शिव पुराण कथा चरित्र 03 | नारदजी का तप, मोह और भगवान विष्णु को श्राप देना

शिव पुराण कथा चरित्र 03 | नारदजी का तप, मोह और भगवान विष्णु को श्राप देना

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 01-02-03-04 व 05. से संकलित 

★ जो विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और लय आदिके एकमात्र कारण हैं, गौरी गिरिराजकुमारी उमाके पति हैं, तत्त्वज्ञ हैं, जिनकी कीर्तिका कहीं अन्त नहीं है, जो मायाके आश्रय होकर भी उससे अत्यन्त दूर हैं तथा जिनका स्वरूप अचिन्त्य है, उन विमल ब्रोधस्वरूप भगवान् शिवको मैं प्रणाम करता हूँ।

★ मैं स्वभावसे ही उन अनादि, शान्तस्वरूप, एकमात्र पुरुषोत्तम शिवकी वन्दना करता हूँ, जो अपनी मायासे इस सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करके आकाशकी भाँति इसके भीतर और बाहर भी स्थित हैं।

★ जो सबके भीतर अन्तर्यामी रूपसे विराजमान हैं तथा जिनका अपना स्वरूप अत्यन्त गूढ़ है, उन भगवान् शिवकी मैं सादर वन्दना करता हूँ।

🌺🌺🌺🪷 शिव पुराण कथा चरित्र 🪷🌺🌺🌺

जगत् पिता भगवान् शिव, जगन्माता कल्याणमयी पार्वती तथा उनके पुत्र गणेशजीको नमस्कार करके हम इस शिव पुराण कथा चरित्र का वर्णन करते हैं। 

एक समयकी बात है, नैमिषारण्यमें निवास करनेवाले शौनक आदि सभी मुनियों को सूतजी का सानिध्य प्राप्त हुआ। मुनियों के द्वारा उत्तम भक्तिभावके साथ सूतजीसे पूछाने पर उन्होंने शिव पुराण कथा चरित्र और आगे सुनाने की प्रार्थना की।

सूतजीने कहा- मुनीश्वरो ! भगवान् सदाशिवकी कथामें आपलोगोंकी जो आन्तरिक निष्ठा हुई है, इसके लिये आप धन्यवादके पात्र हैं। ब्राह्मणो ! भगवान् शंकरका गुणानुवाद सात्त्विक, राजस और तामस तीनों ही प्रकृतिके मनुष्योंको सदा - आनन्द प्रदान करनेवाला है। 
पशुओंकी हिंसा करनेवाले निष्ठुर कसाई अर्थात मांसाहारियों के सिवा दूसरा - कौन पुरुष उस गुणानुवादको सुननेसे ऊब सकता है। 
भगवान् शिवकी गुणावली संसाररूपी रोगकी दवा है, मन तथा कानोंको प्रिय लगनेवाली और सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाली है ।

ब्राह्मणो ! आपलोगोंके समान ही देवर्षि नारदजीने शिवरूपी भगवान् के गुणों के बारे में शिवभक्त ब्रह्माजी से  पूछा तो वे प्रेमपूर्वक भगवान् शिवके यशको बताने लगे।

* एक समयकी बात है, हिमालय पर्वतमें कोई एक गुफा थी, जो बड़ी शोभासे सम्पन्न दिखायी देती थी। उसके निकट देवनदी गङ्गा निरन्तर वेगपूर्वक बहती थीं। वहाँ एक महान् दिव्य आश्रम था, जो नाना प्रकारकी शोभासे सुशोभित था ।दिव्यदर्शी नारदजी तपस्या करनेके लिये उसी आश्रममें गये। उस गुफाको देखकर मुनिवर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और दीर्घकालतक वहाँ तपस्या करते रहे। उनका अन्तःकरण शुद्ध था। वे दृढ़तापूर्वक आसन बाँधकर मौन हो प्राणायामपूर्वक समाधिमें स्थित हो गये। ब्राह्मणो ! उन्होंने वह समाधि लगायी, जिसमें ब्रह्मका साक्षात्कार करानेवाला 'अहं ब्रह्मास्मि' (मैं ब्रह्म हूँ) - यह विज्ञान प्रकट होता है। 

मुनिवर नारदजी के इस प्रकार तपस्या करने का समाचार पाकर देवराज इन्द्र काँप उठे। वे मानसिक संतापसे विह्वल हो गये। 'उनहें लगा नारदमुनि मेरा राज्य लेना चाहते हैं' - मन-ही-मन ऐसा सोचकर इन्द्रने उनकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये प्रयत्न करनेकी इच्छा की। उस समय देवराजने अपने मनसे कामदेवका स्मरण किया। स्मरण करते ही कामदेव आ गये। महेन्द्रने उन्हें नारदजीकी तपस्यामें विघ्न डालनेका आदेश दिया। यह आज्ञा पाकर कामदेव वसन्तको साथ ले बड़े गर्वसे उस स्थानपर गये और अपना उपाय करने लगे।

उन्होंने वहाँ शीघ्र ही अपनी सारी कलाएँ रच डालीं। वसन्तने भी मदमत्त होकर अपना प्रभाव अनेक प्रकारसे प्रकट किया। मुनिवरो ! कामदेव और वसन्तके अथक प्रयत्न करनेपर भी नारद मुनिके चित्तमें विकार नहीं उत्पन्न हुआ। महादेवजीके अनुग्रहसे उन दोनोंका गर्व चूर्ण हो गया।

शौनक आदि महर्षियो ! ऐसा होनेमें जो कारण था, उसे आदरपूर्वक सुनो। महादेवजीकी कृपासे ही नारदमुनिपर कामदेवका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। पहले उसी आश्रममें कामशत्रु भगवान् शिवने उत्तम तपस्या की थी और वहीं उन्होंने मुनियोंकी तपस्याका नाश करनेवाले कामदेवको शीघ्र ही भस्म कर डाला था। उस समय रतिने कामदेवको पुनः जीवित करनेके लिये देवताओंसे प्रार्थना की। तब देवताओंने समस्त लोकोंका कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरसे याचना की। उनके याचना करनेपर वे बोले- 'देवताओ ! कुछ समय व्यतीत होनेके बाद कामदेव जीवित तो हो जायँगे, परंतु यहाँ उनका कोई उपाय नहीं चल सकेगा। 

अमरगण ! यहाँ खड़े होकर लोग चारों ओर जितनी दूरतककी भूमिको नेत्रसे देख पाते हैं, वहाँतक कामदेवके बाणोंका प्रभाव नहीं चल सकेगा, इसमें संशय नहीं है।' भगवान् शंकरकी इस उक्तिके अनुसार उस समय वहाँ नारदजीके प्रति कामदेवका निजी प्रभाव मिथ्या सिद्ध हुआ। वे शीघ्र ही स्वर्गलोकमें इन्द्रके पास लौट गये। वहाँ कामदेवने अपना सारा वृत्तान्त और मुनिका प्रभाव कह सुनाया, तत्पश्चात् इन्द्रकी आज्ञासे वे वसन्तके साथ अपने स्थानको लौट गये। उस समय देवराज इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ। 

परंतु शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण वे उस पूर्ववृत्तान्तको स्मरण न कर सके । वास्तवमें इस संसारके भीतर सभी प्राणियोंके लिये शम्भुकी मायाको जानना अत्यन्त कठिन है। ऐसा जानकर इस वक्त इन्द्र ने नारदजीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इन्द्र ने भगवान् शिवके चरणोंमें अपने-आपको समर्पित कर दिया है, उसे भक्तको छोड़कर शेष सारा जगत् उनकी मायासे मोहित हो जाता है। * 

नारदजी भी भगवान् शंकरकी कृपासे वहाँ चिरकालतक तपस्यामें लगे रहे। जब उन्होंने अपनी तपस्याको पूर्ण हुई समझा, तब वे मुनि तपस्या से विरत हो गये। 'कामदेवपर मेरी विजय हुई' ऐसा मानकर उन मुनीश्वरके मनमें व्यर्थ ही गर्व हो गया। भगवान् शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण उन्हें यथार्थ बातका ज्ञान नहीं रहा। (वे यह नहीं समझ सके कि कामदेवके पराजित होनेमें भगवान् शंकरका प्रभाव ही कारण है।) उस मायासे अत्यन्त मोहित हो मुनिशिरोमणि नारद अपना काम- विजय-सम्बन्धी वृत्तान्त बतानेके लिये तुरंत ही कैलास पर्वतपर गये। उस समय वे विजयके मदसे उन्मत्त हो रहे थे। वहाँ रुद्रदेवको नमस्कार करके गर्वसे भरे हुए मुनिने अपने-आपको महात्मा मानकर तथा अपने ही मद के प्रभावसे कामदेवपर अपनी विजय हुई समझकर उनसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया

वह सब सुनकर भक्तवत्सल भगवान् शंकरने नारदजीसे, जो अपनी (शिवकी) ही मायासे मोहित होनेके कारण कामविजयके यथार्थ कारणको नहीं जानते थे और अपने विवेकको भी खो बैठे थे, कहा-

रुद्र बोले-
तात नारद ! तुम बड़े विद्वान् हो, धन्यवादके पात्र हो। परंतु मेरी यह बात ध्यान देकर सुनो। अबसे फिर कभी ऐसी बात कहीं भी न कहना। विशेषतः भगवान् विष्णु- के सामने इसकी चर्चा कदापि न करना। तुमने मुझसे अपना जो वृत्तान्त बताया है, उसे पूछनेपर भी दूसरोंके सामने न कहना। यह सिद्धि-सम्बन्धी वृत्तान्त सर्वथा गुप्त रखने योग्य है, इसे कभी किसीपर प्रकट नहीं करना चाहिये। तुम मुझे विशेष प्रिय हो, इसीलिये अधिक जोर देकर मैं तुम्हें यह शिक्षा देता हूँ और इसे न कहनेकी आज्ञा देता हूँ; क्योंकि तुम भगवान् विष्णुके भक्त हो और उनके भक्त होते हुए ही मेरे अत्यन्त अनुगामी हो ।

इस प्रकार बहुत कुछ कहकर संसारकी सृष्टि करनेवाले भगवान् रुद्रने नारदजीको शिक्षा दी - अपने वृत्तान्तको गुप्त रखनेके लिये उन्हें समझाया-बुझाया। परंतु वे तो शिवकी मायासे मोहित थे। इसलिये उन्होंने उनकी दी हुई शिक्षाको अपने लिये हितकर नहीं माना। तदनन्तर मुनिशिरोमणि नारद ब्रह्मलोकमें गये। वहाँ ब्रह्माजीको नमस्कार करके उन्होंने कहा- 'पिताजी ! मैंने अपने तपोबलसे कामदेवको जीत लिया है।' उनकी वह बात सुनकर ब्रह्माजीने भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन किया और सारा कारण जानकर अपने पुत्रको यह सब कहनेसे मना किया। परंतु नारदजी शिवकी मायासे मोहित थे। अतएव उनके चित्तमें मदका अङ्कुर जम गया था। उनकी बुद्धि मारी गयी थी। इसलिये नारदजी अपना सारा वृत्तान्त भगवान् विष्णुके सामने कहनेके लिये वहाँसे शीघ्र ही विष्णुलोकमें गये । नारदमुनिको आते देख भगवान् विष्णु बड़े आदरसे उठे और शीघ्र ही आगे बढ़कर उन्होंने मुनिको हृदयसे लगा लिया। मुनिके आगमनका क्या हेतु है, इसका उन्हें पहलेसे ही पता था। नारदजीको अपने आसनपर बिठाकर भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन करके श्रीहरिने उनसे पूछा -

भगवान् विष्णु बोले- 
तात ! कहाँसे आते हो ? यहाँ किसलिये तुम्हारा आगमन हुआ है ? मुनिश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो । तुम्हारे शुभागमनसे मैं पवित्र हो गया ।
भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर गर्वसे भरे हुए नारदमुनिने मदसे मोहित होकर अपना सारा वृत्तान्त बड़े अभिमानके साथ कह सुनाया। नारदमुनिका वह अहंकारयुक्त वचन सुनकर मन-ही-मन भगवान् विष्णुने उनकी कामविजयके यथार्थ कारणको पूर्णरूपसे जान लिया ।
तत्पश्चात् श्रीविष्णु बोले-मुनिश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, तपस्याके तो भंडार ही हो । तुम्हारा हृदय भी बड़ा उदार है। मुने ! जिसके भीतर भक्ति, ज्ञान और वैराग्य नहीं होते, उसीके मनमें समस्त दुःखोंको देनेवाले काम, मोह आदि विकार शीघ्र उत्पन्न होते हैं। तुम तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो और सदा ज्ञान-वैराग्यसे युक्त रहते हो; फिर तुममें कामविकार कैसे आ सकता है। तुम तो जन्मसे ही निर्विकार तथा शुद्ध बुद्धिवाले हो ।
श्रीहरिकी कही हुई ऐसी बहुत-सी बातें सुनकर मुनिशिरोमणि नारद जोर-जोरसे हँसने लगे और मन-ही-मन भगवान्को प्रणाम करके इस प्रकार बोले-

नारदजीने कहा- 
स्वामिन् ! ! जब मुझपर आपकी कृपा है, तब बेचारा कामदेव अपना क्या प्रभाव दिखा सकता है।
ऐसा कहकर भगवान्के चरणोंमें मस्तक झुकाकर इच्छानुसार विचरनेवाले नारदमुनि वहाँसे चले गये ।

सूतजी कहते हैं-
महर्षियो ! जब नारदमुनि इच्छानुसार वहाँसे चले गये, तब भगवान् शिवकी इच्छासे मायाविशारद श्रीहरिने तत्काल अपनी माया प्रकट की। उन्होंने मुनिके मार्गमें एक विशाल नगरकी रचना की, जिसका विस्तार सौ योजन था । वह अद्भुत नगर बड़ा ही मनोहर था । भगवान्ने उसे अपने वैकुण्ठलोकसे भी अधिक रमणीय बनाया था। नाना प्रकार- की वस्तुएँ उस नगरकी शोभा बढ़ाती थीं। वहाँ स्त्रियों और पुरुषोंके लिये बहुत-से विहार-स्थल थे। वह श्रेष्ठ नगर चारों वर्णोंके लोगोंसे भरा था। वहाँ शीलनिधि नामक ऐश्वर्यशाली राजा राज्य करते थे। वे अपनी पुत्रीका स्वयंवर करनेके लिये उद्यत थे। अतः उन्होंने महान् उत्सवका आयोजन किया था। उनकी कन्याका वरण करनेके लिये उत्सुक हो चारों दिशाओंसे बहुत-से राजकुमार पधारे थे, जो नाना प्रकारकी वेशभूषा तथा सुन्दर शोभासे प्रकाशित हो रहे थे। उन राजकुमारोंसे वह नगर भरा-पूरा दिखायी देता था। ऐसे सुन्दर राजनगरको देख नारदजी मोहित हो गये। वे राजा शीलनिधिके द्वारपर गये। 
मुनिशिरोमणि नारदको आया देख महाराज शीलनिधिने श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासनपर बिठाकर उनका पूजन किया। तत्पश्चात् अपनी सुन्दरी कन्याको, जिसका नाम श्रीमती था, बुलवाया और उससे नारदजीके चरणोंमें प्रणाम करवाया। 

उस कन्याको देखकर नारदमुनि चकित हो गये और बोले- 'राजन् ! यह देवकन्याके समान सुन्दरी महाभागा कन्या कौन है ?' 

उनकी यह बात सुनकर राजाने हाथ जोड़कर कहा - 'मुने ! यह मेरी पुत्री है। इसका नाम श्रीमती है। अब इसके विवाहका समय आ गया है। यह अपने लिये सुन्दर वर चुननेके निमित्त स्वयंवरमें जानेवाली है। इसमें सब प्रकारके शुभ लक्षण लक्षित होते हैं। महर्षे ! आप इसका भाग्य बताइये ।'

राजाके इस प्रकार पूछनेपर कामसे विह्वल हुए मुनिश्रेष्ठ नारद उस कन्याको प्राप्त करनेकी इच्छा मनमें लिये राजाको सम्बोधित करके इस प्रकार बोले- 'भूपाल ! आपकी यह पुत्री समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है, परम सौभाग्यवती है। अपने महान् भाग्यके कारण यह धन्य है और साक्षात् लक्ष्मीकी भाँति समस्त गुणों- की आगार है। इसका भावी पति निश्चय ही भगवान् शंकरके समान वैभवशाली, सर्वेश्वर, किसीसे पराजित न होनेवाला, वीर, कामविजयी तथा सम्पूर्ण देवताओंमें श्रेष्ठ होगा ।'

ऐसा कहकर राजासे विदा ले इच्छानुसार विचरनेवाले नारदमुनि वहाँसे चल दिये । वे कामके वशीभूत हो गये थे। शिवकी मायाने उन्हें विशेष मोहमें डाल दिया था। वे मुनि मन-ही-मन सोचने लगे कि 'मैं इस राजकुमारीको कैसे प्राप्त करूँ ? स्वयंवरमें आये हुए नरेशोंमेंसे सबको छोड़कर यह एकमात्र मेरा ही वरण करे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? समस्त नारियोंको सौन्दर्य सर्वथा प्रिय होता है। सौन्दर्यको देखकर ही वह प्रसन्नतापूर्वक मेरे अधीन हो सकती है, इसमें संशय नहीं है।'

ऐसा विचारकर कामसे विह्वल हुए मुनिवर नारद भगवान् विष्णुका रूप ग्रहण करनेके लिये तत्काल उनके लोकमें जा पहुँचे । वहाँ भगवान् विष्णुको प्रणाम करके वे इस प्रकार बोले- 'भगवन् ! मैं एकान्तमें आपसे अपना सारा वृत्तान्त कहूँगा।' 

तब 'बहुत अच्छा' कहकर लक्ष्मीपति श्रीहरि नारदजीके साथ एकान्तमें जा बैठे और बोले-'मुने ! अब आप अपनी बात कहिये ।'

तब नारदजीने कहा- भगवन् ! आपके भक्त जो राजा शीलनिधि हैं, वे सदा धर्म-पालनमें तत्पर रहते हैं। उनकी एक विशाललोचना कन्या है, जो बहुत ही सुन्दरी है। उसका नाम श्रीमती है। वह विश्व- मोहिनीके रूपमें विख्यात है और तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दरी है। प्रभो ! आज मैं शीघ्र ही उस कन्यासे विवाह करना चाहता हूँ। राजा शीलनिधिने अपनी पुत्रीकी इच्छासे स्वयंवर रचाया है। इसलिये चारों दिशाओंसे वहाँ सहस्रों राजकुमार पधारे हैं। नाथ ! मैं आपका प्रिय सेवक हूँ। अतः आप मुझे अपना स्वरूप दे दीजिये, जिससे राजकुमारी श्रीमती निश्चय ही मुझे वर ले।

सूतजी कहते हैं-महर्षियो ! नारदमुनिकी ऐसी बात सुनकर भगवान् मधुसूदन हँस पड़े और भगवान् शंकरके प्रभावका अनुभव करके उन दयालु प्रभुने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया -

भगवान् विष्णु बोले- मुने ! तुम अपने अभीष्ट स्थानको जाओ। मैं उसी तरह तुम्हारा हित-साधन करूँगा, जैसे श्रेष्ठ वैद्य अत्यन्त पीड़ित रोगीका करता है; क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिय हो ।

ऐसा कहकर भगवान् विष्णुने नारदमुनिको मुख तो वानरका दे दिया और शेष अङ्गोंमें अपने-जैसा स्वरूप देकर वे वहाँसे अन्तर्धान हो गये। भगवान्की पूर्वोक्त बात सुनकर और उनका मनोहर रूप अपने शेष अङ्गोंमें देखकर और भगवान का रूप प्राप्त हो गया यह समझकर नारदमुनिको बड़ा हर्ष हुआ। 

वे अपनेको कृतकृत्य मानने लगे । भगवान्ने क्या प्रयत्न किया है, इसको वे समझ न सके । तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ नारद शीघ्र ही उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ राजा शीलनिधिने राजकुमारोंसे भरी हुई स्वयंवर सभाका आयोजन किया था। 

विप्रवरो ! राजपुत्रोंसे घिरी हुई वह दिव्य स्वयंवर-सभा दूसरी इन्द्रसभाके समान अत्यन्त शोभा पा रही थी। 

नारदजी उस राजसभामें जा बैठे और वहाँ बैठकर प्रसन्न मनसे बार-बार यही सोचने लगे कि 'मैं भगवान् विष्णुके समान रूप धारण किये हुए हूँ। अतः वह राजकुमारी अवश्य मेरा ही वरण करेगी, दूसरेका नहीं।' 

मुनिश्रेष्ठ नारदको यह ज्ञात नहीं था कि मेरा मुँह कितना कुरूप है। उस सभामें बैठे हुए सब मनुष्योंने मुनिको उनके पूर्वरूपमें ही देखा। राजकुमार आदि कोई भी उनके रूप-परिवर्तनके रहस्यको न जान सके । 

भगवान भोलेनाथ सब पर कृपा करते हैं इसी कारण उन्होंने वहाँ नारदजीकी रक्षाके लिये भगवान् रुद्रके दो पार्षद भेज दिये थे, जो ब्राह्मणका रूप धारण करके गूढ़भावसे सभा में बैठे हुए थे। वे ही नारदजीके रूप-परिवर्तनके उत्तम भेदको जानते थे। मुनिको कामावेशसे मूढ हुआ जान वे दोनों पार्षद उनके निकट गये और आपसमें बातचीत करते हुए उनकी हँसी उड़ाने लगे। 

परंतु मुनि तो कामसे विह्वल हो रहे थे। अतः उन्होंने उनकी यथार्थ बात भी अनसुनी कर दी। वे मोहित हो श्रीमतीको प्राप्त करनेकी इच्छासे उसके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे ।

इसी बीचमें वह सुन्दरी राजकन्या स्त्रियोंसे घिरी हुई अन्तःपुरसे वहाँ आयी। उसने अपने हाथमें सोनेकी एक सुन्दर माला ले रखी थी। वह शुभलक्षणा राजकुमारी स्वयंवरके मध्यभागमें लक्ष्मीके समान खड़ी हुई अपूर्व शोभा पा रही थी। उत्तम व्रतका पालन करनेवाली वह भूपकन्या माला हाथमें लेकर अपने मनके अनुरूप वरका अन्वेषण करती हुई सारी सभामें भ्रमण करने लगी। 

नारदमुनिका भगवान् विष्णुके समान शरीर और वानर-जैसा मुँह देखकर वह कुपित हो गयी और उनकी ओरसे दृष्टि हटाकर प्रसन्न मनसे दूसरी ओर चली गयी। स्वयंवर-सभामें अपने मनोवाञ्छित वरको न देखकर वह भयभीत हो गयी। राजकुमारी उस सभाके भीतर चुपचाप खड़ी रह गयी। उसने किसीके गलेमें जयमाला नहीं डाली। 

इतनेमें ही राजाके समान वेशभूषा धारण किये भगवान् विष्णु वहाँ आ पहुँचे। किन्हीं दूसरे लोगोंने उनको वहाँ नहीं देखा। केवल उस कन्याकी ही दृष्टि उनपर पड़ी। भगवान्को देखते ही उस परमसुन्दरी राजकुमारीका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। उसने तत्काल ही उनके कण्ठमें वह माला पहना दी। राजाका रूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु उस राजकुमारीको साथ लेकर तुरंत अदृश्य हो अपने धाममें जा पहुँचे। इधर सब राजकुमार श्रीमतीकी ओरसे निराश हो गये। 

नारदमुनि तो कामवेदनासे आतुर हो रहे थे। इसलिये वे अत्यन्त विह्वल हो उठे। तब वे दोनों विप्ररूपधारी ज्ञानविशारद रुद्रगण काम- विह्वल नारदजीसे उसी क्षण बोले-
रुद्रगणोंने कहा- हे नारद ! हे मुने ! तुम व्यर्थ ही कामसे मोहित हो रहे हो और सौन्दर्यके बलसे राजकुमारीको पाना चाहते हो । अपना वानरके समान घृणित मुँह तो देख लो।

उन रुद्रगणोंका यह वचन सुनकर नारदजीको बड़ा विस्मय हुआ। वे शिवकी मायासे मोहित थे। उन्होंने दर्पणमें अपना मुँह देखा । वानरके समान अपना मुँह देख वे तुरंत ही क्रोधसे जल उठे और मायासे मोहित होनेके कारण उन दोनों शिवगणोंको वहाँ शाप देते हुए बोले- 'अरे ! तुम दोनोंने मुझ ब्राह्मणका उपहास किया है। अतः तुम ब्राह्मणके वीर्यसे उत्पन्न राक्षस हो जाओ । ब्राह्मणकी संतान होनेपर भी तुम्हारे आकार राक्षसके समान ही होंगे।' इस प्रकार अपने लिये शाप सुनकर वे दोनों ज्ञानिशिरोमणि शिवगण मुनिको मोहित जानकर कुछ नहीं बोले । ब्राह्मणो ! वे सदा सब घटनाओंमें भगवान् शिवकी ही इच्छा मानते थे । अतः उदासीन भावसे अपने स्थानको चले गये और भगवान् शिवकी स्तुति करने लगे ।

माया- मोहित नारदमुनि उन दोनों शिवगणोंको यथोचित शाप देकर भी भगवान् शिवके इच्छावश मोहनिद्रासे जाग न सके। वे भगवान् विष्णुके किये हुए कपटको याद करके मनमें दुस्सह क्रोध लिये विष्णुलोकको गये और समिधा पाकर प्रज्वलित हुए अग्निदेवकी भाँति क्रोधसे जलते हुए बोले- उनका ज्ञान नष्ट हो गया था। इसलिये वे दुर्वचनपूर्ण व्यङ्ग सुनाने लगे।

नारदजीने कहा- हरे ! तुम बड़े दुष्ट हो, कपटी हो और समस्त विश्वको मोहमें डाले रहते हो। दूसरोंका उत्साह या उत्कर्ष तुमसे सहा नहीं जाता । तुम मायावी हो, तुम्हारा अन्तःकरण मलिन है। पूर्वकालमें तुम्हींने मोहिनीरूप धारण करके कपट किया, असुरोंको वारुणी मदिरा पिलायी, उन्हें अमृत नहीं पीने दिया। छल-कपटमें ही अनुराग रखनेवाले हरे ! यदि महेश्वर रुद्र दया करके विष न पी लेते तो तुम्हारी सारी माया उसी दिन समाप्त हो जाती। विष्णुदेव ! कपटपूर्ण चाल तुम्हें अधिक प्रिय है। तुम्हारा स्वभाव अच्छा नहीं है, तो भी भगवान् शंकरने तुम्हें स्वतन्त्र बना दिया है। 

तुम्हारी इस चाल-ढालको समझकर अब वे (भगवान् शिव) भी पश्चात्ताप करते होंगे। अपनी वाणीरूप वेदकी प्रामाणिकता स्थापित करनेवाले महादेवजीने ब्राह्मणको सर्वोपरि बताया है। हरे ! इस बातको जानकर आज मैं बलपूर्वक तुम्हें ऐसी सीख दूँगा, जिससे तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कर्म नहीं कर सकोगे । अबतक तुम्हें किसी शक्तिशाली या तेजस्वी पुरुषसे पाला नहीं पड़ा था। इसलिये आजतक तुम निडर बने हुए हो । परंतु विष्णो ! अब तुम्हें अपनी करनीका पूरा-पूरा फल मिलेगा !

भगवान् विष्णुसे ऐसा कहकर मायामोहित नारदमुनि अपने ब्रह्मतेजका प्रदर्शन करते हुए क्रोधसे खिन्न हो उठे और शाप देते हुए बोले- 'विष्णो ! तुमने स्त्रीके लिये मुझे व्याकुल किया है। तुम इसी तरह सबको मोहमें डालते रहते हो । यह कपटपूर्ण कार्य करते हुए तुमने जिस स्वरूपसे मुझे संयुक्त किया था, उसी स्वरूपसे तुम मनुष्य हो जाओ और स्त्रीके वियोगका दुःख भोगो । तुमने जिन वानरोंके समान मेरा मुँह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक हों। तुम दूसरोंको (स्त्री-विरहका) दुःख देनेवाले हो, अतः स्वयं भी तुम्हें स्त्रीके वियोगका दुःख प्राप्त हो । अज्ञानसे मोहित मनुष्योंके समान तुम्हारी स्थिति हो।'

अज्ञानसे मोहित हुए नारदजीने मोहवश श्रीहरिको जब इस तरह शाप दिया, तब उन्होंने शम्भुकी मायाकी प्रशंसा करते हुए उस शापको स्वीकार कर लिया । तदनन्तर महालीला करनेवाले शम्भुने अपनी उस विश्वमोहिनी मायाको, जिसके कारण ज्ञानी नारदमुनि भी मोहित हो गये थे, खींच लिया। उस मायाके तिरोहित होते ही नारदजी पूर्ववत् शुद्धबुद्धिसे युक्त हो गये ।

उन्हें पूर्ववत् ज्ञान प्राप्त हो गया और उनकी सारी व्याकुलता जाती रही। इससे उनके मनमें बड़ा विस्मय हुआ। वे अधिकाधिक पश्चात्ताप करते हुए बारंबार अपनी निन्दा करने लगे। उस समय उन्होंने ज्ञानीको भी मोहमें डालनेवाली भगवान् शम्भुकी मायाकी सराहना की। तदनन्तर यह जानकर कि मायाके कारण ही मैं भ्रममें पड़ गया था - यह सब कुछ मेरा माया-जनित भ्रम ही था, वैष्णवशिरोमणि नारदजी भगवान् विष्णुके चरणमें गिर पड़े । भगवान् श्रीहरिने उन्हें उठाकर खड़ा कर दिया। उस समय अपनी दुर्बुद्धि नष्ट हो जानेके कारण वे यों बोले 'नाथ ! मायासे मोहित होनेके कारण मेरी बुद्धि बिगड़ गयी थी। इसलिये मैंने आपके प्रति बहुत दुर्वचन कहे हैं, आपको शापतक दे डाला है। प्रभो ! उस शापको आप मिथ्या कर दीजिये । हाय ! मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। अब मैं निश्चय ही नरकमें पड़ेगा। हरे ! मैं आपका दास हूँ। बताइये, मैं क्या उपाय -कौन-सा प्रायश्चित्त करूँ, जिससे मेरा पाप-समूह नष्ट हो जाय और मुझे नरकमें न गिरना पड़े।' ऐसा कहकर शुद्ध बुद्धिवाले मुनिशिरोमणि नारदजी पुनः भक्तिभावसे भगवान् विष्णुके चरणोंमें गिर पड़े। उस समय उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था। तब श्रीविष्णुने उन्हें उठाकर मधुर वाणीमें कहा -

भगवान् विष्णु बोले-
तात ! खेद न करो। तुम मेरे श्रेष्ठ भक्त हो, इसमें संशय नहीं है। मैं तुम्हें एक बात बताता हूँ, सुनो । उससे निश्चय ही तुम्हारा परम हित होगा, तुम्हें नरकमें नहीं जाना पड़ेगा। भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे। तुमने मदसे मोहित होकर जो भगवान् शिवकी बात नहीं मानी थी - उसकी अवहेलना कर दी थी, उसी अपराधका भगवान् शिवने तुम्हें ऐसा फल दिया है; क्योंकि वे ही कर्मफलके दाता हैं। तुम अपने मनमें यह दृढ़ निश्चय कर लो कि भगवान् शिवकी इच्छासे ही यह सब कुछ हुआ है। सबके स्वामी परमेश्वर शंकर ही गर्वको दूर करनेवाले हैं। वे ही परब्रह्म परमात्मा हैं। उन्हींका सच्चिदानन्दरूपसे बोध होता है। वे निर्गुण और निर्विकार हैं। सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणोंसे परे हैं। वे ही अपनी मायाको लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश - इन तीन रूपोंमें प्रकट होते हैं। निर्गुण और सगुण भी वे ही हैं। निर्गुण अवस्थामें उन्हींका नाम शिव है। वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनन्त और महादेव आदि नामोंसे कहे जाते हैं। उन्हींकी सेवासे ब्रह्माजी जगत्के स्त्रष्टा हुए हैं और मैं तीनों लोकोंका पालन करता हूँ। वे स्वयं ही रुद्ररूपसे सदा सबका संहार करते हैं। वे शिवस्वरूपसे सबके साक्षी हैं, मायासे भिन्न और निर्गुण हैं। स्वतन्त्र होनेके कारण वे अपनी इच्छाके अनुसार चलते हैं। उनका विहार - आचार-व्यवहार उत्तम है और वे भक्तोंपर दया करनेवाले हैं। नारदमुने ! मैं तुम्हें एक सुन्दर उपाय बताता हूँ, जो सुखद, समस्त पापोंका नाशक और सदा भोग एवं मोक्ष देनेवाला है। तुम उसे सुनो। अपने सारे संशयोंको त्यागकर तुम भगवान् शंकरके सुयशका गान करो और सदा अनन्यभावसे शिवके शतनामस्तोत्रका पाठ करो। मुने ! तुम निरन्तर उन्हींकी उपासना और उन्हींका भजन करो। 

उन्हींके यशको सुनो और गाओ तथा प्रतिदिन उन्हींकी पूजा-अर्चा करते रहो । नारद ! जो शरीर, मन और वाणीद्वारा भगवान् शंकरकी उपासना करता है, उसे पण्डित या ज्ञानी जानना चाहिये। वह जीवन्मुक्त कहलाता है। 'शिव' इस नामरूपी दावानलसे बड़े-बड़े पातकोंके असंख्य पर्वत अनायास भस्म हो जाते हैं - यह सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है।* 

जो भगवान् शिवके नामरूपी नौकाका आश्रय लेते हैं, वे संसार-सागरसे पार हो जाते हैं। संसारके मूलभूत उनके सारे पाप निस्संदेह नष्ट हो जाते हैं। महामुने ! संसारके मूलभूत जो पातकरूपी वृक्ष हैं, उनका शिवनामरूपी कुठारसे निश्चय ही नाश हो जाता है।।

जो लोग पापरूपी दावानलसे पीड़ित हैं, उन्हें शिवनामरूपी अमृतका पान करना चाहिये। पापदावाग्निसे दग्ध होनेवाले प्राणियोंको उस (शिवनामामृत) के बिना शान्ति नहीं मिल सकती । सम्पूर्ण वेदोंका अवलोकन करके पूर्ववर्ती विद्वानोंने यही निश्चय किया है कि भगवान् शिवकी पूजा ही उत्कृष्ट साधन तथा जन्म-मरणरूपी संसारबन्धनके नाशका उपाय है । आजसे यत्नपूर्वक सावधान रहकर विधि-विधानके साथ भक्तिभावसे नित्य-निरन्तर जगदम्बा पार्वतीसहित महेश्वर सदाशिवका भजन करो, नित्य शिवकी ही कथा सुनो और कहो तथा अत्यन्त यत्न करके बारंबार शिव-भक्तोंका पूजन किया करो । मुनिश्रेष्ठ ! - अपने हृदयमें भगवान् शिवके उज्ज्वल चरणारविन्दोंकी स्थापना करके पहले शिवके तीर्थोंमें विचरो । 

मुने ! इस प्रकार परमात्मा शंकरके अनुपम माहात्म्यका दर्शन करते हुए अन्तमें आनन्दवन (काशी) को जाओ, वह स्थान भगवान् शिवको बहुत ही प्रिय है। वहाँ भक्तिपूर्वक विश्वनाथजीका दर्शन-पूजन करो । विशेषतः उनकी स्तुति- वन्दना करके तुम निर्विकल्प (संशयरहित) हो जाओगे, नारदजी ! इसके बाद तुम्हें मेरी आज्ञासे भक्तिपूर्वक अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये निश्चय ही ब्रह्मलोकमें जाना चाहिये। वहाँ अपने पिता ब्रह्माजीकी विशेषरूपसे स्तुति-वन्दना करके तुम्हें प्रसन्नतापूर्ण हृदयसे बारंबार शिव-महिमाके विषयमें प्रश्न करना चाहिये । ब्रह्माजी शिव-भक्तोंमें श्रेष्ठ हैं। वे तुम्हें बड़ी प्रसन्नताके साथ भगवान् शंकरका माहात्य और शतनामस्तोत्र सुनायेंगे । मुने ! आजसे तुम शिवाराधनमें तत्पर रहनेवाले शिवभक्त हो जाओ और विशेषरूपसे मोक्षके भागी बनो। भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार प्रसन्नचित्त हुए भगवान् विष्णु नारदमुनिको प्रेमपूर्वक उपदेश देकर श्रीशिवका स्मरण, वन्दन और स्तवन करके वहाँसे अन्तर्धान हो गये ।

भगवान् श्रीहरिके अन्तर्धान हो जानेपर मुनिश्रेष्ठ नारद शिवलिङ्गोंका भक्तिपूर्वक दर्शन करते हुए पृथ्वीपर विचरने लगे । ब्राह्मणो ! भूमण्डलपर घूम-फिरकर उन्होंने भोग और मोक्ष देनेवाले बहुत-से शिवलिङ्गोंका प्रेमपूर्वक दर्शन किया । 

दिव्यदर्शी नारदजी भूतलके तीर्थोंमें विचर रहे हैं और इस समय उनका चित्त शुद्ध है - यह जानकर वे दोनों शिवगण उनके पास गये । वे उनके दिये हुए शापसे उद्वारकी इच्छा रखकर वहाँ गये थे । उन्होंने आदरपूर्वक मुनिके दोनों पैर पकड़ लिये और मस्तक झुकाकर भलीभाँति प्रणाम करके शीघ्र ही इस प्रकार कहा-

शिवगण बोले- 
ब्रह्मन् ! हम दोनों शिवके गण हैं। मुने ! हमने ही आपका अपराध किया है। राजकुमारी श्रीमतीके स्वयंवरमें आपका चित्त मायासे मोहित हो रहा था। उस समय परमेश्वरकी प्रेरणासे आपने हम दोनोंको शाप दे दिया। वहाँ कुसमय जानकर हमने चुप रह जाना ही अपनी जीवन-रक्षाका उपाय समझा। इसमें किसीका दोष नहीं है। हमें अपने कर्मका ही फल प्राप्त हुआ है। प्रभो ! अब आप प्रसन्न होइये और हम दोनोंपर अनुग्रह कीजिये ।

नारदजीने कहा- 
आप दोनों महादेवजीके गण हैं और सत्पुरुषोंके लिये परम सम्माननीय हैं। अतः मेरे मोहरहित एवं सुखदायक यथार्थ वचनको सुनिये । पहले निश्चय ही मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी, बिगड़ गयी थी और मैं सर्वथा मोहके वशीभूत हो गया था। इसीलिये आप दोनोंको मैंने शाप दे दिया । शिवगणो ! मैंने जो कुछ कहा है, वह वैसा ही होगा, तथापि मेरी बात सुनिये । मैं आपके लिये शापोद्धारकी बात बता रहा हूँ। आपलोग आज मेरे अपराधको क्षमा कर दें। मुनिवर विश्रवाके वीर्यसे जन्म ग्रहण करके आप सम्पूर्ण दिशाओंमें प्रसिद्ध (कुम्भकर्ण-रावण) राक्षसराजका पद प्राप्त करेंगे और बलवान्, वैभवसे युक्त तथा परम प्रतापी होंगे। समस्त ब्रह्माण्डके राजा होकर शिवभक्त एवं जितेन्द्रिय होंगे और शिवके ही दूसरे स्वरूप श्रीविष्णुके हाथों मृत्यु पाकर फिर अपने पदपर प्रतिष्ठित हो जायँगे ।

महर्षियो ! महात्मा नारदमुनिकी यह बात सुनकर वे दोनों शिवगण प्रसन्न हो सानन्द अपने स्थानको लौट गये । श्रीनारदजी भी अत्यन्त आनन्दित हो अनन्यभावसे भगवान् शिवका ध्यान तथा शिवतीर्थोंका दर्शन करते हुए बारंबार भूमण्डलमें विचरने लगे । अन्तमें वे सबके ऊपर विराजमान शिवप्रिया काशीपुरीमें गये, जो शिवस्वरूपिणी एवं शिवको सुख देनेवाली है। काशीपुरीका दर्शन करके नारदजी कृतार्थ हो गये । उन्होंने भगवान् काशीनाथका दर्शन किया और परम प्रेम एवं परमानन्दसे युक्त हो उनकी पूजा की। काशीका सानन्द सेवन करके वे मुनिश्श्रेष्ठ कृतार्थताका अनुभव करने लगे और प्रेमसे विह्वल हो उसका नमन, वर्णन तथा स्मरण करते हुए ब्रह्मलोकको गये। निरन्तर शिवका स्मरण करनेसे उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी थी। 

🌺🌺🌺🪷🪷शिव पुराण कथा चरित्र🪷🪷🌺🌺🌺

ब्रह्मलोक पहुँचकर शिवतत्त्वका विशेषरूपसे ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे नारदजीने ब्रह्माजीको भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति करके उनसे शिवतत्त्वके विषयमें पूछा। उस समय नारदजीका हृदय भगवान् शंकरके प्रति भक्तिभावनासे परिपूर्ण था । 

नारदजी बोले-ब्रह्मन् ! परब्रह्म परमात्माके स्वरूपको जाननेवाले पितामह ! जगत्प्रभो ! आपके कृपाप्रसादसे मैंने भगवान् विष्णुके उत्तम माहात्म्यका पूर्णतया ज्ञान प्राप्त किया है। भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग, अत्यन्त दुस्तर तपोमार्ग, दानमार्ग तथा तीर्थमार्गका भी वर्णन सुना है। परंतु शिवतत्त्वका ज्ञान मुझे अभीतक नहीं हुआ है। मैं भगवान् शंकरकी पूजा-विधिको भी नहीं जानता । अतः प्रभो ! आप क्रमशः इन विषयोंको तथा भगवान् शिवके विविध चरित्रोंको तथा उनके स्वरूप-तत्त्व, प्राकट्य, विवाह, गार्हस्थ्य धर्म- सब मुझे बताइये। निष्पाप पितामह ! ये सब बातें तथा और भी जो आवश्यक बातें हों, उन सबका आपको वर्णन करना चाहिये । प्रजानाथ ! शिव और शिवाके आविर्भाव एवं विवाहका प्रसङ्ग विशेषरूपसे कहिये - तथा कार्तिकेयके जन्मकी कथा भी मुझे सुनाइये । प्रभो ! पहले बहुत लोगोंसे मैंने ये बातें सुनी हैं, किंतु तृप्त नहीं हो सका हूँ। इसीलिये आपकी शरणमें आया हूँ। आप मुझपर कृपा कीजिये । अपने पुत्र नारदकी यह बात सुनकर लोक-पितामह ब्रह्मा वहाँ इस प्रकार बोले-

(अध्याय १ से ५ तक)

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