मार्कंडेय पुराण के रचीयता मार्कंडेय ऋषि की संक्षिप्त कथा

मार्कंडेय पुराण के रचीयता मार्कंडेय ऋषि की संक्षिप्त कथा


यहां स्नान नहीं किया तो अधूरी रहती है चार धाम यात्रा

महर्षि मार्कंडेय की तपोस्थली 
हिमाचल के बिलासपुर जिले में महर्षि मार्कंडेय की तपोस्थली मार्कंड में स्नान किए बिना चार धाम की यात्रा अधूरी मानी जाती है। मान्यता के अनुसार चार धाम पर जाने वाले लोग यहां पर स्नान करने के बाद ही अपनी यात्रा पूरी मानते हैं। बैसाखी पर्व पर पवित्र स्नान के लिए हजारों की भीड़ यहां उमड़ी। ब्रह्म मुहूर्त में शुरू हुआ स्नान का सिलसिला दिनभर चलता रहा। भगवान शिव व मार्कंडेय से जुड़े होने के कारण यह स्थान लोगों की आस्था का केंद्र बना है।
maharishi markandeya temple in bilaspur himachal pradesh
यह है पौराणिक कथा
पौराणिक गाथा के अनुसार मृकंडु ऋषि की घोर तपस्या के बाद भगवान शिव ने पुत्र रतन का वरदान दिया। लेकिन, वरदान के साथ उन्होंने पुत्र के अल्पायु होने का भी जिक्र कर दिया। ज्यों-ज्यों पुत्र की आयु बढ़ती गई, पिता चिंताग्रस्त रहने लगे। बालक मार्कंडेय कुशाग्र बुद्धि होने के साथ पितृभक्त भी थे। उन्होंने अपने पिता के मन को कुरेद कर चिंता का कारण जान लिया तथा इस चिंता से मुक्ति के लिए भगवान शिव की तपस्या आरंभ की। जब उनकी आयु 12 वर्ष होने के केवल तीन दिन शेष रह गए, तो उन्होंने रेत का शिवलिंग बनाया और शिव की तपस्या में लीन हो गए। यमदूत उनके प्राण हरण करने के लिए आए, लेकिन जब वह बाल तपस्वी की ओर बढ़ने लगे तो रेत के उस शिवलिंग में से आग की लपटें निकलीं व यमदूतों की ओर बढ़ने लगीं।

हारकर यमदूत यमपुरी चले गए तथा यमराज को सारा हाल  सुनाया। स्वयं यमराज जब वहां आए तो मार्कंडेय जी ने शिवलिंग को बांहों में पकड़ लिया। शिवलिंग में से शिव प्रकट हुए तथा उन्होंने यमराज को वापस यमपुरी जाने का आदेश दिया। ऐसा मानना है कि यह घटना बैसाखी की पूर्व संध्या को घटित हुई। उस स्थान पर पानी का झरना फूट पड़ा, जिसे आज मार्कंडेय तीर्थ के नाम से जाना जाता है। बैसाखी को यहां बहुत बड़ा मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर से श्रद्धालु आकर ब्रह्म मुहूर्त से दिनभर पवित्र स्नान करते हैं। इस वृतांत का विवरण मार्कंड पुराण में भी पढने को मिलता है।

सालभर मंदिर में पहुंचते हैं श्रद्धालु- साहित्यकार कुलदीप चंदेल कहते हैं कि मार्कंडेय तीर्थ चार धाम से बढ़कर है। आज भी चार धाम यात्रा करने के बाद लोग मार्कंडेय में पवित्र स्नान को पहुंचते हैं। खासकर बिलासपुर के लोग सालभर मंदिर में स्नान करने को पहुंचते हैं। विशेषकर बैसाखी पर्व पर स्नान का विशेष महत्व है।

maharishi markandeya temple in bilaspur himachal pradesh5 of 6

पवित्र स्नान कर पूरी की चारधाम यात्रा- जुखाला के बलदेव शर्मा, भगवान दास, जगरनाथ, बंती देवी, चैतरू, सबरातू ने बताया कि वह दो महीने पहले ही चार धाम यात्रा कर लौटे हैं। हरिद्वार जैसे तीर्थ स्थल की भी उन्होंने यात्रा की। लिहाजा, इस यात्रा को सफल बनाने के लिए आज उन्होंने मार्कंडेय तीर्थ में परिजनों सहित पवित्र स्नान किया।

रुकमणि कुंड में 10 हजार लोगों ने लगाई डुबकी- जिला के पवित्र रुकमणि कुंड में बुधवार को बैसाखी पर्व पर हजारों श्रद्धालुओं ने स्नान किया। प्रदेश सहित बाहरी राज्यों से लगभग 10 हजार श्रद्धालुओं ने यहां पहुंचकर बुधवार को कुंड में पवित्र स्नान किया। ब्रह्म मुहूर्त से लेकर सारा दिन श्रद्धालुओं के स्नान का तांता लगा रहा।

महामृत्युंजय मंत्र की रचना करने वाले मार्कंडेय ऋषि की आयु कम क्यों थी? फिर किस प्रकार अमर हो गए? आइए जानते हैं इस संबंध में रोचक कथा.

मार्कंडेय ऋषि ने की थी महामृत्युंजय मंत्र की रचना
पुराणों के मुताबिक महामृत्युंजय मंत्र की रचना मार्कंडेय ऋषि ने की थी. प्राचीन समय की बात है मृगशृंग ऋषि और सुव्रता की की कोई संतान नहीं थी. संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने भगवान शिव की उपसना की. उनकी उपासना से प्रसन्न होकर भोलेनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया. इसके साथ ही भोलेनाथ ने यह भी कहा कि उस संतान की आयु कम होगी, सिर्फ 16 साल की अल्पायु में वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा. भगवान शिव के आशीर्वाद के अनुसार कुछ समय बाद ऋषि के घर पुत्र का जन्म हुआ. जिसका नाम मार्कंडेय रखा गया. माता-पिता ने मार्कंडेय के आश्रम में ज्ञान अर्जन करने के लिए भेजा. जहां मार्कंडेय के ज्ञान प्राप्त करते हुए 15 साल बीत गए, लेकिन वे घर लौटकर नहीं आए. मार्कंडेय के माता-पिता को इस बात की चिंता सताने लगी.

जब मार्कंडेय कुछ समय बाद घर लौटकर आए तो मााता-पिता उन्हें अल्पायु होने की बात बताई. जिसके बाद मार्कंडेय महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और उसका जाप करते हुए शिवजी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या आरंभ कर दी. इस प्रकार एक वर्ष बीत गए. तब मार्कंडेय की उम्र 16 वर्ष हो गई थी. आयु पूरी होने के बाद यमराज उसके सामने प्रकट हुए तो मार्कंडेय ने शिवलिंग को पकड़ लिया. फिर भी यमराज उसे ले जाना चाहते थे, तब भगवान शिव वहां प्रकट हुए. शिवजी मार्कंडेय की तपस्या से प्रसन्न थे, इसलिए उन्हें अमरता का वरदान दिए. इस प्रकार भगवान शिव की कृपा और महामृत्युंजय मंत्र के मार्कंडेय अमर हुए और ऋषि कहलाए. कहते हैं कि शिवजी ने मार्कंडेय ऋषि से कहा था कि जो मनुष्य महामृत्युंजय मंत्र का जाप करेगा, उसकी सारी समस्या खत्म होगी और उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं सताएगा.

markandeya rishi ki katha

मार्कण्डेय ऋषि की कथा: markandeya rishi ki katha

मार्कण्डेय ऋषि की कथा: markandeya rishi ki katha

(markandeya rishi ki katha) हम सभी ऋषि मार्कण्डेय के बारे में तो अवश्य जानते हैं किन्तु उनकी आयु के बारे में कम लोग जानते हैं | ऋषि मार्कण्डेय ने १६ (सोलह) वर्ष की आयु सीमा भाग्य लेकर के जन्म लिया था | इनके पिता जी का नाम मृगश्रंग और माता   का नाम सुव्रता था | आइये श्री मार्कण्डेय ऋषि की कथा markandeya rishi ki katha जानते हैं |

प्राचीन समय की बात है किसी गांव में एक बालक अपनी माता के साथ रहता था। उस बालक का नाम था मार्कण्डेय। वह बालक तथा उसकी माता दोनों शिव जी के अनन्य भक्त थे। बालक बचपन से ही अपनी माता को पूजा करते हुये देखता, पूजा करने के बाद वे दोनों गायों को चराने जंगल जाते। यह उनका प्रतिदिन का कार्य था।

एक दिन की बात है (markandeya rishi ki katha) मार्कण्डेय अपनी माता के साथ जब जंगल से लौट रहा था तो उसने देखा कि उस प्रदेश के राजा शिवजी के एक बहुत बडे अनुष्ठान का आयोजन करवा रहे हैं। बालक ने अपनी मां से इस आयोजन के सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने बताया कि पुत्र! राजा शिवजी का रुद्राभिषेक करा रहे हैं इस पर उसने अपनी मां से कहा कि मैं भी यह रुद्राभिषेक करूंगा। मां बोली बेटा हमारे पास इतना धन नहीं है ऐसा कहकर वे दोनों घर लौट गये।

अब बालक (markandeya rishi ki katha) मार्कण्डेय थोड़ा बड़ा हो गया था तथा अकेले ही गाय को चराने जंगल जाने लगा। एक दिन नर्मदा नदी के तट से उसने एक बड़ा -सा पिण्डी रूपी पत्थर उठाया तथा उसे जंगल में एक एकान्त स्थान पर रखकर उसे जल से स्नान करवाकर जंगल से पुष्प तथा फल अर्पित करके “ऊं नमः शिवाय“ का जाप करने लगा। अब तो यह उसका प्रतिदिन का नियम बन गया था। वह गाय को खुला छोड़ देता और बैठ जाता शिवभक्ति में।

एक दिन उसकी गाय एक किसान के खेत में घुस गई उसने मार्कण्डेय की मां से शिकायत कर दी। अगले दिन जब बालक गाय चराने निकला तो उसकी माता ने उसका पीछा किया तो उसने देखा कि मार्कण्डेय ने गाय को तो खुला छोड़ दिया है और भगवान शिव की आराधना में लग गया है। यह देखकर मां ने उसे डांटा तथा सख्त हिदायत दी।

किन्तु बालक पर कोई असर न हुआ वह उसी प्रकार शिवभक्ति में लीन रहने लगा। एक दिन की बात है उस बालक का अन्तिम समय आ गया था वह प्रतिदिन की भांति शिवलिंग की आराधना में मग्न था। अचानक वहां यमराज प्रकट हो गये जिन्हें देखकर बालक डर गया उसने यमराज से उनके बारे में पूछा तो उन्होंने अपना प्रयोजन उसे बताया कि “हम तुम्हें लेने आये हैं तुम्हारी मृत्यु का समय आ गया है।“

ऐसा सुनकर वह बालक डर गया और अपनी छोटी-छोटी बांहों से शिवलिंग से लिपट गया और मंत्र जाप करने लगा। ऐसा देखकर जैसे ही यमराज ने अपना मृत्यु पाश उसकी ओर फेंका तभी वहां भगवान शंकर प्रकट हो गये तथा कहा कि हे यमराज ! आप इसे नहीं ले जा सकते अब यह मेरे संरक्षण में है। इस पर यमराज ने कहा प्रभु! इसका अन्तिम समय आ चुका है इसको इतना ही जीवन जीना था। यदि यह जीवित रहा तो यह प्रकृति के नियमों के विरूद्ध होगा।

इस पर भगवान शंकर बोले मैंने इसे अभयदान दे दिया है यह अल्पायु से दीर्घायु हो चुका है। ऐसा सुनकर यमराज बोले, जैसी प्रभु इच्छा और वहां से चले गये। शिवजी ने उस बालक को उठाया और बोले तुम्हें भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है पुत्र! मैं तुम्हें दीर्घायु और विद्वता का आशीर्वाद देता हूं।

जब बालक ने उन्हें देखा तो उनके चरणों में गिर पड़ा। शिवजी ने उसे उठाया और पूछा कोई वरदान मांगना चाहते हो तो बोलो। उसने कहा कि मुझे केवल अपनी भक्ति में डूबे रहने का वरदान प्रदान करने की कृपा करें इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं चाहिये।

शिवजी ने उसे मनचाहा वरदान दिया और अन्तर्धान हो गये। यह बात उसने आकर अपनी मां को बताई तथा देखते ही देखते वह अपने नगर में प्रसिद्ध हो गया। आगे चलकर वही बालक शास्त्रों का बड़ा ज्ञाता बना तथा श्री मार्कण्डेयपुराण (markandeya rishi ki katha) की रचना की।

मार्कण्डेय ऋषि की कथा

घोर तपस्या तथा इन्द्र द्वारा तपस्या भंग का असफल प्रयास

भगवान ने तप का आदर्श स्थापित करने के लिये ही नर-नारायणस्वरूप धारण किया है । वे सर्वेश्वर तपस्वी ऋषियोंके रक्षक एवं आराध्य हैं। मृकण्डु ऋषिके पुत्र मार्कण्डेयजी नैष्ठिक ब्रह्मचर्यव्रत लेकर हिमालयकी गोदमें पुष्पभद्रा नदीके किनारे उन्हीं ऋषिरूपधारी भगवान् नरनारायणकी आराधना कर रहे थे। उनका चित्त सब ओरसे हटकर भगवानमें ही लगा रहता था। मार्कण्डेय मुनिको जब इस प्रकार भगवानकी आराधना करते बहुत वर्ष व्यतीत हो गये, तब इन्द्रको उनके तपसे भय होने लगा। देवराजने वसन्त, कामदेव तथा पुञ्जिकस्थली अप्सराको मुनिकी साधनामें विघ्न करनेके लिये वहाँ भेजा। वसन्तके प्रभावसे सभी वृक्ष पुष्पित हो गये, कोकिला कूजने लगी, शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चलने लगा। अलक्ष्य रहकर वहाँ गन्धर्व गाने लगे और अप्सरा पुञ्जिकस्थली मुनिके सम्मुख गेंद खेलती हुई अपने सौंदर्यका प्रदर्शन करने लगी। इसी समय कामदेवने अपने फूलोंके धनुषपर सम्मोहन बाण चढ़ाकर उसे मुनिपर छोड़ा। परंतु कामदेव तथा अप्सराके सब प्रयत्न व्यर्थ हो गये। मार्कण्डेयजीका चित्त भगवान् नरनारायणमें लगा हुआ था, अतः भगवानकी कृपासे उनके हृदयमें कोई विकार नहीं उठा। मुनिकी ऐसी दृढ़ अवस्था देखकर काम आदि डरकर भाग गये। मार्कण्डेयजीमें कामको जीत लेनेका गर्व भी नहीं आया। वे उसे भगवानकी कृपा समझकर और भी भावनिमग्न हो गये।भगवान के चरणोंमें मार्कण्डेयजीका चित्त तो पहलेसे लगा था। अब भगवान की अपनेपर इतनी बड़ी कृपाका अनुभव करके वे व्याकुल हो गये। भगवान के दर्शनके लिये उनका हृदय आतुर हो उठा। भक्तवत्सल भगवान उनकी व्याकुलतासे द्रवित होकर उनके सामने प्रकट हो गये। भगवान नारायण सुन्दर जलभरे मेघके समान श्याम वर्णके और नर गौर वर्णके थे। दोनोंके ही कमलके समान नेत्र करुणासे पूर्ण थे। इस ऋषिवेशमें भगवान ने जटाएँ बढ़ा रखी थीं और शरीरपर मृगचर्म धारण कर रखा था। भगवान् के मङ्गलमय भव्य स्वरूपको देखकर मार्कण्डेयजी हाथ जोड़कर भूमिपर गिर पड़े। भगवान्ने उन्हें स्नेहपूर्वक उठाया। मार्कण्डेयजीने किसी प्रकार कुछ देरमें अपनेको स्थिर किया। उन्होंने भगवान्की भलीभाँति पूजा की। भगवान्ने उनसे वरदान माँगनेको कहा। मार्कण्डेयजीने स्तुति करते हुए भगवान्से कहा-‘प्रभो! आपके श्रीचरणोंका दर्शन हो जाय, इतना ही प्राणीका परम पुरुषार्थ है। आपको पा लेनेपर फिर तो कुछ पाना शेष रह ही नहीं जाता; किंतु आपने वरदान माँगनेकी आज्ञा दी है, अतः मैं आपकी माया देखना चाहता हूँ। Markandeya Rishi Ki Kahani

मार्कण्डेय जी का माया (प्रलय) दर्शन markandeya rishi ki kahani

भगवान् तो एवमस्तु’ कहकर अपने आश्रम बदरीवनको चले गये और मार्कण्डेयजी भगवान की आराधना, ध्यान, पूजनमें लग गये। सहसा एक दिन ऋषिने देखा कि दिशाओंको काले-काले मेघोंने ढक दिया है। बड़ी भयंकर गर्जना तथा बिजलीकी कड़कके साथ मूसलके समान मोटी-मोटी धाराओंसे पानी बरसने लगा। इतने में चारों ओरसे उमड़ते हुए समुद्र बढ़ आये और समस्त पृथ्वी प्रलयके जलमें डूब गयी। मुनि उस महासागरमें विक्षिप्तकी भाँति तैरने लगे। भूमि, वृक्ष, पर्वत आदि सब डूब गये थे। सूर्य, चन्द्र तथा तारोंका भी कहीं पता नहीं था। सब ओर घोर अन्धकार था। भीषण प्रलयसमुद्रकी गर्जना ही सुनायी पड़ती थी। उस समुद्र में बड़ी-बड़ी भयंकर तरङ्ग कभी मुनिको यहाँसे वहाँ फेंक देती थीं, कभी कोई जलजन्तु उन्हें काटने लगता था और कभी वे जलमें डूबने लगते थे। जटाएँ खुल गयी थीं, बुद्धि विक्षिप्त हो गयी थी, शरीर शिथिल होता जाता था। अन्तमें बहुत व्याकुल होकर उन्होंने भगवान का स्मरण किया। भगवान का स्मरण करते ही मार्कण्डेयजीने देखा कि सामने ही एक बहुत बड़ा वटका वृक्ष उस प्रलयसमुद्रमें खड़ा है। पूरे वृक्षपर कोमल पत्ते भरे हुए हैं। आश्चर्यसे मुनि और समीप आ गये। उन्होंने देखा कि वटवृक्षकी ईशान कोणकी शाखापर पत्तोंके सट जानेसे बड़ा-सा सुन्दर दोना बन गया है। उस दोनेमें एक अद्भुत बालक लेटा हुआ है। वह नव-जलधर सुन्दर श्याम है। उसके कर एवं चरण लाल-लाल अत्यन्त सुकुमार हैं। उसके त्रिभुवनसुन्दर मुखपर मन्द-मन्द हास्य है। उसके बड़ेबड़े नेत्र प्रसन्नतासे खिले हुए हैं। श्वास लेनेसे उसका सुन्दर त्रिवलीभूषित पल्लवके समान उदर तनिक-तनिक ऊपर-नीचे हो रहा है। उस शिशुके शरीरका तेज इस घोर अन्धकारको दूर कर रहा है। शिशु अपने हाथोंकी सुन्दर अँगुलियोंसे दाहिने चरणको पकड़कर उसके अँगूठेको मुखमें लिये चूस रहा है। मुनिको बड़ा ही आश्चर्य हुआ। उन्होंने प्रणाम किया Markandeya Rishi Ki Kahani

मार्कण्डेय जी की प्रभु झाँकी का वर्णन

करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं शिरसा नमामि॥

उनकी सब थकावट उस बालकको देखते ही दूर हो गयी। वे उसको गोदमें लेनेके लिये लालायित हो उठे और उसके पास जा पहुँचे। पास पहुँचते ही उस शिशुके श्वाससे खिंचे हुए मुनि विवश होकर उसकी नासिकाके छिद्रसे उसीके उदरमें चले गये। मार्कण्डेयजीने शिशुके उदरमें पहुँचकर जो कुछ देखा उसका वर्णन नहीं हो सकता। वहाँ उन्होंने अनन्त ब्रह्माण्ड देखे। वहाँकी विचित्र सृष्टि देखी। सूर्य, चन्द्र, तारागण प्रभृति सब उन्हें दिखायी पड़े। उनको वहाँ समुद्र, नदी, सरोवर, वृक्ष, पर्वत आदिसहित पृथ्वी भी सभी प्राणियोंसे पूर्ण दिखायी पड़ी। Markandeya Rishi Ki Kahani

पृथ्वीपर घूमते हुए वे शिशुके उदरमें ही हिमालय पर्वतपर पहुँचे। वहाँ पुष्पभद्रा नदी और उसके तटपर अपना आश्रम भी उन्होंने देखा। यह सब देखनेमें उन्हें अनेक युग बीत गये। वे विस्मयसे चकित हो गये। उन्होंने नेत्र बंद कर लिये। इसी समय उस शिशुके श्वास लेनेसे श्वासके साथ वे फिर बाहर उसी प्रलयसमुद्रमें गिर पड़े। उन्हें वही गर्जन करता समुद्र, वही वट-वृक्ष और उसपर वही अद्भुत सौन्दर्यघन शिशु दिखलायी पड़ा। अब मुनिने उस बालकसे ही इस सब दृश्यका रहस्य पूछना चाहा। जैसे ही वे कुछ पूछनेको हुए, सहसा सब अदृश्य हो गया। मुनिने देखा कि वे तो अपने आश्रमके पास पुष्पभद्रा नदीके तटपर सन्ध्या करने वैसे ही बैठे हैं। वह शिशु, वह वटवृक्ष, वह प्रलयसमुद्र आदि कुछ भी वहाँ नहीं है। भगवान्की कृपा समझकर मुनिको बड़ा ही आनन्द हुआ। भगवान ने कृपा करके अपनी मायाका स्वरूप दिखलाया कि किस प्रकार उन सर्वेश्वरके भीतर ही समस्त ब्रह्माण्ड हैं, उन्हींसे सृष्टिका विस्तार होता है और फिर सृष्टि उनमें ही लय हो जाती है। इस कृपाका अनुभव करके मुनि मार्कण्डेय ध्यानस्थ हो गये। उनका चित्त दयामय भगवानमें निश्चल हो गया। Markandeya Rishi Ki Kahani

भगवान शिव पार्वती जी का दर्शन एवं वार्तालाप

इसी समय उधरसे नन्दीपर बैठे पार्वतीजीके साथ भगवान् शङ्कर निकले। मार्कण्डेयजीको ध्यानमें एकाग्र देख भगवती उमाने शङ्करजीसे कहा-‘नाथ! ये मुनि कितने तपस्वी हैं। ये कैसे ध्यानस्थ हैं। आप इनपर कृपा कीजिये, क्योंकि तपस्वियोंकी तपस्याका फल देनेमें आप समर्थ हैं। भगवान शंकर ने कहा–पार्वती!ये मार्कण्डेय जी भगवान के अनन्य भक्त हैं। ऐसे भगवान के भक्त कामनाहीन | होते हैं। उन्हें भगवान की प्रसन्नताके अतिरिक्त और कोई । इच्छा नहीं होती; किंतु ऐसे भगवद्भक्तका दर्शन तथा उनसे । वार्तालापका अवसर बड़े भाग्यसे मिलता है, अतः मैं इनसे । अवश्य बातचीत करूँगा। इतना कहकर भगवान् शङ्कर मुनिके समीप गये, किन्तु ध्यानस्थ मुनिको कुछ पता न लगा। वे तो भगवान्के ध्यानमें शरीर और संसारको भूल गये थे। शङ्करजीने योगबलसे उनके हृदयमें प्रवेश किया। हृदयमें त्रिनयन, कर्पूरगौर शङ्करजीका अकस्मात् दर्शन होनेसे मुनिका ध्यान भंग हो गया। नेत्र खोलनेपर भगवान् शङ्करको आया देख वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने पार्वतीजीके साथ शिवजीका पूजन किया। भक्तवत्सल भगवान् शङ्करने उनसे वरदान माँगनेको कहा। मुनिने प्रार्थना की-‘दयामय! आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे यही वरदान दें कि भगवान में मेरी अविचल भक्ति हो। आपमें मेरी स्थिर श्रद्धा रहे। भगवद्भक्तोंके प्रति मेरे मनमें अनुराग रहे। शङ्करजीने ‘एवमस्तु’ कहकर मुनिको कल्पान्ततक अमर रहने और पुराणाचार्य होनेका वरदान दिया। मार्कण्डेयपुराणके उपदेशक मार्कण्डेय मुनि ही हैं। Markandeya Rishi Ki Kahani

मार्कण्डेय जी अल्पायु से दीर्घायु कैसे हुए

मार्कण्डेयजीपर श्रीभगवान् शङ्करकी कृपा पहलेसे ही थी। पद्मपुराण उत्तरखण्डमें आया है कि इनके पिता मुनि मृकण्डुने अपनी पत्नीके साथ घोर तपस्या करके भगवान् शिवजीको प्रसन्न किया था और उन्हींके वरदानसे मार्कण्डेयको पुत्ररूपमें पाया था। भगवान् शङ्करने उसे सोलह वर्षकी ही आयु उस समय दी थी। अतः मार्कण्डेयकी आयुका सोलहवाँ वर्ष आरम्भ होनेपर मृकण्डु मुनिका हृदय शोकसे भर गया। पिताजीको उदास देखकर जब मार्कण्डेयने उदासीका कारण पूछा, तब मृकण्डुने कहा-‘बेटा! भगवान् शङ्करने तुम्हें सोलह वर्षकी ही आयु दी है; उसकी समाप्तिका समय समीप आ पहुँचा है, इसीसे मुझे शोक हो रहा है।’ इसपर मार्कण्डेयने कहा-‘पिताजी ! आप शोक न करें। मैं भगवान् शङ्करको प्रसन्न करके ऐसा यत्न करूँगा कि मेरी मृत्यु हो ही नहीं।’ तदनन्तर मातापिताकी आज्ञा लेकर मार्कण्डेयजी दक्षिण-समुद्रके तटपर चले गये और वहाँ विधिपूर्वक शिवलिङ्गकी स्थापना करके आराधना करने लगे। समयपर ‘काल’ आ पहुँचा। मार्कण्डेयजीने कालसे कहा-‘मैं शिवजीका मृत्युञ्जय स्तोत्रसे स्तवन कर रहा हूँ, इसे पूरा कर लूँ; तबतक तुम ठहर जाओ।’ कालने कहा-‘ऐसा नहीं हो सकता।’ तब मार्कण्डेयजीने भगवान् शङ्करके बलपर कालको फटकारा। कालने क्रोधमें भरकर ज्यों ही मार्कण्डेयको हठपूर्वक ग्रसना चाहा, त्यों ही स्वयं महादेवजी उसी लिङ्गसे प्रकट हो गये। हुंकार भरकर मेघके समान गर्जना करते हुए उन्होंने कालकी छातीमें लात मारी। मृत्यु-देवता उनके चरण-प्रहारसे पीड़ित होकर दूर जा पड़े। भयानक आकृतिवाले कालको दूर पड़े देख मार्कण्डेयजीने पुनः इसी स्तोत्रसे भगवान् शङ्करजीका स्तवन किया :– इस प्रकार शंकर जी की कृपा से मार्कंडेय जी ने मृत्यु पर विजय लाभ प्राप्त किया था। Markandeya Rishi Ki Kahani

 

मैं उम्मीद करता हूं दोस्तों की यह markandeya rishi ki kahani कथा आपको पसंद आई होगी अगर कथा पसंद आई है तो कृपया लाइक करें कमेंट करें और अपने प्रिय मित्रों में शेयर जरूर करें ऐसे ही और भी बहुत सारी कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दी हुई समरी पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। धन्यवाद!

 

1

14 पति के बराबर पत्नी की उम्र यह सुनने में अटपटा लग सकता है लेकिन जब मैल से असुर का जन्म हो सकता है और पसीने की बूंद से हनुमानजी को पुत्र प्राप्त हो सकता है तो ऐसा होना भी आश्चर्य की बात नहीं है। और जब यह बात स्वयं वह स्त्री कह रही हो कि उसके 14 पति होंगे फिर उसकी आयु समाप्त होगी तो बात और भी रोचक हो जाती है। इस रहस्य में आपको और ना उलझाते हुए आपको पुराणों की अनोखी कहानियों में ले चलते हैं और बताते हैं कि देवराज इंद्र और अप्सरा की उम्र कितनी होती है। अगले जन्म में इन्हें कौन सा शरीर प्राप्त होता है।

इस रहस्य से पर्दा तब उठा जब भगवान शिव के वरदान से उत्पन्न ऋषि मार्कण्डेय जिन्होंने महामृत्युंजय मंत्र की रचना की थी उनकी तपस्या से घबराए इंद्र ने अपनी अत्यंत रूपवती अप्सरा उर्वशी को उनके पास तपस्या भंग करने के लिए भेजा।

भगवान नारायण की जंघा से उत्पन्न अप्सरा उर्वशी को अपने रूप पर बहुत अहंकार था। वह ऋषि से कुछ दूरी पर आकर कामुक नृत्य करने लगी लेकिन इसका मार्कण्डेय ऋषि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जब उर्वशी ने अपने सारे प्रयास व्यर्थ होते देखा तो वह निर्वस्त्र होने लगी। अप्सरा के इस व्यहार पर ऋषि ने आंखें खोल दी और पूछा आप यह सब क्यों कर रही हैं। ऋषि के वचनों से अप्सरा लज्जित हो गई।

उर्वशी लज्जित भाव में जवाब देते हुए बोली कि ऋषि आप जीत गए मैं हार गई। मैंने आपकी तपस्या भंग करने के लिए बहुत कुछ किया फिर भी आपकी तपस्या भंग नहीं कर पाई। उर्वशी अपनी हार स्वीकारते हुए बोली- ऋषि आप सच्चे ब्रह्मज्ञानी हैं। उर्वशी ने बताया कि वह वर्तमान इंद्र की पटरानी हैं और हारकर स्वर्ग जाएंगी तो देवराज उनसे क्रोधित होंगे और उनका अनादर करेंगे।

ऋषि ने शांत भाव से पूछ कि आप अभी इंद्राणी हैं और इंद्र की मृत्यु हो जाए तो फिर आपका क्या होगा, फिर आपके सम्मान का क्या होगा? अप्सरा ने बताया कि इंद्र का पद कभी रिक्त नहीं रहता है एक इंद्र के जाने के बाद दूसरे इंद्र उस गद्दी पर आ जाते हैं। एक इंद्राणी की आयु उतनी होती है जितने 14 इंद्र की होती है। इंद्राणी का पुण्य इंद्र से अधिक होता इसलिए वह इंद्र से अधिक समय तक स्वर्ग में रहती हैं और 14 इंद्र के साथ स्वर्ग का सुख प्राप्त करती है।

ऋषि ने पूछा कि स्वर्ग से निकाले जाने के बाद इंद्र का क्या होता है। इसका जवाब देते हुए अप्सरा ने बताया पुण्य का नाश होने पर इंद्र स्वर्ग से मृत्युलोक में वापस आ जाते हैं और उन्हें गधा का जन्म मिलता है। इंद्राणी भी पुण्य क्षय होने पर मृत्यु लोक में आ जाती है और अपने 14 पतियों के साथ रहती है।

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जिस धरती पर हम चार युगों से रह रहे हैं, वह एक शैतान का लोक है । वह शैतान जिसे ज्योति निरंजन या ब्रह्म-काल भी कहा जाता है। यह शैतान / ज्योति निरंजन / काल इस क्षेत्र का राजा है और इसने हमें अपनी पत्नी दुर्गा/ माया/ अष्टंगी/ प्रकृति देवी सहित सभी निर्दोष आत्माओं को अपने वश में कर सबको धोखा दे रखा है। ब्रह्म-काल ने सभी प्राणियों को कर्म-भ्रम और पाप-पुण्य के जाल में फँसाकर तीनों लोकों के पिंजरे में कैद कर रखा है जिस कारण आत्मा जन्म- मरण और पुनर्जन्म के दुष्चक्र में हमेशा फंसी रहती है।  ब्रह्म-काल के इस शापित संसार में सुख का नामो-निशान भी नहीं है क्योंकि यहां काल ने प्रत्येक व्यक्ति में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, मान-सम्मान, सुख-दुःख, प्रेम-घृणा आदि अनेकों विकार भर दिए हैं।

सतमार्ग से भटके हुए भोले भाले लोग शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए तथा दुखों व दोषों से छुटकारा पाने के लिए विभिन्न धार्मिक क्रियाएं करते हैं लेकिन पूजा करने का सही आध्यात्मिक मार्ग नहीं प्राप्त कर पाते। पहले के समय में ऋषि-मुनि धार्मिक कर्म यानि ध्यान (हठ योग) किया करते थे जिस के माध्यम से वे विभिन्न सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते थे लेकिन शाश्वत स्थान सतलोक यानी मोक्षमय स्थल को प्राप्त नहीं कर पाए क्योंकि वे पूजा के मनमाने तरीकों का अनुसरण कर रहे थे । पुराणों जैसी प्राचीन पुस्तकों में विभिन्न लोककथाओं और दंतकथाओं का उल्लेख किया गया है।

इस लेख का मुख्य उद्वेश्य मार्कंडेय पुराण नामक एक प्रसिद्ध पुराण में से मनमानी और शास्त्र विरुद्ध धार्मिक प्रथाओं के बारे में व्याख्या करना है जो पहले ऋषियों, मुनियों, देवताओं और हमारे पूर्वजों द्वारा किए जा रहे थे, जिससे उन्हें कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं मिल सका; बल्कि वे जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में बने रहे। ना ही उनके विकार भंग हो सके बल्कि वे शैतान / ब्रह्म-काल के जाल में ही फंसे रहे। यहां आपको बताएंगे कि;

  • पुराण क्या हैं?
  • मार्कंडेय पुराण क्या है और इसके लेखक कौन हैं?
  • मार्कंडेय ऋषि कौन हैं?
  • मार्कंडेय पुराण में समझाया गया ब्रह्म-काल का जाल क्या है?

तो आइए सबसे पहले यह जानते हैं कि पुराण क्या हैं?

पुराण क्या हैं?

पुराण दंतकथाओं, मिथकों, पारंपरिक विद्या से संबंधित तथ्यों को दर्शाने वाले हिंदू ग्रंथ हैं। हालांकि पुराण मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में लिखे गए थे, लेकिन वर्तमान में पुराण कई अन्य भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध हैं। पुराण मुख्यतः साधु, संतों, ऋषि और मुनियों के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित सच्ची कहानियों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। 18 पुराणों में मार्कंडेय पुराण हिंदू भक्तों के बीच एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

आइए मार्कंडेय पुराण की सच्ची कहानियों की जांच करें और ब्रह्म-काल के जाल को समझें।  

आरंभ करने से पहले यह समझना अति आवश्यक है की मार्कंडेय पुराण क्या है?

मार्कंडेय पुराण क्या है और इसके लेखक कौन हैं?

मार्कंडेय पुराण हिंदू धर्म का एक संस्कृत ग्रंथ है जिसका नाम मार्कंडेय ऋषि के नाम पर रखा गया है।  यह सबसे पुराने पुराणों में से एक है जिसमें धर्म-कर्म, संसार और श्राद्ध पर 137 अध्याय हैं।  मार्कंडेय पुराण में पौराणिक कथाओं, धर्म, समाज आदि सहित विविध विषयों को प्रस्तुत करने वाले 9000 श्लोक हैं। ऐसा माना जाता है कि मार्कंडेय पुराण का सबसे पहला संस्करण नर्मदा नदी के पास ऋषि मार्कंडेय द्वारा रचा गया था जो विध्यांचल पर्वत शृंखला और पश्चिमी भारत के बारे में बहुत कुछ बताता है। मार्कंडेय पुराण भारत के पूर्वी भाग जैसे उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में विशेष रूप से लोकप्रिय है।

एक पौराणिक मान्यता यह है कि मार्कंडेय पुराण के लेखक स्वयं ब्रह्मा जी हैं क्योंकि यह भगवान ब्रह्मा के मुख से बोला गया है।

मार्कंडेय ऋषि कौन हैं?

भगवान ब्रह्मा के शिष्य, मार्कंडेय ऋषि हिंदू परंपरा से हैं, जो ऋषि भृगु के वंश में पैदा हुए थे।  ऋषि मार्कंडेय ने बलपूर्वक धार्मिक अभ्यास (हठ योग) करके सिद्धियाँ प्राप्त कीं और ब्रह्म-काल तक पूजा की।  ध्यान करते हुए उनकी एकाग्रता ब्रह्मलोक (जिसे महास्वर्ग भी कहा जाता है) तक पहुँच जाती थी।  मार्कंडेय ऋषि अपनी उपासना को श्रेष्ठ मानते थे लेकिन सच तो यह था कि शास्त्र अनुकूल साधना ना होने के कारण उन्हें काल के जाल से मुक्ति नहीं मिल सकी।

आइए आगे बढ़ते हुए सच्ची कहानियों के आधार पर यह समझने की कोशिश करें कि वास्तव में काल का जाल क्या है और किस प्रकार निर्दोष आत्माएँ इस काल के जाल में फंसी रहती हैं।

मार्कंडेय पुराण में समझाया गया ब्रह्म-काल का जाल?

मार्कंडेय पुराण का कुछ अंश

मार्कंडेय पुराण में वर्णित तीन सच्चे अनुभव उन गलत धार्मिक प्रथाओं पर प्रकाश डालेंगे जिनका पालन पहले ऋषियों और हमारे पूर्वजों द्वारा किया जाता था, जिसके कारण जन्म-मृत्यु और पुनर्जन्म की बीमारी समाप्त नहीं हुई और देवता, ऋषि, संत, राजा आदि और इनका अनुसरण करने वाले लोग भी सभी पुनरावृत्ति में रहे।  आइए समीक्षा करते हैंः

  • स्वर्ग के राजा यानी भगवान इंद्र की सच्ची कहानी जो मृत्यु के बाद गधा बनते हैं
  • श्राद्ध करने के संबंध में अपने पुत्र के साथ मंडलसा का संवाद
  • मृत पूर्वजों की पूजा के संबंध में ऋषि रुचि की सच्ची कहानी

स्वर्ग का राजा यानी भगवान इंद्र मृत्यु के बाद गधा बनता है

एक बार की बात है ऋषि मार्कंडेय भगवान को निराकार मानकर बंगाल की खाड़ी में बहुत लंबे समय तक ब्रह्म-काल का तप कर रहे थे।  स्वर्ग में भगवान इंद्र के रूप में विराजमान आत्मा को हमेशा यह डर रहता है कि 72 चतुर्युग के अपने कार्यकाल के दौरान यदि पृथ्वी पर कोई भी मनुष्य (साधक) तपस्या करता है और अपनी धार्मिक गतिविधियों में कोई गड़बड़ी किए बिना धार्मिक उपलब्धियां हासिल करता है तो वह साधक भगवान इंद्र की पदवी प्राप्त करने के योग्य हो जाता है।  चूँकि स्वर्ग के राजा का पद घोर तपस्या से प्राप्त होता है। वह सफल साधक भगवान इंद्र के रूप में विराजमान हो जाता है और वर्तमान भगवान इंद्र का पद छीन लिया जाता है।  इसलिए, जहां तक ​​संभव हो, भगवान इंद्र अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी साधक के तप या धार्मिक बलिदान को पूर्ण नहीं होने देते हैं और साधक की तपस्या को भंग कर देते हैं, चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े।

जब भगवान इंद्र के दूतों ने उन्हें बताया कि ऋषि मार्कंडेय बंगाल की खाड़ी में तप कर रहे हैं, तो उन्होंने ऋषि मार्कंडेय के तप को भंग करने के लिए, अपनी सबसे अधिक खूबसूरत , युवा और अत्यंत आकर्षक पत्नी अप्सरा उर्वशी को पृथ्वी लोक पर भेजा।  उर्वशी को स्वर्ग की सभी अप्सराओं में सबसे सुंदर अप्सरा माना जाता है।

विभिन्न आभूषणों से युक्त और संपूर्ण श्रृंगार किए हुए, अप्सरा उर्वशी ऋषि मार्कंडेय के सामने नृत्य करने लगी।  उसने अपनी सिद्धियों से आसपास के वातावरण को बसंत के मौसम के समान बना दिया।  लेकिन मार्कंडेय ऋषि ने फिर भी उस अप्सरा पर कोई ध्यान नहीं दिया। उर्वशी जब सभी क्रियाएं करके थक गई और उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा तो अंत में उसने अपनी कमर का फीता खोलकर नग्न हो गई।

तब ऋषि मार्कंडेय ने कहा 'हे पुत्री, हे बहन, हे माता!  तुम क्या कर रही हो?  तुम इस घने जंगल में अकेले क्यों आई हो?' यह सुनकर उर्वशी अत्यंत शर्मिंदा हुई और उसने उत्तर दिया हे ऋषि! 'मेरी सुंदरता को देखकर इस घने जंगल में सभी साधकों ने अपना संयम खो दिया है लेकिन आप का ध्यान भंग नहीं हो रहा है।  मुझे नहीं पता आपका ध्यान कहाँ लगा था? कृपया मेरे साथ इन्द्रलोक आएं अन्यथा; सब मेरा मजाक बनाएंगे कि मैं हार कर वापस लौटी हूं।

मार्कंडेय ऋषि ने कहा 'मेरी एकाग्रता ब्रह्मलोक में थी जहाँ मैं उन दिव्य युवतियों का नृत्य देख रहा था जो इतनी सुंदर हैं कि उनके पास आपके जैसी 7-7 नौकरानियां हैं।  फिर, मैं तुम पर कैसे मोहित हो सकता हूँ?  अगर कोई आपसे ज्यादा आकर्षक है, तो कृपया उसे भेजें'। तब देवपरी ने कहा, 'मैं महारानी उर्वशी हूं, इंद्र की पत्नी।  मुझसे ज्यादा खूबसूरत कोई और महिला नहीं है'।

ऋषि मार्कंडेय ने पूछा, 'चूंकि कुछ भी अविनाशी नहीं है जब भगवान इंद्र की मृत्यु हो जाएगी तो आप क्या करोगी?' उर्वशी ने उत्तर दिया 'मैं चौदह इंद्र भोगूंगी।'

नोट: भगवान इंद्र की महारानी की उम्र =72 चतुर्युग *14=1008 चतुर्युग यानी भगवान ब्रह्मा के एक दिन (कल्प) के बराबर ।

 ब्रह्मा जी का एक दिन 1008 चतुर्युग है

 एक चतुर्युग=सतयुग+त्रेतायुग+द्वापरयुग+कलयुग अर्थात कुल 43.20 लाख वर्ष।

भगवान इंद्र की आयु 72 चतुर्युग है।  इन वर्षों के लिए शासन पूरा करने के बाद इंद्र की मृत्यु हो जाती है और एक अन्य योग्य आत्मा स्वर्ग के राजा का पद पा लेती है।  ऐसे 14 इंद्र एक महारानी उर्वशी के पति बनते हैं।

यह दर्शाता है, भगवान इंद्र की रानी की आत्मा यानी उर्वशी ने किसी मानव जन्म में इतने शुभ कर्म किए होंगे कि वह इतनी लंबी अवधि के लिए स्वर्ग में विलासिता का आनंद लेती है और स्वर्ग के 14 राजाओं के साथ सहवास का आनंद लेती है।

तब ऋषि मार्कंडेय ने कहा 'वे 14 इंद्र भी मरेंगे, तो आप क्या करोगी?' अप्सरा उर्वशी ने उत्तर दिया 'मैं मृत्यु के बाद गधी बनूंगा और पृथ्वी पर जीवन बिताऊंगी, ऐसा ही उन सभी 14 इंद्रों के साथ होगा।  वे पृथ्वी पर गधे का जीवन प्राप्त करेंगे'।

मार्कंडेय ऋषि ने कहा 'तो फिर तुम मुझे ऐसे लोक में क्यों ले जा रही हो, जिसका राजा मृत्यु के बाद गधा बन जाता है और रानी गधी का जीवन प्राप्त करती है?'

उर्वशी ने जवाब दिया अपने सम्मान की रक्षा के लिए, नहीं तो सब लोग मुझे ताने देंगे'।  मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि गधियों की कैसी इज्जत ? तू वर्तमान में भी गधी है क्योंकि तू चौदह खसम (वर) करेगी और मृत्यु उपरांत तू स्वयं स्वीकार रही है कि मैं गधी बनूंगी । उर्वशी परेशान होकर वहां से लौट गई।

विधानानुसार अपना इन्द्र का राज्य, मार्कण्डेय ऋषि को देने के लिए वहीं पर इन्द्र आ गया और कहा कि ऋषि जी हम हारे और आप जीते । कृपया इंद्र की पदवी स्वीकार करें।  मार्कंडेय ऋषि ने कहा इंद्र!  मेरे लिए इंद्र की उपाधि किसी काम की नहीं है।  मेरे लिए, यह एक कौवे की बीट के समान है'।

ऋषि मार्कंडेय ने भगवान इंद्र से कहा कि 'जैसा  मैं तुमसे कहता हूं, तुम पूजा करो, मैं तुम्हें 'ब्रह्मलोक' (जिसे महास्वर्ग भी कहा जाता है) ले जाऊंगा।  वहाँ तुम्हारे जैसे करोड़ों इन्द्र हैं;  जिन्होंने मेरे पैर छुए हैं।  तुम ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पूजा छोड़कर ब्रह्म-काल की पूजा करो।  ब्रह्मलोक में साधक को युगों (कल्प) से मुक्ति मिलती है।  स्वर्ग के राजा के इस सिंहासन को छोड़ दो'।

परंतु भगवान इंद्र ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि 'ऋषि जी मुझे अभी सुखों का आनंद लेने दो, मैं बाद में देखूंगा'।

ऋषि मार्कंडेय ब्रह्म की तपस्या में थे और उसे श्रेष्ठ मान रहे थे।  इसलिए उन्होंने इंद्र से कहा कि 'मैं तुम्हें ब्रह्म की पूजा बताऊंगा'।  ब्रह्मलोक की तुलना में स्वर्ग के सुख बहुत कम हैं, एक कौवे की बीट के समान।

नोट: गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में पवित्र गीता का ज्ञान दाता ब्रह्म-काल कहता है कि उसकी उपासना भी  अनुत्तम  है।  महर्षि मार्कंडेय जी उस स्तर की भक्ति को ही श्रेष्ठ समझकर कर रहे थे और इन्द्र को भी वह पूजा करने की सलाह दे रहे थे।

विचार करने योग्य 

  1. इन्द्र को पता है कि मत्यु के उपरांत उसे गधे का जीवन मिलेगा , फिर भी वह उस क्षणिक सुख को त्यागना नहीं चाहता । उसने कहा कि फिर कभी देखूंगा । फिर कब देखेगा ? गधा बनने के पश्चात तो कुम्हार देखेगा । कितना वज़न गधे की कमर पर रखना है ? कहाँ डण्डा मारना है ? 
  2. ठीक इसी प्रकार इस पृथ्वी पर कोई छोटे से टुकड़े का प्रधानमंत्री , मंत्री, मुख्यमंत्री या राज्य में मंत्री बना है या किसी पद पर सरकारी अधिकारी या कर्मचारी बना है या धनी है। उसको कहा जाता है कि आप भक्ति करो नहीं तो गधे बनोगे । वे या तो नाराज़ हो जाते हैं कि क्यों बनेंगे गधे ? फिर से मत कहना । कुछ सभ्य होते हैं , वे कहते हैं कि किसने देखा है , गधे बनते हैं ? फिर उनको बताया जाता है कि सब संत तथा ग्रन्थ बताते हैं कि भक्ति नहीं करोगे तो गधे बनागे। तो अधिकतर कहते हैं कि देखा जाएगा । उनसे निवेदन है कि मृत्यु के पश्चात् गधा बनने के बाद आप क्या देखोगे , फिर तो कुम्हार देखेगा कि आप जी के साथ कैसा बर्ताव करना है ? देखना है तो वर्तमान में देखो ।
  3. इसी तरह, जो शराब पीते हैं, वे छोड़ना नहीं चाहते क्योंकि वे उस गतिविधि में आनंद लेते हैं।

वास्तविकता यह है कि इसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद मरेंगे और 84 लाख योनियों में जाएंगे।  ब्रह्म-काल तथा प्रकृति देवी के संयोग से (अष्टंगी) नई योग्य महान आत्माओं का जन्म होगा।  तब उन्हें तीन लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल लोक) का दायित्व प्रदान किया जाएगा। रजगुण-ब्रह्मा सृष्टि रचना करते हैं, सतगुण-विष्णु पालत करते हैं और तमगुण-शिव संहार करते हैं

इसका प्रमाण गीता प्रेस गोरखपुर, गोविंद भवन कार्यालय, कोलकाता का संस्थान, द्वारा प्रकाशित और प्रिंटर संचित मार्कंडेय पुराण में पृष्ठ 123 प्रदान किया गया है।

 मार्कंडे जी ने कहा "रजोगुण प्रधान ब्रह्मा,  तमोगुण प्रधान रुद्र (शिव) और सतोगुण प्रधान विष्णु इस दुनिया के पालनकर्ता हैं।  ये तीन देवता और तीन गुण (गुण) हैं"।

चूँकि ब्रह्म-काल को प्रतिदिन एक लाख मानवधारी सूक्ष्म शरीरों का मैल खाने का श्राप लगा हुआ है; इसीलिए उसके तीन पुत्रों को उसके लिए भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती है और जन्म और पुनर्जन्म की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।

महान संत गरीबदास जी कहते हैं: 

गरीब, एति उमर बुलंद मरेगा अंत रे |सतगुरु लगे ना कान ना भेंटे संत रे ||

उपरोक्त वाणी सिद्ध करती है कि क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष के क्षेत्र में सभी प्राणियों की आयु कितनी ही लंबी क्यों न हो लेकिन एक दिन अंत अवश्य होता है। उस लोक के भगवान सहित प्रत्येक प्राणी की मृत्यु निश्चित रूप से होगी।

आदरणीय संत गरीबदास जी कहते हैं: 

असंख जन्म तोहे मरतां होगे, जीवित क्यों न मरे रे। 
द्वादश मध्य महल मठ बोरे, बहुर न देह धरै रे।।

संत गरीबदास जी समझाते हैं कि आत्माओं, तुम सब काल के लोक में लाखों युगों से अत्याचार सह रहे हो। तुम जीवित क्यों नहीं मर  जाते। समस्त बुराइयों का परित्याग कर उस पूर्ण परमात्मा-सतपुरुष की शास्त्र आधारित पूजा करो, सतलोक (सचखंड) को प्राप्त करो और शाश्वत शांति का आनंद लो। 

सतलोक वह अमर धाम है जहां न तो मृत्यु है और ना ही बुढ़ापा। युगों से आत्माओं को ज्ञान नही था क्योंकि उन्हें एक तत्वदर्शी संत नहीं मिला था जो उन्हें सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते और सच्ची पूजा की विधि बताता जिससे जन्म और पुनर्जन्म की बीमारी हमेशा के लिए खत्म हो जाती है। 

तत्वदर्शी संत सतनाम और सारनाम दीक्षा में देते हैं जिससे आत्माएं अमर परमात्मा अर्थात परम अक्षर ब्रह्म को प्राप्त करती हैं जिसका अर्थ है उनका मोक्ष प्राप्त हो जाता है। सतलोक के सुखों की तुलना में स्वर्ग का सिंहासन कौवे की बीट की तरह बेकार है। 

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 25-29 में कहा गया है कि साधक जो भी पूजा करते हैं, उसे श्रेष्ठ और बुराइयों का नाश करने वाला मानकर करते हैं। 

गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में कहा गया है की सच्चिदानंदघन ब्रह्म ने अपने अमृत भाषण (वाणी) में  'यज्ञों का ज्ञान अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तार से वर्णन किया है। वही सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान है। जिसे जानकर साधक को समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है।

सच्चिदानंदघन ब्रह्म वाणी अर्थात सूक्ष्म वेद (पांचवा वेद) में कहा गया है किः

औरों पंथ बतावहीं, आप न जाने राह

मोती मुक्ता दर्शत नाहीं, यह जग है सब अन्ध रे
दिखत के तो नैन चिसम हैं, फिरा मोतिया बिंद रे

वेद पढ़ें पर भेद ना जानें, बांचे पुराण अठारा
पत्थर की पूजा करें, भूले सिरजनहारा।

पहले समय में साधु, ऋषि, महर्षि, संत, आचार्य, शंकराचार्य पूजा की विधि बताते थे लेकिन वे स्वयं सतभक्ति मार्ग से अनभिज्ञ थे। वे बुद्धिमान प्रतीत होते थे क्योंकि वे संस्कृत भाषा के अच्छे जानकार थे लेकिन उनका आध्यात्मिक ज्ञान शून्य था। सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान (तत्वज्ञान) की कमी के कारण पूरी दुनिया पूजा के सतमार्ग से अनजान है। वे पवित्र ग्रंथ पढ़ते ज़रूर हैं, वेदों को कंठस्थ भी कर लेते हैं लेकिन उनमें छिपे हुए आध्यात्मिक तथ्यों से अनभिज्ञ रहते हैं। सभी शास्त्रों के विरुद्ध पूजा करते हैं। वेद में मूर्ति पूजा का कहीं उल्लेख नहीं है। सृष्टि के पालन-पोषण करने वाले असली परमपिता सृष्टि के रचयिता की उपासना को सब भूल गए हैं, जिसकी उपासना का प्रमाण वेद तथा सभी ग्रंथ देते हैं।   

गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा गया है कि, 'उस तत्वदर्शी संत से उस सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान को समझ, उन्हें प्रणाम करने और विनम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वह तत्वदर्शी संत तुम्हें संपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करेंगे। उस आध्यात्मिक ज्ञान से वंचित सभी साधक जन्म और पुनर्जन्म के चक्र में फंसे रहते हैं।

यहां यह बताना अति महत्वपूर्ण है कि ऋषि मार्कंडेय ब्रह्म-काल के ध्यान में रहते थे। 

श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा गया है कि 'ब्रह्मलोक को प्राप्त करने वाले साधकों की पुनरावृत्ति होती है'। भगवान इंद्र (स्वर्ग के राजा) या भगवान कुबेर (धन के देवता) की स्थिति प्राप्त करने के बाद या ब्रह्मा, विष्णु और शिव या भगवान वरुण (जल के देवता), धर्मराय, आदि का पद प्राप्त करने के बाद भी और यहां तक ​​​​कि स्वर्ग या ब्रह्मलोक में कोई देवता बनने के बाद भी सभी प्राणियों की पुनरावृत्ति होती है।

नोट: स्वर्ग लोक में 33 करोड़ देव पद हैं । जैसे भारत वर्ष की संसद में 540 सांसदों के पद हैं । व्यक्ति बदलते रहते हैं । उन्हीं सांसदों में से प्रधानमंत्री तथा अन्य केंद्रीय मंत्री आदि बनते हैं । इसी प्रकार उन 33 करोड़ देवताओं में से ही कुबेर का पद अर्थात् धन के देवता का पद प्राप्त होता है जैसे वित्त मंत्री होता है । ईश की पदवी का अर्थ है प्रभु पद जो कुल तीन माने गए हैं : - 1. श्री ब्रह्मा जी 2. श्री विष्णु जी तथा 3. श्री शिव जी । वरूणदेव जल का देवता है । धर्मराय मुख्य न्यायधीश है जो सब जीवों को कर्मों का फल देता है , उसे धर्मराज भी कहते हैं । ये सर्व काल ब्रह्म की साधना करके पद प्राप्त करते हैं । पुण्य क्षीण होने के पश्चात् पद से मुक्त होकर पशु - पक्षियों आदि की 84 लाख प्रकार की योनियों में चले जाते हैं । फिर नए ब्रह्मा जी , नए विष्णु जी तथा नए शिव जी इन पदों पर विराजमान होते हैं । उपरोक्त सर्व देवता जन्मते - मरते रहते हैं । ये अविनाशी नहीं हैं सतपुरुष की सच्ची उपासना से ही जन्म और पुनर्जन्म का रोग समाप्त होता है।

इसका प्रमाण पवित्र कबीर सागर- का सरलार्थ में कथा- मार्कंडेय ऋषि तथा अप्सरा संवाद पृष्ठ नं. 379-386 में वर्णित है और 

 श्री मद पुराण के सचित्र मोटा टाइप के हिन्दी ,गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित के तीसरे स्कंद के पृष्ठ 123 में भी बताया गया है तथा श्री मद् भगवत गीता अध्याय 10 श्लोक 2, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 14 श्लोक 3, 4 और 5 में भी दिए  गए हैं।

आइए जानें श्राद्ध की अवधारणा कहाँ से ली गई है। संक्षिप्त मार्कंडेय पुराण पेज नं 81 से कुछ झलक देखेंः

श्राद्ध करने के लिए अपने पुत्र के साथ मंडलसा का संवाद

मंडलसा नाम की एक महिला थी और उसने अपने बेटे को श्राद्ध करने की शिक्षा दी। आइए पढ़ते हैं मां और बेटे के बीच हुई चर्चा। मंडलसा ने कहा महाराज! जो पितर देवलोक में हैं, जो तिर्यग्योनि में पड़े हैं, जो मनुष्य योनि में एवं भूतवर्ग में अर्थात् प्रेत बने हैं, वे पुण्यात्मा हों या पापात्मा जब भूख-प्यास विकल (तड़फते) होते हैं तो उन्हें पिण्डदान तथा जलदान द्वारा तृप्त किया जाता है। मनुष्य अपने कर्मों से उन्हें पिंड और जल चढ़ाकर तृप्त करता है।  इस प्रकार वह देवताओं और अतिथियों को तृप्त रखता है।  देवता, मनुष्य, पितृ, भूत, प्रेत, गुहाक, पक्षी, कीड़े-मकोड़े आदि भी मनुष्य से अपना भरण-पोषण करते हैं।

विचार करने योग्य: क्या वे देवलोक में होकर भूख या प्यास से मर सकते हैं?

इसके अतिरिक्त  मार्कंडेय पुराण के पृष्ठ नं. 92 पर उल्लेख किया गया है कि नरक में रहने वाले, पशु-पक्षियों के योनि में रहने वाले , भूत-प्रेत आदि जीवों में रहने वाले, उन सभी का विधिपूर्वक श्राद्ध करने से उनकी तृप्ति होती है। मनुष्य पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरते हैं (श्राद्ध कर्म करते समय) उससे पिशाच योनि में पड़े पितरों की तृप्ति होती है। स्नान के वस्त्र से जो जल पृथ्वी पर टपकता है, उससे वृक्ष योनि में पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं। नहाने पर अपने शरीर से जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं उनसे उन पितरों की तृप्ति होती है जो देव भाव को प्राप्त हुए हैं। पिण्डों के उठाने पर जो अन्न के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे पशु-पक्षी की योनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है। 

विचार करने योग्य : क्या वे सच में वहां देवता बने थे जिनकी तृप्ति इस जल से होगी?

आगे मंडलसा कहती हैं, 'एक परिवार में, जो बच्चा श्राद्ध के लिए योग्य होने के बाद भी रहित रह जाता है, अर्थात बचपन में मर जाता है और श्राद्ध नहीं कर पाता, तो उसे बिखरे हुए अनाज और बचा हुआ पानी मिलता है।  भोजन के बाद ब्राह्मण हाथ-मुंह धोते हैं और पैर धोते हैं, जिससे उस जल से भी कई पूर्वजों को सिद्धि मिलती है।  बेटा!  श्रेष्ठ विधि से श्राद्ध करने से उन पुरुषों और अन्य पूर्वजों, जिन्होंने अन्य योनियों को प्राप्त किया है, उन्हें भी श्राद्ध से बहुत संतुष्टि मिलती है।  अधर्म की कमाई से जो श्राद्ध किए जाते हैं;  इससे चांडाल के जीवन रूपों में पितरों की पूर्ति होती है।

महत्वपूर्ण- उपरोक्त तथ्य सिद्ध करता है कि ये लोककथाएँ हैं और किसी भी पवित्र शास्त्र में इसका कोई प्रमाण नहीं है।  श्राद्ध करना पूजा का एक मनमाना तरीका है, इसलिए यह क्रिया करना व्यर्थ है और इसे तुरंत छोड़ देना चाहिए।

आइए आगे बढ़ते हुए, श्राद्ध यानी मृत पूर्वजों की पूजा के संबंध में ऋषि रुचि की सच्ची कहानी का अध्य्यन करें जो हमारे विश्वास को और अधिक मज़बूत करेगी कि हमारे पूर्वज मनमाने ढंग से पूजा करने के कारण भूत और पितृ योनि में कष्ट उठा रहे हैं और जन्म मरण के चक्र में बने हुए हैं तथा ब्रह्म-काल के जाल में फंसे रहते हैं।

मृत पूर्वजों की पूजा के संबंध में ऋषि रुचि की सच्ची कहानी

गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित मार्कंडेय पुराण के पृष्ठ नं. 237, जिसमें मार्कण्डेय पुराण और ब्रह्म पुराण को एक साथ बांधा गया है, रुचि ऋषि की अपने मृत पूर्वजों के साथ संस्कारों की चर्चा।

एक रूची नाम का साधक ब्रह्मचारी रह कर वेदों अनुसार साधना कर रहा था। जब वह 40 (चालीस) वर्ष का हुआ तब उस को अपने चार पूर्वज जो शास्त्रविरुद्ध साधना करके पितर बने हुए थे तथा कष्ट भोग रहे थे, दिखाई दिए। “पितरों ने कहा कि बेटा रूची शादी करवा कर हमारे श्राद्ध निकाल, हम तो दुःखी हो रहे हैं। रूची ऋषि ने कहा पित्रामहो वेद में कर्म काण्ड मार्ग (श्राद्ध, पिण्ड भरवाना आदि) को मूर्खों की साधना कहा है। फिर आप मुझे क्यों उस गलत (शास्त्र विधि रहित) साधना पर लगा रहे हो। पितर बोले बेटा यह बात तो तेरी सत्य है कि वेद में पितर पूजा, भूत पूजा, देवी-देवताओं की पूजा (कर्म काण्ड) को अविद्या ही कहा है इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है।” इसी उपरोक्त मार्कण्डेय पुराण में इसी लेख में पितरों ने कहा कि फिर पितर कुछ तो लाभ देते हैं।

विशेष:- यह अपनी अटकलें पितरों ने लगाई है, वह हमने नहीं पालन करना, क्योंकि पुराणों में आदेश किसी ऋषि विशेष का है जो पितर पूजने, भूत या अन्य देव पूजने को कहा है। परन्तु वेदों में प्रमाण न होने के कारण प्रभु का आदेश नहीं है। इसलिए किसी संत या ऋषि के कहने से प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन करने से सजा के भागी होंगे।

एक समय एक व्यक्ति की दोस्ती एक पुलिस थानेदार से हो गई। उस व्यक्ति ने अपने दोस्त थानेदार से कहा कि मेरा पड़ोसी मुझे बहुत परेशान करता है। थानेदार (S.H.O.) ने कहा कि मार लट्ठ, मैं आप निपट लूंगा। थानेदार दोस्त की आज्ञा का पालन करके उस व्यक्ति ने अपने पड़ोसी को लट्ठ मारा, सिर में चोट लगने के कारण पड़ोसी की मृत्यु हो गई। उसी क्षेत्र का अधिकारी होने के कारण वह थाना प्रभारी अपने दोस्त को पकड़ कर लाया, कैद में डाल दिया तथा उस व्यक्ति को मृत्यु दण्ड मिला। 

उसका दोस्त थानेदार कुछ मदद नहीं कर सका। क्योंकि राजा का संविधान है कि यदि कोई किसी की हत्या करेगा तो उसे मृत्यु दण्ड प्राप्त होगा। उस नादान व्यक्ति ने अपने दोस्त दरोगा की आज्ञा मान कर राजा का संविधान भंग कर दिया। जिससे जीवन से हाथ धो बैठा। ठीक इसी प्रकार पवित्र गीता जी व पवित्र वेद यह प्रभु का संविधान हैं। जिसमें केवल एक पूर्ण परमात्मा की पूजा का ही विधान है, अन्य देवताओं - पितरों - भूतों की पूजा करना मना है। पुराणों में ऋषियों (थानेदारों) का आदेश है। जिनकी आज्ञा पालन करने से प्रभु का संविधान भंग होने के कारण कष्ट पर कष्ट उठाना पड़ेगा। इसलिए आन उपासना पूर्ण मोक्ष में बाधक है।

संत गरीबदास जी कहते हैं की:

गरीब, भूत रमै सो भूत हैं , देव रमै सो देव ||
राम रमै सो राम है , सुनो सकल सुर भेव ||

श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 9 श्लोक 25, अध्याय 7 श्लोक 12-15 और 20-23, अध्याय 16 श्लोक 23-24 में भी इस बात का प्रमाण है कि जो लोग श्राद्ध (पित्रों/मृतक पूर्वजों की पूजा) करते हैं वे पितृ और भूत बन जाते हैं।  उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है।

निष्कर्ष

ऋषि-महर्षियों (ऋषि-महान ऋषियों) ने वेदों में 'ओम' नाम को ईश्वर प्राप्त करने का मोक्षदायक मंत्र जान कर भगवान को प्राप्त करने के लिए 'ओम' नाम का जाप व तप जैसी धार्मिक साधना की, लेकिन 'ब्रह्म' को नहीं देख सके।  

इसी प्रकार, कुछ उपासक बलपूर्वक ध्यान (हठ योग) द्वारा शरीर के भीतर एकाग्र होकर, कुछ आतिशबाजी देखकर या कुछ धुनों को सुनकर इसे ईश्वर की प्राप्ति मानने लगे।  दरअसल, वह सब ब्रह्म-काल की चाल थी।  काल के जाल को आनंद मानकर वे अपने अनमोल जीवन को बर्बाद करते रहे।

विभिन्न प्रकार की भक्ति और सतभक्ति में बहुत अंतर है।  किसी भी देवी-देवता की उपासना से उसका फल अवश्य मिलता है, जो नाशवान होता है, लेकिन आत्मा को मुक्ति नहीं मिल सकती और पाप कर्मों का भी अंत नहीं होता, उसे भोगने  के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है । जबकि सतभक्ति करने से पापों का नाश, जन्म मरण से सदा के लिए मुक्ति और अमरलोक की प्राप्ति होती है।

उपरोक्त तथ्य सिद्ध करते हैंः 

  • सभी देवता, भगवान इंद्र, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, आदि जन्म लेते हैं और मर जाते हैं।  वे शाश्वत नहीं हैं।  अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद प्रत्येक जीवात्मा 84 लाख योनियों  में कष्ट उठाते हैं।
  • पहले के ऋषि और हमारे पूर्वज पूजा के सच्चे तरीके यानी सत भक्ति से अनभिज्ञ थे, इसलिए हठयोग किया और ब्रह्म-काल के जाल में फंसे रहे।
  • शास्त्र विरुद्ध पूजा करने के कारण हमारे पूर्वज भूत और प्रेत बने।
  • एक तत्वदर्शी संत द्वारा प्रदान की गई सच्ची पूजा से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।

जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी ने सभी पवित्र शास्त्रों मे छिपे हुए जटिल आध्यात्मिक ज्ञान को सुलझाया है।  पूर्ण संत की शरण में जाने से ही आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होगी अर्थात उनसे नाम-उपदेश (नाम दीक्षा सतनाम और सारनाम) प्राप्त करके और सर्वोच्च भगवान की भक्ति करने से ही मोक्ष संभव है अन्यथा नहीं।

महान संत गरीबदास जी कहते हैं

यह संसार समझता नाहीं । कहंदा शाम दोपहरे नूं || गरीबदास , यह वक्त जात है । रोवोगे इस पहरे नूं ।|

इसलिए पाठकों से यही प्रार्थना है   कि अब और देर न करें और जल्द से जल्द जगतगुरू तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी की शरण में जाकर नामदीक्षा लें और अपने मानव जन्म का कल्याण कराएं।

Comments

Popular posts from this blog

02. विद्येश्वरसंहिता || 19. पार्थिवलिङ्गके निर्माणकी रीति तथा वेद-मन्त्रोंद्वारा उसके पूजनकी विस्तृत एवं संक्षिप्त विधिका वर्णन

शमी पत्र व मंदार की मार्मिक कथा

02. विद्येश्वरसंहिता || 20. पार्थिवलिङ्गके निर्माणकी रीति तथा सरल पूजन विधिका वर्णन