502. || दूसरी कहानी || वररुचि (पुष्पवन्त) और व्याडि की कथा

502. || दूसरी कहानी || वररुचि (पुष्पवन्त) और व्याडि की कथा

द्वितीय तरंग

वररुचि (पुष्पवन्त) को कथा

मानव-शरीर धारण किये हुए पुष्पदन्त नामक गण वररुचि' एवं कात्यायन के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ १॥

समस्त विद्याओं का पूर्ण अध्ययन तथा सम्राट् नन्द का मन्त्रित्व करके वह ( कात्यायन ) एक बार खिन्न होकर विन्ध्यवासिनी देवी के दर्शन करने के लिए आया ॥ २ ॥ तपस्या से आराधित विन्ध्यवासिनी देवी ने स्वप्न में वररुचि को एक आदेश दिया। उस आदेश के अनुसार वह काणभूति को देखने के लिए विन्ध्यारण्य में गया ॥ ३ ॥

बाघ और वानरों से भरे हुए, जल-रहित एवं रूखे वृक्षों से व्याप्त उस विन्ध्यारण्य में उसने एक अत्यन्त ऊँचे और विस्तृत बरगद वृक्ष को देखा ॥४॥ पुष्पदन्त ने उस वटवृक्ष के पास सैकड़ों पिशाचों से घिरे हुए सालवृक्ष के समान लम्बे कणभूति को देखा ॥५॥

कणभूति ने कात्यायन को देखकर उसके चरण छूकर प्रणाम किया और कुछ समय के उपरान्त विश्राम कर लेने पर कात्यायन ने काणभूति से पूछा ॥ ६॥

'हे काणभूते ! ऐसे सदाचारी होकर तुम ऐसी हीन गति को कैसे प्राप्त हुए ?' कात्यायन के स्नेहपूर्ण प्रश्न को सुनकर काणभूति ने कहा ॥७॥

मुझे स्वयं यह ज्ञात नही है कि मैं इस गति को कैसे प्राप्त हुआ, किन्तु उज्जयिनी नगरी मे श्मशान मे शिवजी से जो मैंने सुना है, वह तुम्हे कहता हूँ, सुनो ॥८॥

एक बार पार्वती के यह पूछने पर कि 'भगवन् ! कपाल-मुंडो से और श्मशानों से तुम्हे अधिक प्रेम क्यों है ? शिवजी ने उत्तर दिया ॥ ९॥

'प्राचीनकाल मे प्रलय उपस्थित होने पर सारा संसार जलमय हो गया था। उस समय मैंने अपनी जांघ को चीरकर उस जल में रक्त की एक बूंद डाल दी ॥ १० ॥

वह रक्त बिन्दु जल के भीतर अंडे के रूप में परिणत हो गया। उसे फोडने पर उसमे से एक पुरुष निकला। उस पुरुष को देखकर सृष्टि के लिए मैने प्रकृति की रचना की ।। ११ ।।

इस प्रकार उन दोनों ने अन्यान्य प्रजापतियों को उत्पन्न किया और उन प्रजापतियो ने अन्य प्रजाओं का उत्पादन किया। इसलिए, हे देवि ! वह प्रथम पुरुष सबसे पुराना होने के कारण जगत में पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।। १२ ।।

इस प्रकार चर और अचर-विश्व का सर्जन कर उस पुरुष को यह दर्प हो गया कि 'मैंने इतनी बडी रचना कर डाली। उसके दर्प से क्रुद्ध होकर मैने उस पुराण पुरुष का सिर काट डाला ।।१३।।

उस हत्या के लिए मुझे पश्चात्ताप हुआ और तब मैंने यह महान् व्रत धारण किया कि सर्वदा कपाल धारण करूंगा और श्मशान में निवास करूँगा ।। १४ ।।

हे देवि ! दूसरी बात यह भी है कि यह कपाल-रूपी समस्त संसार सदा मेरे हाथ में रहता है। पहले कहा हुआ अंडा और यह कपाल दोनों ही आकाश और पृथ्वी कहे जाते है ।। १५ ।।

शिवजी के इस प्रकार कहने पर फिर मैं भी कोतूहल से सुनूंगा ऐसा सोच ही रहा था कि पार्वती ने पुन शंकरजी से कहा ।। १६ ।।
'वह पुष्पदन्त गण कितने दिनों में लौटकर हमारे पास आवेगा ?" पार्वती का यह प्रश्न सुनकर महादेव ने मुझे लक्ष्य करके कहा || १७||

यहाँ कुबेर का अनुचर, जो यह पिशाच दीख रहा है, उसका मित्र स्थूलशिरा नामक राक्षस है ॥१८॥ धनपति कुबेर ने उन यक्ष (काणभूति) की इस पापी राक्षस (स्थूलशिरा) की संगति में देखकर शाप दिया कि 'तू विन्ध्यारण्य में पिशाच बनेगा ।। १९।

इसके बड़े भाई दीर्घजय ने जब कुबेर के चरणों में पड़कर शाप का अन्त करने की प्रार्थना की, तब कुबेर ने कहा ||२०||

'शाप में पृथ्वी पर अवतीर्ण पुष्पदन्त गण के द्वारा जब यह महाकथा को सुनेगा और इस प्रकार शाप से मनुष्यता का प्राप्त कर माल्यवान् की समस्त कथा प्रदान सुनाएगा ||२१|| तब उन दोनो शापमुक्त गणों के साथ इस काणभूति का भी शाप मोचन होगा।' इस प्रकार कुबेर ने शाप का अन्त किया ॥ २२ ॥

"हे प्रिये । काणभूति से मिलते ही पुष्पदन्त के शाप का अन्त हो जायगा, ऐसा तुमने कहा था, इसे स्मरण करो।" शिव के इस वचन को सुन कर में हर्ष के साथ यहाँ आया ।। २३ ।।

इस प्रकार मेरा शापदोष पुष्पदन्त के मिलने तक था । ऐसा कहकर काणभूति के मौन होने पर उसी समय पूर्वजन्म का स्मरण करके वारुचि मानो नींद से जगा और बोला, "मैं वही पुष्पदन्त हूँ। मुझसे वह कथा सुनो । '' ।। २४-२५ ।।

इस प्रकार कात्यायन ने सात लाख श्लोकों में सात महाकथाएँ काणभूति से कही। उन्हें सुनकर काणभूति ने कहा ।। २६ ।।

हे देव! तुम सचमुच रुद्र के अवतार हो। उनके अतिरिक्त इन कथाओ को अन्य कौन जानता है। तुम्हारी कृपा से मेरे शरीर से पिशाचत्व का शाप निकल रहा है ||२७||

इसलिए, हे देव! तुम जन्म से लेकर आजतक का अपना समस्त वृत्तान्त यदि मुझ जैसे व्यक्ति से गोपनीय न हो तो, कहो और मुझे पुनः पवित्र करो ॥ २८ ॥ इसके अनन्तर नम्रतापूर्वक अनुरोध करते हुए काणमूर्ति से वररुचि ने विस्तारपूर्वक अपना वृत्तान्त कहना प्रारम्भ किया ॥२९॥

वररूचि की जन्म कथा

कौशाम्बी नगरी में मोमदत्त नाम का एक ब्राह्मण था । उसे अग्निशिख भी कहते थे। उसकी पत्नी का नाम वसुदत्ता था ॥ ३० ॥ 

वसुदा पूर्वजन्म में मुनि कन्या थी, जो शाप के कारण मानव जाति में उत्पन्न हुई थी। उसी वसुदत्ता के गर्भ से मेरी उत्पत्ति हुई ||३१|| 

मेरे शैशव में ही मेरे पिता परलोकवासी हो गये। अतः मेरी माता ने बड़े ही क्लेश के साथ मेरा पालन-पोषण किया ॥ ३२ ॥

एक बार हमारे घर में लम्बे मार्ग श्रम से थके दो ब्राह्मण एक रात निवास के लिए आये ||३३|| उनके हमारे यहाँ रहते हुए एक बार मृदंग को ध्वनि हुई। उसे सुनकर मेरी माता अपने पति का स्मरण करके गद्गद स्वर में बोली ||३४||

'बेटा! तुम्हारे पिता का मित्र नन्द नाम का नट नाच रहा है।' मैंने भी कहा 'माता ! मैं उसका नाच देखने जाता हूँ | ||३५||

मैं उसका नाच देखकर उसके अक्षरश कथोपकथन के साथ अभिनय करते हुए तुम्हें भी दिखाऊँगा। मेरी यह बात सुनकर वे दोनों ब्राह्मण अति आश्चर्यान्वित हुए ।। ३६ ।।

उन्हे चकित देखकर मेरी माता बोलीं- 'हे पुत्रो ! यह बालक एक बार जो कुछ सुन लेता है, उसे हृदय में धारण कर लेता है, इसमें कोई सशय नहीं' ॥३७॥ उन्होंने मेरी परीक्षा के लिए प्रातिशाख्य' (वैदिक व्याकरण) पढ़ाया और मैंने उनके सामने ही उसे यथावत् सुना दिया ||३८||

इसके अनन्तर मैंने उन दोनो के साथ जाकर नन्द नट का नाच देखा और घर आकर माता के सामने सम्पूर्ण नाटक वैसा ही दिखा दिया, जैसा देखा था ।। ३९ ।।

एक बार सुनकर स्मरण रखनेवाला मुझे जानकर उन दोनों अतिथियों में एक व्याडि नामक ब्राह्मण मेरी माता को प्रणाम करके बोला ॥४०॥

व्याडि की कथा

हे माता ! वेतस नामक नगर में देवस्वामी और करम्भक नाम के दो ब्राह्मण भाई थे, वे परस्पर अत्यन्त प्रेमपूर्वक रहते थे ॥ ४१ ॥

उन दोनों में एक का पुत्र यह इन्द्रदत्त और दूसरे का पुत्र व्याडि नामक मैं हूँ । मेरे जन्म के पश्चात् मेरे पिता का देहान्त हो गया ||४२ ॥

भाई के शौक से इन्द्रदत्त के पिता भी स्वर्ग को प्रयाण कर गये। पतियों के शोक से हम दोनों की माताओं के हृदय भी विदीर्ण हो गये - अर्थात् वे मर गई ||४३||

इस प्रकार हम दोनों अनाथ हो गये। धन होने पर भी विद्या प्राप्ति की अभिलाषा से हमलोग तपस्या द्वारा स्वामी कार्तिक को प्रसन्न करने गये ॥४४॥

तपस्या करते हुए हमलोगों को स्वप्न मे स्वामी कार्तिक ने आदेश दिया कि राजा नन्द का पाटलिपुत्र नामक एक नगर है ।। ४५ ।।

उस नगर मे वर्ष नाम का एक ब्राह्मण है। उसके समीप जाकर तुमलोग समस्त विद्याओं को प्राप्त कर सकते हो, अत तुम दोनों वही जाओ ।। ४६ ।।

ऐसा जानकर हम दोनों पाटलिपुत्र गये। वहां पूछने पर ज्ञात हुआ कि यहां वर्ष नाम का एक मूर्ख रहता है। ऐसा आश्चर्यजनक समाचार लोगों ने दिया ॥ ४७ ॥ 

तब भी, सशय युक्त मन से उसी समय हमलोगों ने जाकर वर्ष के जीर्ण-शीर्ण और पुराने घर को देखा ॥४८॥

वर्ष का घर चूहे के बिलो और सन्धिविहीन भित्तियो के कारण टूटे-फूटे छप्परों से भी हीन ऐसा लगता था, मानों आपत्तियों का जन्मस्थान हो । ४९ ॥

उस मकान के भीतर हमलोगो ने ध्यानमग्न वर्ष को देखा। उसके पश्चात् हम आतिथ्य-सत्कार करनेवाली उसकी स्त्री के समीप गये ॥५०॥

भूरे और रूखे शरीरवाली, फटे-पुराने और मलिन वस्त्र पहिने हुई मृत्तिमती दुर्गति के समान उसकी स्त्री थी ॥५१॥

उसकी पत्नी को प्रणाम कर हमलोगों ने अपने आने का कारण और समाचार कहा और यह भी कह दिया कि सारे नगर में आपके पति मूर्ख-रूप में कुख्यात है ॥५२॥

हमारी बातें सुनकर वर्ष की पत्नी ने कहा- 'पुत्रो ! तुम मेरे पुत्र के समान हो। तुमसे लज्जा या संकोच करने की क्या आवश्यकता है। ऐसा कहकर उस पतिव्रता ने हमें यह कथा सुनाई ॥५३॥

वर्ष का चरित्र

इस पाटलिपुत्र नगर में शंकर स्वामी नाम का एक ब्राह्मण था । उसके दो पुत्र हुए, एक मेरा पति वर्ष और दूसरा उपवर्ष ।।५४ ||

उन दोनों में बड़ा पुत्र मूर्ख और दरिद्र था। छोटा उपवर्ष इसके विपरीत विद्वान् और धन हुआ। उस उपवर्ष ने प्रारम्भ में वर्ष के घर की व्यवस्था करने के लिए अपनी पत्नी को नियुक्त किया था ।। ५५ ।।

इसी क्रम से रहते हुए एक बार वर्षा ऋतु आ गई, जिसमें स्त्रियाँ गुड़ के साथ आटे से निर्मित गुह्य का रूप बनाकर निन्दनीय रूप से मूर्ख ब्राह्मणो को दान देती हैं। इसी प्रकार शीत और ग्रीष्म ऋतु में क्रमश: स्नान और पसीने के कष्ट को हरण करने- वाली वस्तुएँ दान करती हैं। इस प्रकार के दान को नही लिया जाता। यह अत्यन्त कुत्सित आचार है। वह दान तो मेरे देवर की पत्नी ने दक्षिणा सहित मेरे पति वर्ष को मूर्ख समझकर दिया ॥५६, ५७, ५८॥

उसे लेकर जब वे घर आये, तो मैंने उन्हें खूब फटकारा। अपनी मूर्खता के कारण होनेवाले सन्ताप से वे अत्यन्त सन्तप्त हुए ।। ५९ ।।

इसके पश्चात् वर्ष तपस्या से स्वामी कार्तिक को प्रसन्न करने चले गये। प्रसन्न होकर स्वामि कार्तिक ने उन्हें वरदान द्वारा समस्त विद्याएं प्रदान की ॥ ६० ॥ और स्वामी कार्तिक ने आदेश दिया कि एक बार सुनकर स्मरण रखनेवाले ब्राह्मण को प्राप्त कर तुम इन विद्याओं को प्रकट करना। इस प्रकार कार्तिकेय से वरदान प्राप्त कर वर्ष हर्षपूर्वक यहाँ आ गये ।।६१।।

वहाँ से आकर उन्होंने समस्त वृत्तान्त मुझे बताया और तभी से वे निरन्तर जप और ध्यान में मग्न रहते है ॥ ६२॥

इसलिए आपलोग एक बार ही सुनकर स्मरण रखनेवाले किसी छात्र को ढूँढें । इससे तुम दोनों की मनकामना पूर्ण होगी, इसमें सन्देह नहीं ॥ ६३ ॥

वर्ष की पत्नी से इस प्रकार सुनकर हम दोनों ने उसकी तात्कालिक दरिद्रता दूर करने के लिए उसे एक सौ स्वर्ण मुद्राएं दी और उस नगर से चले गये ।। ६४ ।।

तदनन्तर हम दोनों सारी पृथ्वी पर घूमे, किन्तु कहीं भी एक श्रुतधर नहीं मिला। अतः थककर आज तुम्हारे घर विश्राम के लिए रुक गये ।। ६५ ।।

आज इस बालक को, जो तुम्हारा पुत्र है, प्राप्त किया। जो श्रुतधर है। तुम इसे हमें दे दो। हमलोग विद्या धन की सिद्धि के लिए जायें ।। ६६ ।।

इस प्रकार व्याडि के वचन सुनकर मेरी माता ने आदर के साथ कहा, "यह सब ठीक है । मुझे आपकी बातों पर विश्वास है ।। ६७॥ और भी कारण है। जब यह एकमात्र पुत्र मुझसे उत्पन्न हुआ था, उस समय आकाश से देववाणी हुई थी ।। ६८ ।।

यह श्रुतधर बालक उत्पन्न हुआ है और वर्ष उपाध्याय से विद्या प्राप्त कर संसार में व्याकरण की प्रतिष्ठा करेगा ।। ६९ ।। यह बालक नाम से वररुचि होगा । ससार में जो भी अच्छा होगा, वह इसे अच्छा लगेगा, इसीलिए इसका नाम वररुचि होगा। इतना कहकर आकाशवाणी समाप्त हो गई ॥ ७० ॥

इसलिए जैसे-जैसे यह बालक बड़ा हो रहा था, वैसे ही वैसे मुझे रात-दिन यह चिन्ता सता रही थी कि वह वर्ष उपाध्याय कहाँ होगा ॥ ७१ ॥ आज तुमलोगों के मुख से यह वृतान्त सुनकर मुझे अत्यन्त सन्तोष हुआ । अत तुम दोनो इसे वर्ष के समीप ले जाओ। यह तुम्हारा भाई है। कोई हानि नहीं ||७२ ||

मेरी माता के ऐसे वचन को सुनकर प्रफुल्लित व्याडि और इन्द्रदत्त ने वह रात एक क्षण के समान व्यतीत की ॥७३॥ प्रातःकाल व्याडि ने उत्सव करने के लिए अपना धन मेरी माता को दे दिया और मुझे वेदाध्ययन के योग्य बनाने के लिए स्वयं ही मेरा उपनयन-सस्कार किया, जिसमे मैं योग्य बनकर विद्याध्ययन कर सकूँ ।।७४ ।।

तब किसी प्रकार आंसुओ को रोककर मेरी माता ने मुझे आज्ञा दी। साथ ही मेरे अत्यन्त उत्साह को देखकर मेरी माता का शोक कम हो गया ।।७५ ॥

मेरी कुमारावस्था को माता का अनुग्रह समझकर व्याडि और इन्द्रदत्त मुझे लेकर उस कौशाम्बी नगरी से शीघ्र चल पड़े ॥ ७६ ॥

इसके पश्चात् यथासमय हमलोग वर्ष गुरु के घर पहुँचे और उन्होंने भी मूर्तिमान् स्कन्द के प्रसाद के समान मुझे आते हुए समझा ॥७७॥

एक शुभ दिन को वर्ष उपाध्याय ने पवित्र भूमि में बैठकर और हमलोगों को आगे बैठाकर दिव्य वाणी से ओंकार का उच्चारण किया ।। ७८ ।।

ओंकार का उच्चारण करते ही कार्तिकेय की कृपा से सागोपांग वेद उपस्थित हो गये और तब उपाध्याय हम लोगो को पढ़ाने को उद्यत हुए ।।७९।।

गुरु जो एक बार कहते थे, उसे मैं स्मरण कर लेता था, दूसरी बार के कहने पर व्याडि और तीसरी बार के कहने पर इन्द्रदत्त ग्रहण करते थे |८०||

अध्ययन प्रारम्भ होने पर वर्ष के मुख से निकलती हुई उस अपूर्व दिव्य ध्वनि को सुनकर फिर 'यह क्या है' इस प्रकार आश्चर्य के साथ वर्ष उपाध्याय के घर पर चारों ओर से आकर एकत्र एवं स्तुति करते हुए ब्राह्मणगण प्रणामो से उसकी अर्चना करने लगे ॥ ८१ ॥

आचार्य वर्ष के घर में इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखकर उनके कनिष्ठ भ्राता उपवर्ष को अत्यन्त प्रसन्नता ही नहीं हुई; बल्कि समूचे पाटलिपुत्र के निवासियों ने सारे नगर में महान् आनन्दोत्सव मनाया ॥ ८२ ॥

राजा नन्द ने भी स्वामी कार्तिक के उस अद्भुत प्रभाव को देखकर अत्यन्त सन्तोष प्रकट किया और उसी क्षण उपाध्याय वर्ष के घर को आवश्यक सामग्री से परिपूर्ण कर दिया ॥ ८३ ॥ 
महाकवि श्रीसोमदेवभट्ट - विरचित कथासरित्सागर के प्रथम लम्बक का द्वितीय तरंग समाप्त ।


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