आधारशिला रखी गयी है। इसी कारण इस मंदिर की संरचना 20 कोने वाले मंदिर के रूप में हुई है। 

वास्तुकला की मंदिर उत्तर भारतीय नागर शैली में बनाया गया है। मंदिर में बहु-स्तरीय मीनारें हैं और लाल रंग के प्रतिनिधि गैरूए रंग से रंगा हुआ है, जो दुर्गा के लाल रंग का प्रतिनिधित्व करता है। 

मंदिर के अंदर, कई विस्तृत नक्काशीदार और उत्कीर्ण पत्थर हैं। मंदिर एक साथ जुड़े कई छोटे शिखरों से बना है। 

आधुनिक ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार काशी नगरी पर कभी बंगाल का शासकों का कभी, मराठवाड़ा का तो कभी उत्तर भारतीयों का आधिपत्य रहा है। इस पर कुछ समय के लिए इस्लाम धर्म के अनुयायियों का भी अधिकार रहा उस समय यहां के मंदिरों का बहुत अधिक मात्रा में ध्वस्त किया गया और इस्लामीकरण करने का प्रयास किया गया, लेकिन यह अपने धार्मिक पवित्रता को कभी नहीं खो पाई। लेकिन समय-समय के राजाओं ने काशी में विभिन्न मंदिरों का निर्माण कराया है। जो वर्तमान में भी मौजूद है।

ब मंदिर के निर्माण की बात चली तो पता चला कि इस मंदिर का कई बार जिम्मेदार हुआ है। साथ ही हमें बताया गया कि दुर्गा मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी में बंगाल के नटौर की  महारानी - रानी भबानी ने करवाया था । 18वीं शताब्दी में इस पर ₹50000 के आसपास खर्च हुए थे। 

मंदिर के गर्भ गृह के तीन द्वार हैं जिनमें से एक ही मुख्य द्वार खोला जाता है। दाएं बाएं के बाकी दोनों द्वार बंद रहते हैं। यहां के भक्तों का विश्वास है कि मंगलवार को माता के दर्शन करने से माता  प्रसन्न होते हैं।

आसपास के मंदिर 

वाराणसी में स्थित दुर्गा कुंड के आसपास कई मंदिर है, जहां आप दर्शन के लिए जा सकती हैं। जिसमें संकट मोचन, तुलसी मानस मंदिर आदि शामिल हैं। दुर्गा कुंड पहुंचने के बाद इन मंदिरों के दर्शन आसानी से किये जा सकते हैं।



कुक्कुटेश्वर महादेव के दर्शन के बिना अधूरी मानी जाती है मां की पूजा

कुक्कुटेश्वर महादेव

अब हम आपको बताना चाहेंगे कुक्कुटेश्वर महादेव और माता के बहुत बड़े भक्त थे । वे इसी स्थान पर रहकर उनकी पूजा करते थे। एक दिन जब माता ने उन्हें दर्शन दिया तो उन्होंने माता से कहा कि मां मुझे आपके नाम के साथ ही जाना जाए ऐसी व्यवस्था कीजिए। तब माता ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि जो भी भक्त यहां मेरे दर्शनों के लिए आएगा वह तुम्हारे दर्शन भी करेगा। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसे मेरे दर्शनों का पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होगा।


कुक्कुटेश्वर महादेव मंदिर से जुड़ी कथा इस मंदिर की विशिष्टता को प्रतिपादित करती है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में भी यह मंदिर बहुत प्रसिद्ध था और लोगों की मनोकामना पूर्ण करता था। इस मंदिर में कुक्कुट नाम के पुजारी माता की सेवा किया करते थे। एक बार कुछ लुटेरों ने इस मंदिर में देवी दुर्गा के दर्शन कर संकल्प लिया कि जिस कार्य के लिए वह जा रहे हैं, यदि उसमें सफलता हुए तो वे मां आद्य शक्ति को नरबलि चढ़ाएंगे। मां की कृपा से उन्हें अपने कार्य में सफलता मिली और वे मंदिर आकर बलि देने के लिए ऐसे व्यक्ति को खोजने लगे पर उन्हें बलि के लिए उपयुक्त कोई व्यक्ति नहीं मिला।

तब उन्हें मंदिर के पुजारी ही बलि के लिए उपयुक्त नजर आए। और वे पुजारी की बलि देने के लिए तैयार हो गए। तब पुजारी ने लुटेरों से प्रार्थना की कि -  "रुको!  मैं माता रानी की नित्य पूजा कर लूं, फिर आप मेरी बलि चढ़ा देना। "

पुजारी की बात लुटेरों को जच गई और पूजा के बाद ज्यों ही लुटेरों ने पुजारी की बलि चढ़ाई उसी क्षण माता ने प्रकट होकर पुजारी को पुनर्जीवित कर दिया व वर मांगने को कहा। पुजारी ने खुद को जीवित पाया तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा माता के वरदान देने की बात सुनकर पुजारी ने माता से कहा कि मां मुझे जीवन नहीं चाहिए, मुझे तो अपने चरणों में चिरविश्राम दे दीजिए। 

पुजारी की बातें सुनकर माता प्रसन्न हुई और उन्होंने वरदान दिया कि जो भी मेरे भक्तों मेरे दर्शनों के बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा, उसकी पूजा फलित नहीं होगी। और तुम्हें कुक्कुटेश्वर के नाम से जाना जाएगा। इतना कहकर माता अंतर्ध्यान हो गईं । इसके बाद पुजारी ने अपने आप को पूर्ण रूप से माता को समर्पित कर दिया। उसके कुछ समय बाद पुजारी ने उसी मंदिर प्रांगण में समाधि ले ली, जिसे आज कुक्कुटेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।

मान्यता

सावन महिने में एक माह का बहुत मनमोहक मेला लगता है और शरदीय नवरात्रों में यहां मेला लगता है तथा चौथे दिन मां कुष्मांडा के रूप में इनका पूजन किया जाता है। 

यहां मांगलिक कार्य एवं मुंडन इत्यादि किए जाते हैं। मंदिर के अंदर हवन कुंड है, जहां हवन होते हैं। कुछ लोग यहां तंत्र पूजा भी करते हैं। 

इतिहास

स्रोतों के अनुसार इस मंदिर की स्थापना राजा सुदर्शन के द्वारा की गई थी। जिसका वर्णन देवी -भागवत पुराण के 23वें अध्याय में मिलता है। इस वर्णन के अनुसार, काशी नरेश राजा सुबाहु भोले बाबा और माता के अनन्य भक्त थे। उनके एक बेटी थी जिसका नाम शशिकला था। पिता की तरह बेटी भी मां भगवती की अनन्य भक्त थी।

इसी समय पर भोले बाबा और माता के अनन्य भक्त अयोध्या नरेश ध्रुवसंधि अयोध्या में राज्य करते थे। उनकी दो रानियां थी। उनमें से बड़ी  रानी कलिंगराज वीरसेन की पुत्री मनोरमा और छोटी रानी उज्जयिनी नरेश युधाजित की पुत्री लीलावती थी। इनकी बड़ी रानी मनोरमा के सुदर्शन और छोटी रानी लीलावती के शत्रुजित नामक पुत्र हुए। दोनों राजपुत्रों पर महाराज की एक समान दृष्टि थी। दोनों राजपुत्रों का समान रूप से लालन पालन होता था।

महाराज ध्रुवसंधि को आखेट का व्यसन था। एक दिन वे शिकार के लिए गए वहां एक सिंह ने उन पर आक्रमण कर दिया जिससे उनकी मृत्यु हो गई।

मंत्रियों ने उनकी पारलौकिक क्रिया करके बड़े पुत्र सुदर्शन को राजा बनाना चाहा। जब शत्रुजित के नाना युधाजित को इस बात की खबर लगी तो वे एक बड़ी सेना लेकर इसका विरोध करने के लिए अयोध्या में आ डटे। दूसरी ओर कलिंग नरेश वीरसेन भी सुदर्शन के पक्ष में आ गये। दोनों में युद्ध छिड़ गया जिसमें कलिंगाधिपति वीरसेन वीरगति को प्राप्त हो गये। 

अब रानी मनोरमा डर गयी। वह सुदर्शन को लेकर एक धाय तथा महामंत्री विदल्ल के साथ भागकर महर्षि भरद्वाज के आश्रम प्रयाग पहुंच गयी। महर्षि भारद्वाज ने उन्हें निर्भय होकर आश्रम में रहने का आश्वासन दे दिया।

युधाजित ने अयोध्या के सिंहसन पर शत्रुजित को अभिषिक्त किया और सुदर्शन को मारने के लिए वे महर्षि भरद्वाज के आश्रम पर पहुंचे, पर मुनि के भय से उन्हें वहां से भागना पड़ा।

इस प्रकार सुदर्शन एक ऐसा है वनवासी के रूप में आश्रम में निवास करने लगा। सुदर्शन अभी बालक ही था। देव कृपा से एक दिन उसने देखा कि महर्षि भारद्वाज और उनके शिष्य 'क्लीं क्लीं' शब्द का उच्चारण करते थे। उसने बार बार जो उनके मुंह से 'क्लीं क्लीं' सुना तो स्वयं भी 'क्लीं क्लीं' करने लगा। पूर्व जन्म के पुण्यों के कारण वह कालीबीज के रूप में पूरी तरह से अभ्यास में प्रवीण हो गया। अब वह सोते, जागते, खाते, पीते 'क्लीं क्लीं' रटने - लगा। 

इधर महर्षि भारद्वाज ने उसे क्षत्रियोचित संस्कारादि भी पारंगत कर दिए और थोड़े ही दिनों में वह भगवती तथा ऋषि की कृपा से शस्त्र-शस्त्रादि सभी विद्याओं में अत्यंत निपुण हो गया। 

एक दिन वन में खेलने के समय उसे देवी की दया से अक्षय तूणीर तथा दिव्य धनुष भी मिल गया। अब सुदर्शन भगवती की कृपा से पूर्ण शक्ति संपन्न हो गया।

इधर काशीराज सुबाहु की कन्या शशिकला बड़ी विदुषी तथा देवीभक्त हो गई। भगवती ने उसे स्वप्न में आज्ञा दी कि 'बेटी तू अब बड़ी हो गई है और तुम्हारे पिता को भी तुम्हारी विवाह की चिंता रहती है इसलिए तू सुदर्शन को पति के रूप में वरण कर ले। वह तेरी समस्त कामनाओं को पूर्ण करेगा।' माता का आशीर्वाद मान शशिकला ने मन में उसी समय सुदर्शन को पति के रूप में स्वीकार कर लिया। 

प्रातः काल उसने अपना निर्णय अपने माता पिता को सुनाया। पिता ने एक असहाय वनवासी के साथ संबंध जोड़ने में अपना अपमान समझा। अगले ही दिन काशी नरेश सुबाहु ने अपनी बेटी शशिकला के विवाह के लिए स्वयंवर का घोषणा कर दी। उन्होंने देश देश के राजाओं को संभल के लिए आमंत्रित किया परंतु उन्होंने उस स्वयंवर में सुदर्शन को आमंत्रित भी नहीं किया। 

शशिकला भी अपने मार्ग पर दृढ़ थी। वह सुदर्शन को पति के रूप में वर चुकी थी। उसने सुदर्शन को एक ब्राह्मण द्वारा देवी का संदेश भेज दिया कि माता की अनुरूप आप स्वयंवर में नहीं पहुंचे तो तुम्हारे स्थान पर मैं मृत्यु को वर लूंगी। शशिकला की इच्छा जानकर सुदर्शन भी सभी राजकुमारों की तरह काशी आ गया।

प्रयत्न करते रहने पर भी शशिकला द्वारा सुदर्शन के मन ही मन वरण किये जाने की बात सर्वत्र फैल गयी। 

इधर शत्रुजित अपने नाना अवंतिनरेश युधाजित के साथ स्वयंवर में आ पहुंचे थे। जब युद्धाजित को इस कहानी का पता चला तो युधाजित ने सुबाहु से कहा- 'तुम मुुझे नहीं जानते, मैं सुदर्शन सहित तुमको मारकर तुम्हारी कन्या का बलात्अ पहरण करूंगा। जिसे रोका जाए रोक ले।' 

सुदर्शन अभी युवा अवस्था में ही था। कुछ राजाओं को बालक सुदर्शन पर दया आ गयी। उन्होंने सुदर्शन को बुलाकर सारी स्थिति समझायी और भाग जाने की सलाह दी।

सुदर्शन ने कहा ' आपका स्नेह दर्शाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवादय। यहां स्वयंवर में मैं स्वयं अकेला आया हूं, यद्यपि  यहां मेरा कोई सहायक नहीं है और न ही मेरे साथ कोई सेना ही है ।  मैं तो माता के स्वप्नागत आदेशानुसार ही यहां स्वयंवर देखने आया हूं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे मेरी रक्षा करेंगीं। मैं तो एक वनवासी हूं, मेरी न तो किसी से शत्रुता है और न मैं किसी का अकल्याण ही चाहता हूं ।'

अब प्रातःकाल स्वयंवर प्रागंण में सभी राजा सज धज के आ बैठे तो सुबाहु ने शशिकला से स्वयंवर में जाने के लिए कहा, " यदि सुदर्शन की जीवन चाहती हो तो सुदर्शन को छोड़कर किसी भी राजा का वरण कर लो। वरना सुदर्शन की मृत्यु का दोष मुझ पर नहीं लगना चाहिए।"

शशिकला बोली- 'पिताजी, यदि तुम कायर नहीं हो तो मुझे सुदर्शन के हवाले करके नगर से बाहर छोड़ आओ।' 

सुबाहु के पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था, इसलिए सुबाहु ने रात में ही संक्षिप्त विधि से सुदर्शन से शशिकला का विवाह कर दिया और सबेरा होते ही उन्हें आश्रम पहुंचाने जाने लगा।

युधाजित को यह बात किसी प्रकार मालूम हो गयी। वह अपनी सेना लेकर सुदर्शन को मार डालने के विचार से रास्ते में ही स्थित था । सुदर्शन भी भगवती का स्मरण करता हुआ वहां पहुंचा। 

दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ गया तभी भगवती साक्षात् प्रकट हो गयी। इस युद्ध में भयंकर रक्त पात हुआ जिसे इस कुंड का निर्माण हुआ जिसे हम आज दुर्गाकुंड के नाम से जानते हैं।युधाजित अपने नाती शत्रुजित के साथ खेत रहा और युधाजित की सेना भाग गई। 

पराम्बा जगजननी ने सुदर्शन को वर मांगने के लिए कहा तो सुदर्शन ने केवल देवी के चरणों में अविरल, निश्चय अनुराग की याचना की। साथ ही माता के काशीपुरी में रहकर काशी की रक्षा करने की भी प्रार्थना की। माता ने उसे यह वर दे दिया।

सुदर्शन के वरदान स्वरूप ही पराम्बा दुर्गा दुर्गाकुण्ड में स्थित हुई। पराम्बा दुर्गा वाराणसी पुरी की अद्यावधि से रक्षा कर रही हैं। इसी विश्वास के साथ सुदर्शन ने यहां इस मंदिर का निर्माण किया था।

काशी नरेश सुबहू द्वारा हुआ था मंदिर का र्निमाण
सुदर्शन की रक्षा तथा युद्ध समाप्ति के बाद देवी मां ने काशी नरेश को दर्शन देकर उनकी पुत्री का परंपरागत रूप से पुनः  राजकुमार सुदर्शन से विवाह करने का निर्देश दिया और कहा कि किसी भी युग में इस स्थल पर जो भी मनुष्य सच्चे मन से मेरी आराधना करेगा मैं उसे साक्षात दर्शन देकर उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी करूंगी। 

कहा जाता है कि उस स्वप्न के बाद राजा सुबाहु ने वहां मां भगवती का मंदिर बनवाया जो कई बार के जीर्णोद्धार के साथ आज वर्तमान स्वरूप में श्रद्धालुओं की आस्था का प्रमुख केंद्र बना हुआ है।

दुर्गा कुंड

काशी में एक कुंड है जिसे लोग दुर्गाकुंड के नाम से पुकारते हैं। लोगों का मानना है कि इस कुंड में पानी पाताल से आता है। इसी कारण इस कुंड का पानी कभी नहीं सूखता। वर्तमान में इस कुंड को नगर पालिका ने फुहारे में बदल दिया, जिस कारण यह अपनी मूल सुंदरता को खो चुका है। इस कुंड के कारण मंदिर के आसपास के क्षेत्र को दुर्गाकुंड के नाम से जाना जाता है।

मान्यता यह भी है कि शुंभ-निशुंभ का वध करने के बाद मां दुर्गा ने थक कर दुर्गाकुण्ड स्थित मंदिर में विश्राम किया था। दुर्गाकुण्ड पहले वनाच्छादित क्षेत्र था। 


रक्त से बना है कुंड
जैसा कि हम आपको बता चुके हैं कि इस कुंडली के निर्माण की कहानी सुदर्शन और राजकुमारी शशि कला की विवाह से जुड़ी है जिसमें माता रानी ने उनकी सहायता की।

अयोध्या के राजकुमार सुदर्शन की शिक्षा-दीक्षा प्रयागराज में भारद्वाज ऋषि के आश्रम में हो रही थी। शिक्षा पूरी होने के बाद दुर्गा माता की कृपा से राजकुमार सुदर्शन का विवाह काशी नरेश राजा सुबाहू की पुत्री शशिकला से हुआ। 

जब स्वयंवर में आए राजा-महाराजा सुदर्शन के खिलाफ हो गए व सभी ने उसे सामूहिक रूप से युद्ध की चुनौती दे डाली, तब राजकुमार सुदर्शन ने उनकी चुनौती को स्वीकार कर मां भगवती की आराधना की, वहां देवी मां प्रकट हुई और सुदर्शन को विजय का वरदान देकर स्वयं उसकी प्राण रक्षा की। 

कहा जाता है कि जब राजा-महाराजाओं ने सुदर्शन को युद्ध के लिए ललकारा तो मां आदि शक्ति ने युद्धभूमि में प्रकट होकर सभी विरोधियों का वध कर डाला। इस युद्ध में इतना रक्तपात हुआ कि वहां रक्त का कुंड बन गया, जो वर्तमान में दुर्गाकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। 

लोगों का तो ये भी मानना है कि इस कुंड में पानी पाताल से आता है, तभी तो यह कभी सूखता नहीं है।







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सुदर्शन पर जगदंबा की कृपा










Feb 11, 2016

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निर्माण


दुर्गा मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी में (निर्माण की सही तिथि ज्ञात नहीं) नटोर की एक हिंदू बंगाली रानी - रानी भबानी द्वारा किया गया था । (बंगाली रानी)।  



दुर्गा या उनका अवतार
दुर्गा कुंड मंदिर : दुर्गा मंदिर कीवास्तुकला नागर शैली की है, जो उत्तर भारत की विशिष्ट है। मंदिर में पानी का एक आयताकार टैंक है जिसे दुर्गा कुंड कहा जाता है ("कुंड" जिसका अर्थ है एक तालाब या कुंड।) कुंड शुरू में सीधे नदी से जुड़ा हुआ था इसलिए पानी अपने आप भर जाता था। इस चैनल को बाद में बंद कर दिया गया था, पानी की आपूर्ति बंद कर दी गई थी, जिसकी भरपाई केवल बारिश या मंदिर से जल निकासी से होती है। हर साल नाग पंचमी के अवसर पर, भगवान विष्णु को कुंडलित रहस्यमय सांप या " शेष " पर चित्रित करने का कार्यकुंड में फिर से किया जाता है। [उद्धरण वांछित ]
5]

वाराणसी भारत का एक प्राचीन शहर है जो कई हिंदू मंदिरों के आवास के लिए प्रसिद्ध है । शहर की प्राचीन पवित्रता इसे हिंदू धर्म में एक पवित्र भूगोल बनाती है । विभिन्न राजाओं, संतों, मठों, संघों और समुदायों द्वारा वाराणसी के पूरे इतिहास में अलग-अलग समय पर शहर के मंदिरों का निर्माण किया गया था। यह शहर ऐतिहासिक और नवनिर्मित हिंदू मंदिरों के सबसे बड़े संग्रह में से एक है। वाराणसी हिंदुओं के लिए गहरी आध्यात्मिक जड़ों और महत्व वाला एक प्राचीन शहर है और यह एक हजार से अधिक मंदिरों में इस विरासत को दर्शाता है।


1922 में गंगा नदी के किनारे वाराणसी के मंदिर
वाराणसी, जिसे बनारस, या काशी के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू धर्म में काशी को भारत की सात सबसे पवित्र पुरियों में से एक माना जाता है। काशी को सप्त पुरियों में सबसे पवित्र है। यह दुनिया के सबसे पुराने लगातार बसे शहरों में से एक है। 

वाराणसी को हिंदू देवता भगवान शिव के पसंदीदा शहर के रूप में भी जाना जाता है । [2] [3]
 और जैन और बौद्ध धर्म के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । 

वाराणसी में कुछ ऐतिहासिक हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया था और 13 वीं शताब्दी के बाद, विशेष रूप से औरंगजेब के शासनकाल में उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण किया गया था। [4] [5] वाराणसी में हिंदू मंदिरों को नष्ट करने के साथ-साथ औरंगजेब ने शहर का नाम बनारस से बदलकर मुहम्मदाबाद करने की कोशिश की। [6] काशी विश्वनाथ मंदिर / ज्ञानवापी मस्जिद जैसी साइटें एक विवादित स्थल हैं, जो धार्मिक असहिष्णुता के दावों और प्रतिदावों का स्रोत हैं। [7] [8]

शिव

काशी विश्वनाथ मंदिर स्वर्ण शिखर

काशी विश्वनाथ मंदिर : काशी विश्वनाथ मंदिर सबसे प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों में से एक है और यह भगवान शिव को समर्पित है। यह हिंदू धर्म में सबसे अधिक पूजे जाने वाले शिव मंदिरों में से एक है और स्कंद पुराण के काशी खंड (खंड) सहित पुराणों में इसका उल्लेख किया गया है। 1194 सीई में कुतुब-उद-दीन ऐबक की सेना द्वारा मूल विश्वनाथ मंदिर को नष्ट कर दिया गया था , जब उन्होंने मोहम्मद गौरी के सेनापति के रूप में कन्नौज के राजा को हराया। पिछले 800 वर्षों में मंदिर को कई बार नष्ट और पुनर्निर्मित किया गया है और मौजूदा संरचना 18वीं शताब्दी में बनाई गई थी।

काल भैरव मंदिर : काल भैरव मंदिर वाराणसी के मुख्य डाकघर, विशेशरगंज के पास एक प्राचीन मंदिर है। भगवान काल भैरव को "वाराणसी का कोतवाल" माना जाता है। उनकी आज्ञा के बिना काशी में कोई नहीं रह सकता।

मृत्युंजय महादेव मंदिर : भगवान शिव का मृत्युंजय महादेव मंदिर दारानगर से कालभैरव मंदिर के मार्ग पर स्थित है । इस मंदिर के ठीक बगल में बहुत धार्मिक महत्व का एक कुआं है। इसके पानी को कई भूमिगत धाराओं का मिश्रण कहा जाता है और यह कई बीमारियों को दूर करने के लिए अच्छा है।

नया विश्वनाथ मंदिर (बिड़ला मंदिर) : नया विश्वनाथ मंदिर, जिसे बिरला मंदिर भी कहा जाता है, मुख्य रूप से बिड़ला परिवार द्वारा वित्त पोषित, पुराने काशी विश्वनाथ मंदिर की प्रतिकृति के रूप में बनाया गया था। मदन मोहन मालवीय द्वारा नियोजित, मंदिर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय परिसर का हिस्सा है, और राष्ट्रीय पुनरुत्थान का प्रतिनिधित्व करता है। मंदिर सभी जातियों और धर्मों के लोगों के लिए खुला है। श्री विश्वनाथ मंदिर परिसर में नौ मंदिर हैं, जिनमें विश्वनाथजी (शिव लिंगम), नटराजजी, माता पार्वतीजी, गणेशजी, माता सरस्वतीजी, पंचमुखी महादेव, हनुमानजी और नंदीजी शामिल हैं। यहां भगवान शिव और लक्ष्मी नारायणजी की मूर्तियां हैं।
New Vishwanath Temple
नवीन विश्वनाथ मंदिर

 
New Vishwanath Temple side view
न्यू विश्वनाथ मंदिर का साइड व्यू

श्री तिलभांडेश्वर महादेव मंदिर : श्री तिलभांडेश्वर महादेव मंदिर वाराणसी के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है, जो बंगाल टोला इंटर कॉलेज के पास और मदनपुरा की प्रसिद्ध बुनकर कॉलोनी के बगल में स्थित है । कहा जाता है कि यहां तिलभांडेश्वर शिवलिंग की लंबाई हर साल नाममात्र की बढ़ जाती है। यहां तिलभांडेश्वर महादेव, विभांडेश्वर, मां पार्वती, भैरव, भगवान अयप्पन और अन्य हिंदू देवताओं के दर्शन होते हैं। यह मंदिर मलयाली और बनारसी संस्कृति के अनोखे मेल का प्रतिनिधित्व करता है। यहां के प्रसिद्ध उत्सवों में महाशिवरात्रि, मकर संक्रांति, श्रावण, नवरात्रि, अयप्पन पूजा आदि शामिल हैं। मां शारदा ने भी इस मंदिर में कुछ दिन वाराणसी में बिताए थे।

नेपाली मंदिर : नेपाल के राजा , महाराजाधिराज राणा बहादुर शाह द्वारा 19 वीं शताब्दी ईस्वी में निर्मित , मंदिर काठमांडू में पशुपतिनाथ मंदिर की प्रतिकृति। मंदिर को कंठवाला मंदिर और मिनी खजुराहो के नाम से भी जाना जाता है ।
रत्नेश्वर महादेव मंदिर मणिकर्णिका घाट (बर्निंग घाट) केपास झुका हुआ मंदिर हैमंदिर का निचला हिस्सा कई बार नदी में डूबा रहता है जिससे पूजा और अनुष्ठान करना असंभव हो जाता है। [9] [10]


Durga Mandir main gate
दुर्गा मंदिर मुख्य द्वार

 
18th century Durga Temple, overlooking the Durga Kund
18वीं सदी का दुर्गा मंदिर , दुर्गा कुंड के सामने

 
Durga kund
दुर्गा कुण्ड

संकटा देवी मंदिर : संकटा देवी मंदिर सिंधिया घाट के पास स्थित है, "उपाय की देवी", देवी संकटा का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। इसके परिसर के अंदर एक शेर की विशाल मूर्ति है। इस मंदिर के निकट नौ ग्रहों के नौ मंदिर भी हैं [ उद्धरण वांछित ]

हनुमान

संकट मोचन मंदिर : संकट मोचन मंदिर भगवान हनुमान को समर्पित है। यह स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय है। यह कई वार्षिक धार्मिक और साथ ही सांस्कृतिक उत्सवों के लिए स्थान है। 7 मार्च 2006 को इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा किए गए तीन विस्फोटों में से एक मंदिर में गिरा, जबकि आरती , जिसमें कई उपासकों और शादी में उपस्थित लोगों ने भाग लिया, चल रहा था। [1 1]
Hanuman painted by Pahari Painter
पहाड़ी पेंटर द्वारा चित्रित हनुमान

 
Hanuman fetches the herb-bearing mountain, in a print from the Ravi Varma Press, 1910s
रवि वर्मा प्रेस, 1910 के एक प्रिंट में हनुमान जड़ी-बूटी वाले पहाड़ को लाते हैं

 
Hanuman showing Lord Rama in His heart
ह्रदय में राम को दिखाते हनुमान

पार्वती
अन्नपूर्णा देवी मंदिर : अन्नपूर्णा देवी मंदिर काशी विश्वनाथ मंदिर के पास स्थित है, देवी अन्नपूर्णा का एक अच्छा मंदिर है, जिसे "अन्न की देवी" माना जाता है। वह पार्वती का रूप हैं । उन्हें काशीपुरादेवेश्वरी ("काशी की रानी") के रूप में भी जाना जाता है।
Annapurna Devi
अन्नपूर्णा देवी

ललिता गौरी मंदिर : देवी ललिता गौरी को समर्पित मंदिर।
विशालाक्षी मंदिर : विशालाक्षी मंदिर विशालाक्षी (अर्थात चौड़ी आंखों वाली) याभगवान शिव की पत्नी पार्वती को समर्पित है।

विष्णु
और अधिक जानें
इस खंड के विस्तार की जरूरत है । आप इसे जोड़कर मदद कर सकते हैं । ( दिसंबर 2017 )
शिव और शक्ति मंदिरों के अलावा, वाराणसी के कुछ सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन मंदिर विष्णु को समर्पित हैं। [12]

आदि केशव मंदिर
मणिकर्णिका घाट विष्णु मंदिर
बिंदु माधव मंदिर

सूर्य
वाराणसी कई सूर्य से संबंधित मंदिरों का घर रहा है। [13] मुख्य रूप से भगवान सूर्य की वाराणसी में निम्नलिखित बारह रूपों में पूजा की जाती है। [14] [15]

अरुण आदित्य
द्रुपद आदित्य
गंगा आदित्य
केशव आदित्य
कखोलख आदित्य
लोलार्क आदित्य
मयूख आदित्य
सांभा आदित्य
उत्तरार्क आदित्य
विमल आदित्य
वृद्ध आदित्य
यम आदित्य

अन्य

भारत माता मंदिर : भारत माता मंदिर ("भारत माता मंदिर") भारत के वाराणसी में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ परिसर में स्थित है। देवी- देवताओं कीपारंपरिक मूर्तियों के बजाय, इस मंदिरमें संगमरमर में नक्काशीदार अविभाजित भारत का एक विशाल मानचित्र है। यह मंदिर भारत माता को समर्पित है और दुनिया में अपनी तरह का इकलौता मंदिर है। [16] [ बेहतर स्रोत की जरूरत ]
Relief map of India in Bharat Mata Mandir
भारत माता मंदिर में भारत का राहत मानचित्र

धन्वन्तरि
वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश राज्य में, धन्वंतरि की एक प्रतिमा विश्वविद्यालय संग्रहालय में मौजूद है।

महाराजा दिवोदास (काशी के प्रथम राजा धन्वंतरि के पौत्र) दक्षिण की ओर मुख वाली एक काले पत्थर की मूर्ति वाराणसी के चौक क्षेत्र में एक ब्राह्मण परिवार की निजी संपत्ति में स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि मूर्ति उस संपत्ति के परिसर के नीचे पाई गई थी जब इसका निर्माण किया जा रहा था और ब्राह्मण यह पता नहीं लगा सका कि अगली सुबह इसे गंगा में प्रवाहित करने का निर्णय लिया गया था, हालाँकि उसी रात भगवान उसके सपने में आए और परिचय दिया खुद को काशीराजा दिवोदास के रूप में और अपनी मूर्ति को वहीं रहने के लिए कहा जहां यह पाया गया था, इसलिए उन्होंने अपने घर में इस मंदिर का निर्माण किया और उनके उत्तराधिकारी अभी भी वहां भगवान की सेवा कर रहे हैं। इस मंदिर को काफी जागृत और आध्यात्मिक कहा जाता है क्योंकि मूर्ति अपने आप उभरी और यह स्थानीय मान्यता है कि यदि कोई यहां अपनी पूरी आस्था के साथ पूजा करता है, तो भगवान उसकी बीमारी को ठीक कर देते हैं। पता- सीके 14/42, नंदन साहू लेन

संत और विद्वान
तुलसी मानस मंदिर : तुलसी मानस मंदिर भगवान राम को समर्पित है। यह उस स्थान पर स्थित है जहां महान मध्यकालीन संत तुलसीदास रहते थे और उन्होंने महाकाव्य "श्री रामचरितमानस" लिखा था, जो रामायण के नायक भगवान राम के जीवन का वर्णन करता है। तुलसीदास के महाकाव्य के छंद दीवारों पर खुदे हुए हैं। यह दुर्गा मंदिर के करीब है।

व्यास मंदिर : रामनगर में स्थित, व्यास मंदिर महाभारत के लेखक वेद व्यास को समर्पित है।
क्षति और विनाश
इस्लामिक आक्रमण और भारतीय उपमहाद्वीप के शासन के दौरान वाराणसी और इसके हिंदू मंदिर छापे और विनाश का लक्ष्य थे। विभिन्न सुल्तानों और मुगल सम्राटों ने हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण 12वीं शताब्दी के अंत में शुरू किया, विशेष रूप से 13वीं शताब्दी और 18वीं शताब्दी के बीच, जैसे कि औरंगज़ेब के शासनकाल में। [4] [5] वाराणसी में हिंदू मंदिरों का विनाश समय के साथ व्यापक था, यहां तक ​​कि औरंगजेब ने शहर का नाम बनारस से बदलकर मुहम्मदाबाद करने की कोशिश की। 


काशी का दुर्गाकुंड मंदिर: नवरात्र में दर्शन-पूजन का है विशेष महात्म्य, रक्त से बना है हवन कुंड

भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी विश्व की तीन लोक से न्यारी काशी में मां आद्य शक्ति अदृश्य रूप में दुर्गाकुंड मंदिर में विराजमान हैं। माता का यह सिद्ध मंदिर प्राचीनतम मंदिरों में से एक माना जाता है। मान्यता है कि यह मंदिर आदिकालीन है। वैसे तो हर समय दर्शनार्थियों का आना लगा रहता है लेकिन शारदीय नवरात्र के चौथे दिन यहां मां कुष्मांडा के दर्शन और पूजा के लिए भारी भीड़ उमड़ती है। काशी के पावन भूमि पर कई देवी मंदिरों का भी बड़ा महात्मय है। आगे की स्लाइड्स में जानिए दुर्गाकुंड मंदिर के बारे में....
 
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इस मंदिर में देवी का तेज इतना भीषण है कि मां के सामने खड़े होकर दर्शन करने मात्र से ही कई जन्मों के पाप जलकर भस्म हो जाते हैं। इस मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी में रानी भवानी ने कराया था। यह मंदिर नागर शैली में निर्मित किया गया। मान्यता है कि शुंभ-निशुंभ का वध करने के बाद मां दुर्गा ने थककर इसी मंदिर में विश्राम किया था। पौराणिक मान्यता के मुताबिक जिन दिव्य स्थलों पर देवी मां साक्षात प्रकट हुईं वहां निर्मित मंदिरों में उनकी प्रतिमा स्थापित नहीं की गई है। ऐसे मंदिरों में चिह्न पूजा का ही विधान हैं।

 
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दर्शन करने पहुंचे श्रद्धालु


 
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इस मंदिर से जुड़ी एक अदभुद कहानी सुनाई जाती है। कहते हैं कि अयोध्या के राजकुमार सुदर्शन का विवाह काशी नरेश सुबाहु की बेटी से करवाने के लिए माता ने सुदर्शन के विरोधी राजाओं का वध करके उनके रक्त से कुंड को भर दिया वही रक्त कुंड कहलाता है। बाद में राजा सुबाहु ने यहां दुर्गा मंदिर का निर्माण करवाया और 1760 ईस्वी में रानी भवानी ने इसका जीर्णेद्धार करवाया। 
 
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कूष्मांडा - फोटो : SELF

सुदर्शन की रक्षा के बाद देवी मां ने काशी नरेश को दर्शन देकर उनकी पुत्री का विवाह राजकुमार सुदर्शन से करने का निर्देश दिया और कहा कि किसी भी युग में इस स्थल पर जो भी मनुष्य सच्चे मन से मेरी आराधना करेगा मैं उसे साक्षात दर्शन देकर उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी करूंगी। कहा जाता है कि उस स्वप्न के बाद राजा सुबाहु ने वहां मां भगवती का मंदिर बनवाया जो कई बार के जीर्णोद्धार के साथ आज वर्तमान स्वरूप में श्रद्धालुओं की आस्था का प्रमुख केंद्र बना हुआ है।
 

मंदिर में है चिह्न पूजा का विधान, पाताल से आता है कुंड में पानी

Thursday, Nov 02, 2017 - 08:33 AM (IST)






नवरात्रि में करना चाहती हैं माता के दर्शन तो जाएं दुर्गा कुंड, वाराणसी के प्रमुख मंदिरों में से है एक

काशी को भोलेनाथ की नगरी माना जाता है, लेकिन यहां भगवान शिव के अलावा मां दुर्गा का भी पुरातन मंदिर है।, जहां दूर-दूर से लोग दर्शन के लिए आते हैं।
durga havan kund

गंगा तट पर स्थित काशी पुरानी नगरी है। लोग दूर-दूर से भगवान भोलेनाथ के दर्शन करने के लिए यहां आते हैं, लेकिन यहां मां दुर्गा का भी पुरातन मंदिर है। वाराणसी में कई प्रमुख मंदिर है, उन्हीं में से एक है मां दुर्गा का ये मंदिर। नवरात्रि में यहां मां दुर्गा की पूजा करने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। अगर आप वाराणसी जाने का प्लान बना रही हैं तो दुर्गाकुंड जाना ना भूलें।

विशेष बात है कि इस मंदिर में मां दुर्गा के कई स्वरूपों के दर्शन करने का सौभाग्य मिलता है। यही कारण है कि लोग माता के दर्शन के लिए घंटों लाइन में लगे रहते हैं। यहां जाने पर लोगों के अंदर सकारात्मक उर्जा का बहाव महसूस होता है। इसलिए दर्शन के बाद कुछ लोग मंदिर के प्रांगण में बैठते हैं और फिर बाहर जाते हैं। वहीं इस मंदिर का मुख्य द्वार इस तरह बनाया गया कि आप सड़क से भी माता के दर्शन प्राप्त कर सकती हैं।

ऐसे हुआ था मंदिर का निर्माण

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इस मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी में रानी भवानी ने करवाया था, जो देवी की एक भक्त थीं। इसकी प्रमुख विशेषताओं में से एक है इस मंदिर का कुंड जोमंदिरके परिसर में ही बनाया गया है। इस कुंड को लोग गंगा नदी से जोड़ते हैं। इस मंदिर की वास्तुकला की बात करें तो इसका निर्माण उत्तर भारतीय नागर शैली में लाल पत्थरों से किया गया है। वहीं मां दुर्गा का मुख्य चिह्न, जिसे शक्ति की देवी भी माना जाता है। उसे भी लाल रंग में देखा जा सकता है। यही नहीं जब आप मंदिर के अंदर जाते हैं तो आपको दीवारों पर उकेरे गए कई सुंदर नक़्क़ाशीदार पत्थर दिखाई देंगे। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए आपको वाराणसी के कैंट स्टेशन से ऑटो मिल जाएगा। इसके अलावा आप निजी वाहन कर के भी आप यहां पहुंच सकती हैं।

आदिकाल से है यह मंदिर

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इस मंदिर में माता दुर्गा यंत्र के रूप में विरामजान है। मंदिर के प्रांगण में माता दुर्गा के अलावा देवी सरस्वती, लक्ष्मी, काली, और बाबा भैरोनाथ की अलग-अलग मूर्तियां स्थापित हैं। माता के दर्शन के अलावा मंदिर के पुजारियों के भी दर्शन करें। वहीं इस मंदिर को लेकर ऐसी मान्यताएं कि यह आदिकाल से है। जब माता दुर्गा ने असुर शुंभ और निशुंभ का वध किया था, तो मां ने यहीं विश्राम किया था। इस मंदिर में वह शक्ति स्वरूप में विराजमान। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार दुर्गा कुंड में तंत्र पूजा भी की जाती है। प्रत्येक दिन इस कुंड में हवन किया जाता है।


दुर्गा कुंड के आसपास हैं कई मंदिर

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इतिहास

दुर्गा मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी में नटौर की बंगाली महारानी - रानी भबानी ने करवाया था । मंदिर देवी दुर्गा को समर्पित है । मंदिर के बगल में एक कुंड (तालाब) है जो पहले गंगा नदी से जुड़ा हुआ था। ऐसा माना जाता है कि देवी का मौजूदा चिह्न किसी व्यक्ति द्वारा नहीं बनाया गया था, बल्कि मंदिर में स्वयं प्रकट हुआ था। [2] [3]

देवी -भागवत पुराण के 23 अध्याय (अध्याय) में , इस मंदिर की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है। पाठ के अनुसार, काशी नरेश (वाराणसी के राजा) ने अपनी बेटी शशिकला के विवाह के लिए स्वयंवर का आह्वान किया। राजा को बाद में पता चला कि राजकुमारी को वनवासी राजकुमार सुदर्शन से प्रेम हो गया था। अत: काशी नरेश ने अपनी पुत्री का विवाह गुप्त रूप से राजकुमार से करा दिया। जब अन्य राजाओं (जिन्हें स्वयंवर के लिए आमंत्रित किया गया था) को विवाह के बारे में पता चला, तो वे क्रोधित हो गए और काशी नरेश के साथ युद्ध पर चले गए। सुदर्शन ने तब दुर्गा की पूजा की, जो एक शेर पर आई थी और काशी नरेश और सुदर्शन के लिए युद्ध लड़ी थी। युद्ध के बाद काशी नरेश ने दुर्गा से वाराणसी की रक्षा करने की याचना की और इसी विश्वास के साथ इस मंदिर का निर्माण किया गया।[1]

निर्माण

दुर्गा मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी में (निर्माण की सही तिथि ज्ञात नहीं) नटोर की एक हिंदू बंगाली रानी रानी भबानी द्वारा किया गया था । (बंगाली रानी)। मंदिर वास्तुकला की उत्तर भारतीय नागर शैली में बनाया गया था। शक्ति और शक्ति की देवी, दुर्गा के केंद्रीय प्रतीक के रंगों से मेल खाने के लिए मंदिर को गेरू से लाल रंग में रंगा गया है। मंदिर के अंदर, कई विस्तृत नक्काशीदार और उत्कीर्ण पत्थर पाए जा सकते हैं। मंदिर एक साथ जुड़े कई छोटे शिखरों से बना है। [2] [4]

जगह

दुर्गा मंदिर दुर्गा कुंड से सटे संकट मोचन रोड पर, तुलसी मानस मंदिर से 250 मीटर उत्तर में, संकट मोचन मंदिर से 700 मीटर उत्तर-पूर्व में और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 1.3 किलोमीटर उत्तर में स्थित है । [5]


विकिपीडिया

वाराणसी में हिंदू मंदिरों की सूची

वाराणसी भारत का एक प्राचीन शहर है जो कई हिंदू मंदिरों के आवास के लिए प्रसिद्ध है । शहर की प्राचीन पवित्रता इसे हिंदू धर्म में एक पवित्र भूगोल बनाती है । विभिन्न राजाओं, संतों, मठों, संघों और समुदायों द्वारा वाराणसी के पूरे इतिहास में अलग-अलग समय पर शहर के मंदिरों का निर्माण किया गया था। यह शहर ऐतिहासिक और नवनिर्मित हिंदू मंदिरों के सबसे बड़े संग्रह में से एक है। वाराणसी हिंदुओं के लिए गहरी आध्यात्मिक जड़ों और महत्व वाला एक प्राचीन शहर है और यह एक हजार से अधिक मंदिरों में इस विरासत को दर्शाता है।

1922 में गंगा नदी के किनारे वाराणसी के मंदिर

वाराणसी, जिसे बनारस, [1] बनारस ( बनारस ), या काशी ( काशी ) के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू और जैन धर्म में सात पवित्र शहरों ( सप्त पुरी ) में सबसे पवित्र है, और बौद्ध धर्म के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । यह दुनिया के सबसे पुराने लगातार बसे शहरों में से एक है । वाराणसी को हिंदू देवता भगवान शिव के पसंदीदा शहर के रूप में भी जाना जाता है । [2] [3]

वाराणसी में कुछ ऐतिहासिक हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया था और 13 वीं शताब्दी के बाद, विशेष रूप से औरंगजेब के शासनकाल में उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण किया गया था। [4] [5] वाराणसी में हिंदू मंदिरों को नष्ट करने के साथ-साथ औरंगजेब ने शहर का नाम बनारस से बदलकर मुहम्मदाबाद करने की कोशिश की। [6] काशी विश्वनाथ मंदिर / ज्ञानवापी मस्जिद जैसी साइटें एक विवादित स्थल हैं, जो धार्मिक असहिष्णुता के दावों और प्रतिदावों का स्रोत हैं। [7] [8]

शिव

  • काशी विश्वनाथ मंदिर : काशी विश्वनाथ मंदिर सबसे प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों में से एक है और यह भगवान शिव को समर्पित है। यह हिंदू धर्म में सबसे अधिक पूजे जाने वाले शिव मंदिरों में से एक है और स्कंद पुराण के काशी खंड (खंड) सहित पुराणों में इसका उल्लेख किया गया है। 1194 सीई में कुतुब-उद-दीन ऐबक की सेना द्वारा मूल विश्वनाथ मंदिर को नष्ट कर दिया गया था , जब उन्होंने मोहम्मद गौरी के सेनापति के रूप में कन्नौज के राजा को हराया। पिछले 800 वर्षों में मंदिर को कई बार नष्ट और पुनर्निर्मित किया गया है और मौजूदा संरचना 18वीं शताब्दी में बनाई गई थी।
  • काल भैरव मंदिर : काल भैरव मंदिर वाराणसी के मुख्य डाकघर, विशेशरगंज के पास एक प्राचीन मंदिर है। भगवान काल भैरव को "वाराणसी का कोतवाल" माना जाता है। उनकी आज्ञा के बिना काशी में कोई नहीं रह सकता।
  • मृत्युंजय महादेव मंदिर : भगवान शिव का मृत्युंजय महादेव मंदिर दारानगर से कालभैरव मंदिर के मार्ग पर स्थित है । इस मंदिर के ठीक बगल में बहुत धार्मिक महत्व का एक कुआं है। इसके पानी को कई भूमिगत धाराओं का मिश्रण कहा जाता है और यह कई बीमारियों को दूर करने के लिए अच्छा है।
  • नया विश्वनाथ मंदिर (बिड़ला मंदिर) : नया विश्वनाथ मंदिर, जिसे बिरला मंदिर भी कहा जाता है, मुख्य रूप से बिड़ला परिवार द्वारा वित्त पोषित, पुराने काशी विश्वनाथ मंदिर की प्रतिकृति के रूप में बनाया गया था। मदन मोहन मालवीय द्वारा नियोजित, मंदिर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय परिसर का हिस्सा है, और राष्ट्रीय पुनरुत्थान का प्रतिनिधित्व करता है। मंदिर सभी जातियों और धर्मों के लोगों के लिए खुला है। श्री विश्वनाथ मंदिर परिसर में नौ मंदिर हैं, जिनमें विश्वनाथजी (शिव लिंगम), नटराजजी, माता पार्वतीजी, गणेशजी, माता सरस्वतीजी, पंचमुखी महादेव, हनुमानजी और नंदीजी शामिल हैं। यहां भगवान शिव और लक्ष्मी नारायणजी की मूर्तियां हैं।
  • श्री तिलभांडेश्वर महादेव मंदिर : श्री तिलभांडेश्वर महादेव मंदिर वाराणसी के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है, जो बंगाल टोला इंटर कॉलेज के पास और मदनपुरा की प्रसिद्ध बुनकर कॉलोनी के बगल में स्थित है । कहा जाता है कि यहां तिलभांडेश्वर शिवलिंग की लंबाई हर साल नाममात्र की बढ़ जाती है। यहां तिलभांडेश्वर महादेव, विभांडेश्वर, मां पार्वती, भैरव, भगवान अयप्पन और अन्य हिंदू देवताओं के दर्शन होते हैं। यह मंदिर मलयाली और बनारसी संस्कृति के अनोखे मेल का प्रतिनिधित्व करता है। यहां के प्रसिद्ध उत्सवों में महाशिवरात्रि, मकर संक्रांति, श्रावण, नवरात्रि, अयप्पन पूजा आदि शामिल हैं। मां शारदा ने भी इस मंदिर में कुछ दिन वाराणसी में बिताए थे।
  • नेपाली मंदिर : नेपाल के राजा , महाराजाधिराज राणा बहादुर शाह द्वारा 19 वीं शताब्दी ईस्वी में निर्मित , मंदिर काठमांडू में पशुपतिनाथ मंदिर की प्रतिकृति। मंदिर को कंठवाला मंदिर और मिनी खजुराहो के नाम से भी जाना जाता है ।
  • रत्नेश्वर महादेव मंदिर मणिकर्णिका घाट (बर्निंग घाट) केपास झुका हुआ मंदिर हैमंदिर का निचला हिस्सा कई बार नदी में डूबा रहता है जिससे पूजा और अनुष्ठान करना असंभव हो जाता है। [9] [10]

दुर्गा या उनका अवतार

  • दुर्गा कुंड मंदिर : दुर्गा मंदिर कीवास्तुकला नागर शैली की है, जो उत्तर भारत की विशिष्ट है। मंदिर में पानी का एक आयताकार टैंक है जिसे दुर्गा कुंड कहा जाता है ("कुंड" जिसका अर्थ है एक तालाब या कुंड।) मंदिर में बहु-स्तरीय मीनारें हैं और गेरू से लाल रंग से रंगा हुआ है, जो दुर्गा के लाल रंग का प्रतिनिधित्व करता है। कुंड शुरू में सीधे नदी से जुड़ा हुआ था इसलिए पानी अपने आप भर जाता था। इस चैनल को बाद में बंद कर दिया गया था, पानी की आपूर्ति बंद कर दी गई थी, जिसकी भरपाई केवल बारिश या मंदिर से जल निकासी से होती है। हर साल नाग पंचमी के अवसर पर, भगवान विष्णु को कुंडलित रहस्यमय सांप या " शेष " पर चित्रित करने का कार्यकुंड में फिर से किया जाता है। [उद्धरण वांछित ]
  • संकटा देवी मंदिर : संकटा देवी मंदिर सिंधिया घाट के पास स्थित है, "उपाय की देवी", देवी संकटा का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। इसके परिसर के अंदर एक शेर की विशाल मूर्ति है। इस मंदिर के निकट नौ ग्रहों के नौ मंदिर भी हैं [ उद्धरण वांछित ]

हनुमान

  • संकट मोचन मंदिर : संकट मोचन मंदिर भगवान हनुमान को समर्पित है। यह स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय है। यह कई वार्षिक धार्मिक और साथ ही सांस्कृतिक उत्सवों के लिए स्थान है। 7 मार्च 2006 को इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा किए गए तीन विस्फोटों में से एक मंदिर में गिरा, जबकि आरती , जिसमें कई उपासकों और शादी में उपस्थित लोगों ने भाग लिया, चल रहा था। [1 1]

पार्वती

  • अन्नपूर्णा देवी मंदिर : अन्नपूर्णा देवी मंदिर काशी विश्वनाथ मंदिर के पास स्थित है, देवी अन्नपूर्णा का एक अच्छा मंदिर है, जिसे "अन्न की देवी" माना जाता है। वह पार्वती का रूप हैं । उन्हें काशीपुरादेवेश्वरी ("काशी की रानी") के रूप में भी जाना जाता है।

विष्णु

शिव और शक्ति मंदिरों के अलावा, वाराणसी के कुछ सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन मंदिर विष्णु को समर्पित हैं। [12]

  • आदि केशव मंदिर
  • मणिकर्णिका घाट विष्णु मंदिर
  • बिंदु माधव मंदिर

सूर्य

वाराणसी कई सूर्य से संबंधित मंदिरों का घर रहा है। [13] मुख्य रूप से भगवान सूर्य की वाराणसी में निम्नलिखित बारह रूपों में पूजा की जाती है। [14] [15]

  1. अरुण आदित्य
  2. द्रुपद आदित्य
  3. गंगा आदित्य
  4. केशव आदित्य
  5. कखोलख आदित्य
  6. लोलार्क आदित्य
  7. मयूख आदित्य
  8. सांभा आदित्य
  9. उत्तरार्क आदित्य
  10. विमल आदित्य
  11. वृद्ध आदित्य
  12. यम आदित्य

अन्य

धन्वन्तरि

वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश राज्य में, धन्वंतरि की एक प्रतिमा विश्वविद्यालय संग्रहालय में मौजूद है।

महाराजा दिवोदास (काशी के प्रथम राजा धन्वंतरि के पौत्र) दक्षिण की ओर मुख वाली एक काले पत्थर की मूर्ति वाराणसी के चौक क्षेत्र में एक ब्राह्मण परिवार की निजी संपत्ति में स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि मूर्ति उस संपत्ति के परिसर के नीचे पाई गई थी जब इसका निर्माण किया जा रहा था और ब्राह्मण यह पता नहीं लगा सका कि अगली सुबह इसे गंगा में प्रवाहित करने का निर्णय लिया गया था, हालाँकि उसी रात भगवान उसके सपने में आए और परिचय दिया खुद को काशीराजा दिवोदास के रूप में और अपनी मूर्ति को वहीं रहने के लिए कहा जहां यह पाया गया था, इसलिए उन्होंने अपने घर में इस मंदिर का निर्माण किया और उनके उत्तराधिकारी अभी भी वहां भगवान की सेवा कर रहे हैं। इस मंदिर को काफी जागृत और आध्यात्मिक कहा जाता है क्योंकि मूर्ति अपने आप उभरी और यह स्थानीय मान्यता है कि यदि कोई यहां अपनी पूरी आस्था के साथ पूजा करता है, तो भगवान उसकी बीमारी को ठीक कर देते हैं। पता- सीके 14/42, नंदन साहू लेन

संत और विद्वान

क्षति और विनाश

इस्लामिक आक्रमण और भारतीय उपमहाद्वीप के शासन के दौरान वाराणसी और इसके हिंदू मंदिर छापे और विनाश का लक्ष्य थे। विभिन्न सुल्तानों और मुगल सम्राटों ने हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण 12वीं शताब्दी के अंत में शुरू किया, विशेष रूप से 13वीं शताब्दी और 18वीं शताब्दी के बीच, जैसे कि औरंगज़ेब के शासनकाल में। [4] [5] वाराणसी में हिंदू मंदिरों का विनाश समय के साथ व्यापक था, यहां तक ​​कि औरंगजेब ने शहर का नाम बनारस से बदलकर मुहम्मदाबाद करने की कोशिश की। [6]

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