02. विद्येश्वरसंहिता || 16. पृथ्वी आदिसे निर्मित देवप्रतिमाओंके पूजनकी विधि, उनके लिये नैवेद्यका विचार, पूजनके विभिन्न उपचारोंका फल, विशेष मास, वार, तिथि एवं नक्षत्रोंके योगमें पूजनका विशेष फल तथा लिङ्गके वैज्ञानिक स्वरूपका विवेचन

02. विद्येश्वरसंहिता || 16. पृथ्वी आदिसे निर्मित देवप्रतिमाओंके पूजनकी विधि, उनके लिये नैवेद्यका विचार, पूजनके विभिन्न उपचारोंका फल, विशेष मास, वार, तिथि एवं नक्षत्रोंके योगमें पूजनका विशेष फल तथा लिङ्गके वैज्ञानिक स्वरूपका विवेचन

ऋषियोंने कहा – साधुशिरोमणे ! अब आप पार्थिव प्रतिमाकी पूजाका विधान बताइये, जिससे समस्त अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति होती है ।

सूतजी बोले- महर्षियो ! तुमलोगोंने बहुत उत्तम बात पूछी है। पार्थिव प्रतिमाका पूजन सदा सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला है तथा दुःखका तत्काल निवारण करनेवाला है। मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुमलोग उसको ध्यान देकर सुनो। पृथ्वी आदिकी बनी हुई देव प्रतिमाओंकी पूजा इस भूतलपर अभीष्टदायक मानी गयी है, निश्चय ही इसमें पुरुषोंका और स्त्रियोंका भी अधिकार है। नदी, पोखरे अथवा कुएँमें प्रवेश करके पानीके भीतरसे मिट्टी ले आये। फिर गन्ध-चूर्णके द्वारा उसका संशोधन करे और शुद्ध मण्डपमें रखकर उसे महीन पीसे और साने। इसके बाद हाथसे प्रतिमा बनाये और दूधसे उसका सुन्दर संस्कार करे । उस प्रतिमामें अङ्ग- प्रत्यङ्ग अच्छी तरह प्रकट हुए हों तथा वह सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न बनायी गयी हो । तदनन्तर उसे पद्मासनपर स्थापित करके आदर-पूर्वक उसका पूजन करे। 

गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा और शिवकी प्रतिमाका, शिवका एवं शिवलिङ्गका द्विजको सदा पूजन करना चाहिये । षोडशोपचार पूजनजनित फलकी सिद्धिके लिये सोलह उपचारोंद्वारा पूजन करना चाहिये । पुष्पसे प्रोक्षण और मन्त्र- पाठपूर्वक अभिषेक करे । अगहनीके चावलसे नैवेद्य तैयार करे। सारा नैवेद्य एक कुडव (लगभग पावभर) होना चाहिये । घरमें पार्थिव पूजनके लिये एक कुडव बाहर किसी मनुष्यद्वारा और स्थापित शिवलिङ्गके पूजनके लिये एक प्रस्थ (सेरभर) नैवेद्य तैयार करना आवश्यक है, ऐसा जानना चाहिये। देवताओंद्वारा स्थापित शिवलिङ्गके लिये तीन सेर नैवेद्य अर्पित करना उचित है और स्वयं प्रकट हुए स्वयम्भू लिङ्गके लिये पाँच सेर। ऐसा करनेपर पूर्ण फलकी प्राप्ति समझनी चाहिये। इस प्रकार सहस्र बार पूजा करनेसे द्विज सत्यलोकको प्राप्त कर लेता है।

बारह अंगुल चौड़ा, इससे दूना और एक अंगुल अधिक अर्थात् पचीस अंगुल लंबा तथा पंद्रह अंगुल चौड़ा जो लोहे या लकड़ीका बना हुआ पात्र होता है, उसे विद्वान् पुरुष 'शिव' कहते हैं। उसका आठवाँ भाग प्रस्थ कहलाता है, जो चार कुडवके बराबर माना गया है। मनुष्यद्वारा स्थापित शिवलिङ्गके लिये दस प्रस्थ, ऋषियोंद्वारा स्थापित शिवलिङ्गके लिये सौ प्रस्थ और स्वयम्भू शिवलिङ्गके लिये एक सहस्त्र प्रस्थ नैवेद्य निवेदन किया जाय तथा जल, तैल आदि एवं गन्ध द्रव्योंकी भी यथायोग्य मात्रा रखी जाय तो यह उन शिवलिङ्गोंकी महापूजा बतायी जाती है।

देवताका अभिषेक करनेसे आत्मशुद्धि होती है, गन्धसे पुण्यकी प्राप्ति होती है। नैवेद्य लगानेसे आयु बढ़ती और तृप्ति होती है । धूप निवेदन करनेसे धनकी प्राप्ति होती है। दीप दिखानेसे ज्ञानका उदय होता है और ताम्बूल समर्पण करनेसे भोगकी उपलब्धि होती है। इसलिये स्नान आदि छः उपचारोंको यत्नपूर्वक अर्पित करे। नमस्कार और जप - ये दोनों सम्पूर्ण अभीष्ट फलको देनेवाले हैं। इसलिये भोग और मोक्षकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको पूजाके अन्तमें सदा ही जप और नमस्कार करने चाहिये । मनुष्यको चाहिये कि वह सदा पहले मनसे पूजा करके फिर उन-उन उपचारोंसे करे । देवताओंकी पूजासे उन-उन देवताओंके लोकोंकी प्राप्ति होती है तथा उनके अवान्तर लोकमें भी यथेष्ट भोगकी वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं ।

अब मैं देवपूजासे प्राप्त होनेवाले विशेष फलोंका वर्णन करता हूँ। द्विजो ! तुमलोग श्रद्धापूर्वक सुनो। विघ्नराज गणेशकी पूजासे भूलोकमें उत्तम अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है। शुक्रवारको, श्रावण और भाद्रपद मासोंके शुक्ल-पक्षकी चतुर्थीको और पौषमासमें शतभिषा नक्षत्रके आनेपर विधि-पूर्वक गणेशजीकी पूजा करनी चाहिये। सौ या सहस्र दिनोंमें सो या सहस्र बार पूजा करे। देवता और अग्निमें श्रद्धा रखते हुए किया जानेवाला उनका नित्य पूजन मनुष्योंको पुत्र एवं अभीष्ट वस्तु प्रदान करता है। वह समस्त पापोंका शमन तथा भिन्न-भिन्न दुष्कर्मोंका विनाश करनेवाला है । विभिन्न वारोंमें की हुई शिव आदिकी पूजाको आत्मशुद्धि प्रदान करनेवाली समझना चाहिये । वार या दिन, तिथि, नक्षत्र और योगोंका आधार है। कामनाओंको देनेवाला है। उसमें वृद्धि और क्षय नहीं होता। इसलिये उसे पूर्ण ब्रह्मस्वरूप मानना चाहिये। सूर्योदयकालसे लेकर सूर्योदयकाल आनेतक एक वारकी स्थिति मानी गयी है जो ब्राह्मण आदि सभी वर्णोंके कर्मोंका आधार है। विहित तिथिके पूर्वभागमें की हुई देवपूजा मनुष्योंको पूर्ण भोग प्रदान करनेवाली होती है।

यदि मध्याह्नके बाद तिथिका आरम्भ होता है तो रात्रियुक्त तिथिका पूर्वभाग पितरोंके श्राद्धादि कर्मके लिये उत्तम बताया जाता है। ऐसी तिथिका परभाग ही दिनसे युक्त होता है, अतः वही देवकर्मके लिये प्रशस्त माना गया है। यदि मध्याह्नकालतक तिथि रहे तो उदयव्यापिनी तिथिको ही देवकार्यमें ग्रहण करना चाहिये। इसी तरह शुभ तिथि एवं नक्षत्र आदि ही देवकार्यमें ग्राह्य होते हैं। वार आदिका भलीभाँति विचार करके पूजा और जप आदि करने चाहिये । वेदोंमें पूजा-शब्दके अर्थकी इस प्रकार योजना की गयी है—पूर्जायते अनेन इति पूजा। यह पूजा-शब्दकी व्युत्पत्ति है। 'पूः' का अर्थ है भोग और फलकी सिद्धि-वह जिस कर्मसे सम्पन्न होती है, उसका नाम पूजा है। मनोवाञ्छित वस्तु तथा ज्ञान- ये ही अभीष्ट वस्तुएँ हैं; सकाम भाववालेको अभीष्ट भोग अपेक्षित होता है और निष्काम भाववालेको अर्थ- पारमार्थिक ज्ञान। ये दोनों ही पूजा- शब्दके अर्थ हैं; इनकी योजना करनेसे ही पूजा-शब्दकी सार्थकता है। इस प्रकार लोक और वेदमें पूजा- शब्दका अर्थ विख्यात है । नित्य और नैमित्तिक कर्म कालान्तरमें फल देते हैं; किन्तु काम्य कर्मका यदि भलीभाँति अनुष्ठान हुआ हो तो वह तत्काल फलद होता है। प्रतिदिन एक पक्ष, एक मास और एक वर्षतक लगातार पूजन करनेसे उन-उन कर्मोंके फलकी प्राप्ति होती है और उनसे वैसे ही पापोंका क्रमशः क्षय होता है ।

प्रत्येक मासके कृष्णपक्षकी चतुर्थी तिथिको की हुई महागणपतिकी पूजा एक पक्षके पापोंका नाश करनेवाली और एक पक्षतक उत्तम भोगरूपी फल देनेवाली होती है। चैत्रमासमें चतुर्थीको की हुई पूजा एक मासतक किये गये पूजनका फल देनेवाली होती है और जब सूर्य सिंह राशिपर स्थित हों, उस समय भाद्रपदमासकी चतुर्थीको की हुई गणेशजीकी पूजा एक वर्षतक मनोवाञ्छित भोग प्रदान करती है-ऐसा जानना चाहिये । श्रावणमासके रविवारको, हस्त नक्षत्रसे युक्त सप्तमी तिथिको तथा माघशुक्ला सप्तमीको भगवान् सूर्यका पूजन करना चाहिये। ज्येष्ठ तथा भाद्रपदमासोंके बुधवारको, श्रवण नक्षत्रसे युक्त द्वादशी तिथिको तथा केवल द्वादशीको भी किया गया भगवान् विष्णुका पूजन अभीष्ट सम्पत्तिको देनेवाला माना गया है ।

श्रावणमासमें की जानेवाली श्रीहरिकी पूजा अभीष्ट मनोरथ और आरोग्य प्रदान करनेवाली होती है । अङ्गों एवं उपकरणोंसहित पूर्वोक्त गौ आदि बारह वस्तुओंका दान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसीको द्वादशी तिथिमें आराधनाद्वारा श्रीविष्णुकी तृप्ति करके मनुष्य प्राप्त कर लेता है । जो द्वादशी तिथिको भगवान् विष्णुके बारह नामोंद्वारा बारह ब्राह्मणोंका षोडशोपचार पूजन करता है, वह उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेता हैं । इसी प्रकार सम्पूर्ण देवताओंके विभिन्न बारह नामोंद्वारा किया हुआ, बारह ब्राह्मणोंका पूजन उन-उन देवताओंको प्रसन्न करनेवाला होता है ।

कर्ककी संक्रान्तिसे युक्त श्रावणमासमें नवमी तिथिको मृगशिरा नक्षत्रके योगमें अम्बिकाका पूजन करे। वे सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोगों और फलोंको देनेवाली हैं। ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको उस दिन अवश्य उनकी पूजा करनी चाहिये । आश्विनमासके शुक्ल पक्षकी नवमी तिथि सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाली है। उसी मासके कृष्ण पक्षकी चतुर्दशीको यदि रविवार पड़ा हो तो उस दिनका महत्त्व विशेष बढ़ जाता है। उसके साथ ही यदि आर्द्रा और महार्द्रा (सूर्यसंक्रान्तिसे युक्त आर्द्रा) का योग हो तो उक्त अवसरोंपर की हुई शिवपूजाका विशेष महत्त्व माना गया है। माघ कृष्णा चतुर्दशीको की हुई शिवजीकी पूजा सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाली है। वह मनुष्योंकी आयु बढ़ाती, मृत्यु-कष्टको दूर हटाती और समस्त सिद्धियोंकी प्राप्ति कराती है। ज्येष्ठमासमें चतुर्दशीको यदि 

महार्द्राका योग हो अथवा मार्गशीर्षमासमें किसी भी तिथिको यदि आर्द्रा नक्षत्र हो तो उस अवसरपर विभिन्न वस्तुओंकी बनी हुई मूर्तिके रूपमें शिवकी जो सोलह उपचारोंसे पूजा करता है, उस पुण्यात्माके चरणोंका दर्शन करना चाहिये । भगवान् शिवकी पूजा मनुष्योंको भोग और मोक्ष देनेवाली है, ऐसा जानना चाहिये । कार्तिकमासमें प्रत्येक वार और तिथि आदिमें महादेवजीकी पूजाका विशेष महत्त्व है। कार्तिकमास आनेपर विद्वान् पुरुष दान, तप, होम, जप और नियम आदिके द्वारा समस्त देवताओंका षोडशोपचारोंसे पूजन करे। उस पूजनमें देव-प्रतिमा, ब्राह्मण तथा मन्त्रोंका उपयोग आवश्यक है । ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे भी वह पूजन-कर्म सम्पन्न होता है। पूजकको चाहिये कि वह कामनाओंको त्यागकर पीड़ारहित (शान्त) हो देवाराधनमें तत्पर रहे।

कार्तिकमासमें देवताओंका यजन- भोगोंको देनेवाला, पूजन व्याधियोंको हर लेनेवाला तथा भूतों और ग्रहोंका विनाश करनेवाला है । कार्तिकमासके रविवारोंको भगवान् सूर्यकी पूजा करने और तेल तथा सूती वस्त्र देनेसे मनुष्योंके कोढ़ आदि रोगोंका नाश होता है। हर्रे, काली मिर्च, वस्त्र और खीरा आदिका दान और ब्राह्मणोंकी प्रतिष्ठा करनेसे क्षयके रोगका नाश होता है। दीप और सरसोंके दानसे मिरगीका रोग मिट जाता है। कृत्तिका नक्षत्रसे युक्त सोमवारोंको किया हुआ।

शिवजीका पूजन मनुष्य के महान दारिद्र्यको मिटानेवाला और सम्पूर्ण सम्पत्तियोंको देनेवाला है । घरकी आवश्यक सामग्रियोंके साथ गृह और क्षेत्र | आदिका दान करनेसे भी उक्त फलकी प्राप्ति होती है। कृत्तिकायुक्त मङ्गलवारोंको श्रीस्कन्दका पूजन करनेसे तथा दीपक एवं घण्टा आदिका दान देनेसे मनुष्योंको शीघ्र ही वासिद्धि प्राप्त हो जाती है, उनके मुँहसे निकली हुई हर एक बात सत्य होती है। कृत्तिकायुक्त बुधवारोंको किया हुआ श्रीविष्णुका यजन तथा दही-भातका दान मनुष्योंको उत्तम संतानकी प्राप्ति करानेवाला होता है। कृत्तिकायुक्त गुरुवारोंको धनसे ब्रह्माजीका पूजन तथा मधु, सोना और घीका दान करनेसे मनुष्योंके भोग-वैभवकी वृद्धि होती है । 

कृत्तिकायुक्त शुक्रवारोंको गजानन गणेशजीकी पूजा करनेसे तथा गन्ध, पुष्प एवं अन्नका दान देनेसे मानवोंके भोग्य पदार्थोंकी वृद्धि होती है। उस दिन सोना, चाँदी आदिका दान करनेसे बन्ध्याको भी उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होती है। कृत्तिकायुक्त शनिवारोंको दिक्पालोंकी वन्दना, दिग्गजों, नागों और सेतुपालोंका पूजन, त्रिनेत्रधारी रुद्र, पापहारी विष्णु तथा ज्ञानदाता ब्रह्माका आराधन और धन्वन्तरि एवं दोनों अश्विनीकुमारोंका पूजन करनेसे रोग, दुर्मृत्यु एवं अकालमृत्युका निवारण होता है तथा तात्कालिक व्याधियोंकी शान्ति हो जाती है। नमक, लोहा, तेल और उड़द आदिका त्रिकटु (सोंठ, पीपल और गोल मिर्च), फल, गन्ध और जल आदिका तथा घृत आदि द्रव पदार्थोंका और सुवर्ण, मोती आदि कठोर वस्तुओंका भी दान देनेसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। इनमेंसे नमक आदिका मान कम-से-कम एक प्रस्थ (सेर) होना चाहिये और सुवर्ण आदिका मान कम-से-कम एक पल ।

धनकी संक्रान्तिसे युक्त पौषमासमें उषःकालमें शिव आदि समस्त देवताओंका पूजन क्रमशः समस्त सिद्धियोंकी प्राप्ति करानेवाला होता है। इस पूजनमें अगहनीके चावलसे तैयार किये गये हविष्यका नैवेद्य उत्तम बताया जाता है। पौषमासमें नाना प्रकारके अन्नका नैवेद्य विशेष महत्त्व रखता है। मार्गशीर्षमासमें केवल अन्नका दान करनेवाले मनुष्योंको ही सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंकी प्राप्ति हो जाती है। मार्गशीर्षमासमें अन्नका दान करनेवाले मनुष्यके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। वह अभीष्ट-सिद्धि, आरोग्य, धर्म, वेदका सम्यक् ज्ञान, उत्तम अनुष्ठानका फल, इहलोक और परलोकमें महान् भोग, अन्तमें सनातन योग (मोक्ष) तथा वेदान्तज्ञानकी सिद्धि प्राप्त कर लेता है । जो भोगकी इच्छा रखनेवाला है, वह मनुष्य मार्गशीर्षमास आनेपर कम-से-कम तीन दिन भी उषःकालमें अवश्य देवताओंका पूजन करे और पौषमासको पूजनसे खाली न जाने दे। उषःकालसे लेकर संगवकाल- तक ही पौषमासमें पूजनका विशेष महत्त्व बताया गया है। पौषमासमें पूरे महीनेभर जितेन्द्रिय और निराहार रहकर द्विज प्रातः कालसे मध्याह्नकालतक वेदमाता गायत्रीका जप करे। तत्पश्चात् रातको सोनेके समयतक पञ्चाक्षर आदि मन्त्रोंका जप करे। ऐसा करनेवाला ब्राह्मण ज्ञान पाकर शरीर छूटनेके बाद मोक्ष प्राप्त कर लेता है । द्विजेतर नर-नारियोंको त्रिकाल स्नान और पञ्चाक्षर मन्त्रके ही निरन्तर जपसे विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इष्टमन्त्रोंका सदा जप करनेसे बड़े-से-बड़े पापोंका भी नाश हो जाता है।

सारा चराचर जगत् बिन्दु-नादस्वरूप है । बिन्दु शक्ति है और नाद शिव। इस तरह यह जगत् शिव-शक्तिस्वरूप ही है। नाद बिन्दुका और बिन्दु इस जगत्का आधार है, ये बिन्दु और नाद (शक्ति और .शिव) सम्पूर्ण जगत् के आधाररूपसे स्थित हैं। बिन्दु और नादसे युक्त सब कुछ शिवस्वरूप हैं; क्योंकि वही सबका आधार है । आधारमें ही आधेयका समावेश अथवा लय होता है। यही सकलीकरण है। इस सकलीकरणकी स्थितिसे ही सृष्टिकालमें जगत्का प्रादुर्भाव होता है, इसमें संशय नहीं है। शिवलिङ्ग बिन्दु नादस्वरूप है। अतः उसे जगत्का कारण बताया जाता है। बिन्दु देव है और नाद 'शिव, इन दोनोंका संयुक्तरूप ही शिवलिङ्ग कहलाता है। अतः जन्मके संकटसे छुटकारा पानेके लिये शिवलिङ्गकी पूजा करनी चाहिये। बिन्दुरूपा देवी उमा माता हैं" और नादस्वरूप भगवान् शिव पिता । इन माता-पिताके पूजित होनेसे परमानन्दकी ही प्राप्ति होती है। अतः परमानन्दका लाभ लेनेके लिये शिवलिङ्गका विशेषरूपसे पूजन करे। देवी उमा जगत्‌की माता हैं और भगवान् शिव जगत्के पिता। जो इनकी सेवा करता है, उस पुत्रपर इन दोनों माता-पिताकी कृपा नित्य अधिकाधिक बढ़ती रहती है * । वह पूजकपर कृपा करके उसे अपना आन्तरिक ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। अतः मुनीश्वरो ! आन्तरिक आनन्दकी प्राप्तिके लिये, शिवलिङ्गको माता-पिताका स्वरूप मानकर उसकी पूजा करनी चाहिये । भर्ग (शिव) पुरुषरूप है और भर्गा (शिवा अथवा शक्ति) प्रकृति कहलाती है । अव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठानरूप गर्भको पुरुष कहते हैं और सुव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठानभूत गर्भको प्रकृति । पुरुष आदिगर्भ है, वह प्रकृतिरूप गर्भसे युक्त होनेके कारण गर्भवान् है; क्योंकि वही प्रकृतिका जनक है। प्रकृतिमें जो पुरुषका संयोग होता है, यही पुरुषसे उसका प्रथम जन्म कहलाता है अव्यक्त प्रकृतिसे महत्तत्त्वादिके क्रमसे जो जगत्का व्यक्त होना है, यही उस प्रकृतिका द्वितीय जन्म कहलाता है। जीव पुरुषसे ही बारंबार जन्म और मृत्युको प्राप्त होता है। मायाद्वारा अन्यरूपसे प्रकट किया जाना ही उसका जन्म कहलाता है, जीवका शरीर जन्मकालसे ही जीर्ण (छः भावविकारोंसे युक्त) होने लगता है, इसीलिये उसे 'जीव'" संज्ञा दी गयी है। जो जन्म लेता और विविध. पाशोंद्वारा तनाव (बन्धन) में पड़ता है, उसका नाम जीव है; जन्म और बन्धन जीव-. शब्दका अर्थ ही है। अतः जन्ममृत्युरूपी बन्धनकी निवृत्तिके लिये जन्मके अधिष्ठानभूत मातृ-पितृस्वरूप शिवलिङ्गका पूजन करना चाहिये ।

गायका दूध, गायका दही और गायका घी - इन तीनोंको पूजनके लिये शहद और शक्करके साथ पृथक्-पृथक् भी रखे और इन सबको मिलाकर सम्मिलितरूपसे पञ्चामृत भी तैयार कर ले। (इनके द्वारा शिवलिङ्गका अभिषेक एवं स्नान कराये), फिर गायके दूध और अन्नके मेलसे नैवेद्य तैयार करके प्रणव मन्त्रके उच्चारणपूर्वक उसे भगवान् शिवको अर्पित करे। सम्पूर्ण प्रणवको ध्वनिलिङ्ग कहते हैं। स्वयम्भूलिङ्ग नादस्वरूप होनेके कारण नादलिङ्ग कहा गया है। यन्त्र या अर्घा बिन्दुस्वरूप होनेके कारण बिन्दुलिङ्गके रूपमें विख्यात है। उसमें अचलरूपसे प्रतिष्ठित जो शिवलिङ्ग है, वह मकार-स्वरूप है, इसलिये मकारलिङ्ग कहलाता है। सवारी निकालने आदिके लिये जो चरलिङ्ग होता है, वह उकार-स्वरूप होनेसे उकारलिङ्ग कहा गया है तथा पूजाकी दीक्षा देनेवाले जो गुरु या आचार्य हैं, उनका विग्रह अकारका प्रतीक होनेसे अकारलिङ्ग माना गया है । इस प्रकार अकार, उकार, मकार, बिन्दु, नाद और ध्वनिके रूपमें लिङ्गके छः भेद हैं। इन छहों लिङ्गोंकी नित्य पूजा करनेसे साधक जीवनमुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। 

(अध्याय १६)

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यहाँ मूलमें 'गजकोमेड' शब्द आया है जिसका पूर्ववर्ती व्याख्याकारोंने 'गणेश' अर्थ किया है। सम्भवतः 'कोमेड' शब्दका प्रयोग यहाँ मस्तक या मुखके अर्थमें आया है।

माता देवी बिन्दुरूपया नादरूपः शिवः पिता ॥ 
पूजिताभ्यां पितृभ्यां तु परमानन्द एव हि । 
परमानन्दलाभार्थं शिवलिङ्ग प्रपूजयेत् ॥ 
सा देवी जगतां माता स शिवो जगतः पिता । 
पित्रोः शुश्रूषके नित्यं कृपाधिक्यं हि वर्धते ॥

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