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भजन गोवर्धन परिक्रमा

भजन :–> गोवर्धन परिक्रमा  तर्ज  :–> सावन का महीना पवन करे सोर  गोवर्धन बाबा में तो आया तेरे द्वार कैसे लगाऊं परिक्रमा अरे हो रही भीड़ अपार होओओ गोवर्धन बाबा में तो आया तेरे द्वार कैसे लगाऊं परिक्रमा अरे हो रही भीड़ अपार होओओ कोई मुझे बोला आकरके मेरे पास करते हो परिक्रमा पैदल तुम चप्पल देओ उतारे होओओ गोवर्धन बाबा में तो आया तेरे द्वार कैसे लगाऊं परिक्रमा अरे हो रही भीड़ अपार होओओ रात को शहर जाना तुम करना बेड़ा पार दान घटिया आकर चढ़ाई दूध की धार  माथा टेकके मांगू दे दो रे शक्तियों पर गोवर्धन बाबा में तो आया तेरे द्वार कैसे लगाऊं परिक्रमा अरे हो रही भीड़ अपार होओओ धीरे धीरे चल के पहुंचे हैं पूछरी पास वहीं पर लोटा देखा तुम्हारा लौठा यार उनको लेटे लेटे समय हुआ अपार  गोवर्धन बाबा में तो आया तेरे द्वार कैसे लगाऊं परिक्रमा अरे हो रही भीड़ अपार होओओ आगे जाते जाते पहुंचे मुखारविंद द्वार दर्शन पाकर तुम्हारे हुआ है हर्ष अपार  हाथ जोड़ विनती करूं करियो मेरा उद्धार  गोवर्धन बाबा में तो आया तेरे द्वार कैसे लगाऊं परिक्रमा अरे हो रही भीड़ अपार होओओ आगे जाते जाते आया  मोड़ यही समाप्त होता पहली बड़

क्या होता है भद्रा काल?

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इस साल 30 और 31 अगस्त को रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जा रहा है। हालांकि, भद्रा के कारण लोगों के मन में संशय है कि किस दिन और किस मुहूर्त में बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधे? आइए, हम आपको बताते हैं राखी के शुभ मुहूर्त के बारे में… 30 अगस्त को लग रही है भद्रा ज्योतिषियों के मुताबिक, 30 अगस्त को सावन की शुक्ल पूर्णिमा सुबह 10 बजकर 59 मिनट पर लग रही है। इसके साथ ही आज भद्रा काल की भी शुरुआत हो जाएगी, जो कि आज रात 9 बजकर 1 मिनट पर खत्म होगा। बता दें कि भद्रा काल में शुभ कार्य वर्जित होते हैं। इसलिए इस मुहूर्त में राखी बांधने को मना किया जा रहा है। क्या होता है भद्रा काल? ज्‍योतिष शास्त्र के मुताबिक, भद्रा काल को अशुभ काल माना जाता है। यह भी पढ़ें :   Raksha Bandhan 2023: रक्षाबंधन पर देशभर में 10 हजार करोड़ रुपये का कारोबार होने का अनुमान जानें भद्रा से जुड़ी कहानी ऐसा कहा जाता है कि भद्रा सूर्यदेव की बेटी है और शनिदेव की बहन। ऐसा माना जाता है कि भद्रा का स्वभाव शनि देव की तरह कठोर है। इनके इस स्वभाव पर काबू करने के लिए  ब्रह्माजी ने उन्हें पंचांग में विष्टि करण के रूप में जगह

02. विद्येश्वरसंहिता || 18. बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिङ्ग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा शिवके भस्मधारणका रहस्य

02. विद्येश्वरसंहिता || 18. बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिङ्ग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा शिवके भस्मधारणका रहस्य ऋषि बोले- सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ सूतजी ! बन्धन और मोक्षका स्वरूप क्या है ? यह हमें बताइये । सूतजीने कहा- महर्षियो ! मैं बन्धन और मोक्षका स्वरूप तथा मोक्षके उपायका वर्णन करूँगा। तुमलोग आदरपूर्वक सुनो। जो प्रकृति आदि आठ बन्धनोंसे बँधा हुआ है, वह जीव बद्ध कहलाता है और जो उन आठों बन्धनोंसे छूटा हुआ है, उसे मुक्त कहते हैं। प्रकृति आदिको वशमें कर लेना मोक्ष कहलाता है। बन्धन आगन्तुक है और मोक्ष स्वतः सिद्ध है । बद्ध जीव जब बन्धनसे मुक्त हो जाता है तब उसे मुक्तजीव कहते हैं। प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ - इन्हें ज्ञानी पुरुष प्रकृत्याद्यष्टक मानते हैं । प्रकृति आदि आठ तत्त्वोंके समूहसे देहकी उत्पत्ति हुई है। देहसे कर्म उत्पन्न होता है और फिर कर्मसे नूतन देहकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार बारंबार जन्म और कर्म होते रहते हैं ।  शरीरको स्थूल, सूक्ष्म और कारणके भेदसे तीन

02. विद्येश्वरसंहिता || 17. षड्लिङ्गस्वरूप प्रणवका माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (ॐकार) और स्थूल रूप (पञ्चाक्षर मन्त्र) का विवेचन, उसके जपकी विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्मके लोकोंसे लेकर कारणरुद्रके लोकोंतकका विवेचन करके कालातीत, पञ्चावरणविशिष्ट शिवलोकके अनिर्वचनीयवैभवका निरूपण तथा शिवभक्तोंके सत्कारकी महत्ता

02. विद्येश्वरसंहिता || 17. षड्लिङ्गस्वरूप प्रणवका माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (ॐकार) और स्थूल रूप (पञ्चाक्षर मन्त्र) का विवेचन, उसके जपकी विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्मके लोकोंसे लेकर कारणरुद्रके लोकोंतकका विवेचन करके कालातीत, पञ्चावरणविशिष्ट शिवलोकके अनिर्वचनीय वैभवका निरूपण तथा शिवभक्तोंके सत्कारकी महत्ता। ऋषि बोले- प्रभो ! महामुने ! आप हमारे लिये क्रमशः षड्लिङ्गस्वरूप प्रणवका माहात्म्य तथा शिवभक्तके पूजनका प्रकार बताइये । सूतजीने कहा – महर्षियो ! आपलोग तपस्याके धनी हैं, आपने यह बड़ा सुन्दर प्रश्न उपस्थित किया है। किंतु इसका ठीक-ठीक उत्तर महादेवजी ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं । तथापि भगवान् शिवकी कृपासे ही मैं इस विषयका वर्णन करूँगा । वे भगवान् शिव हमारी और आपलोगोंकी रक्षाका भारी भार बारंबार स्वयं ही ग्रहण करें । 'प्र' नाम है प्रकृतिसे उत्पन्न संसाररूपी महासागरका । प्रणव इससे पार करनेके लिये दूसरी (नव) नाव है। इसलिये इस ओंकारको 'प्रणव' की संज्ञा देते हैं। ॐकार • अपने जप करनेवाले साधकोंसे कहता है- 'प्र-प्रपञ्च, न- — नहीं है, वः - तुमलोगोंके लिये ।' अतः इस भावको ल

02. विद्येश्वरसंहिता || 16. पृथ्वी आदिसे निर्मित देवप्रतिमाओंके पूजनकी विधि, उनके लिये नैवेद्यका विचार, पूजनके विभिन्न उपचारोंका फल, विशेष मास, वार, तिथि एवं नक्षत्रोंके योगमें पूजनका विशेष फल तथा लिङ्गके वैज्ञानिक स्वरूपका विवेचन

02. विद्येश्वरसंहिता || 16. पृथ्वी आदिसे निर्मित देवप्रतिमाओंके पूजनकी विधि, उनके लिये नैवेद्यका विचार, पूजनके विभिन्न उपचारोंका फल, विशेष मास, वार, तिथि एवं नक्षत्रोंके योगमें पूजनका विशेष फल तथा लिङ्गके वैज्ञानिक स्वरूपका विवेचन ऋषियोंने कहा – साधुशिरोमणे ! अब आप पार्थिव प्रतिमाकी पूजाका विधान बताइये, जिससे समस्त अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति होती है । सूतजी बोले- महर्षियो ! तुमलोगोंने बहुत उत्तम बात पूछी है। पार्थिव प्रतिमाका पूजन सदा सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला है तथा दुःखका तत्काल निवारण करनेवाला है। मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुमलोग उसको ध्यान देकर सुनो। पृथ्वी आदिकी बनी हुई देव प्रतिमाओंकी पूजा इस भूतलपर अभीष्टदायक मानी गयी है, निश्चय ही इसमें पुरुषोंका और स्त्रियोंका भी अधिकार है। नदी, पोखरे अथवा कुएँमें प्रवेश करके पानीके भीतरसे मिट्टी ले आये। फिर गन्ध-चूर्णके द्वारा उसका संशोधन करे और शुद्ध मण्डपमें रखकर उसे महीन पीसे और साने। इसके बाद हाथसे प्रतिमा बनाये और दूधसे उसका सुन्दर संस्कार करे । उस प्रतिमामें अङ्ग- प्रत्यङ्ग अच्छी तरह प्रकट हुए हों तथा वह सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे स

02. विद्येश्वरसंहिता || 15. देश, काल, पात्र और दान आदिका विचार

02. विद्येश्वरसंहिता || 15. देश, काल, पात्र और दान आदिका विचार ऋषियोंने कहा- -समस्त पदार्थोंके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ सूतजी ! अब आप क्रमशः देश, काल आदिका वर्णन करें। सूतजी बोले- महर्षियो ! देवयज्ञ आदि कर्मोंमें अपना शुद्ध गृह समान फल देनेवाला होता है अर्थात् अपने घरमें किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त फलको सममात्रामें देनेवाले होते हैं। गोशालाका स्थान घरकी अपेक्षा दसगुना फल देता है । जलाशयका तट उससे भी दसगुना महत्त्व रखता है तथा जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपलवृक्षका मूल निकट हो, वह स्थान जलाशयके तटसे भी दसगुना फल देनेवाला होता है । देवालयको उससे भी दसगुने महत्त्वका स्थान जानना चाहिये। देवालयसे भी दसगुना महत्त्व रखता है तीर्थभूमिका तट । उससे दसगुना श्रेष्ठ है नदीका किनारा । उससे दसगुना उत्कृष्ट है तीर्थनदीका तट और उससे भी दसगुना महत्त्व रखता है सप्तगङ्गा नामक नदियोंका तीर्थ । गङ्गा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिन्धु, सरयू और नर्मदा - इन सात नदियोंको सप्तगङ्गा कहा गया है । समुद्रके तटका स्थान इनसे भी दसगुना पवित्र माना गया है और पर्वतके शिखरका प्रदेश समुद्रतटसे भी दसगुना पावन है। सबसे अधिक महत्

02. विद्येश्वरसंहिता || 14. अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदिका वर्णन, भगवान् शिवके द्वारा सातों वारोंका निर्माण तथा उनमें देवाराधनसे विभिन्न प्रकारके फलोंकी प्राप्तिका कथन

02. विद्येश्वरसंहिता || 14. अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदिका वर्णन, भगवान् शिवके द्वारा सातों वारोंका निर्माण तथा उनमें देवाराधनसे विभिन्न प्रकारके फलोंकी प्राप्तिका कथन ऋषियोंने कहा – प्रभो ! अग्नियज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, गुरुपूजा तथा ब्रह्मतृप्तिका हमारे समक्ष क्रमशः वर्णन कीजिये । सूतजी बोले- महर्षियो ! गृहस्थ पुरुष अग्निमें सायंकाल और प्रातः काल जो चावल आदि द्रव्यकी आहुति देता है, उसीको अग्नियज्ञ कहते हैं । जो ब्रह्मचर्य आश्रममें स्थित हैं, उन ब्रह्मचारियोंके लिये समिधाका आधान ही अग्नियज्ञ है । वे समिधाका ही अग्निमें हवन करें । ब्राह्मणो ! ब्रह्मचर्य आश्रममें निवास करनेवाले द्विजोंका जबतक विवाह न हो जाय और वे औपासनानिकी प्रतिष्ठा न कर लें, तब तक उनके लिये अग्निमें समिधाकी आहुति, व्रत आदिका पालन तथा विशेष यजन आदि ही कर्तव्य है (यही उनके लिये अग्नियज्ञ है) । द्विजो ! जिन्होंने बाह्य अग्निको विसर्जित करके अपने आत्मामें ही अग्निका आरोप कर लिया है, ऐसे वानप्रस्थियों और संन्यासियोंके लिये यही हवन या अग्नियज्ञ है कि वे विहित समयपर हितकर, परिमित और पवित्र अन्नका भोजन कर लें । ब्रा