05. कोटिरुद्रसंहिता | 05. मल्लिकार्जुन और महाकालनामक ज्योतिर्लिङ्गोंके आविर्भावकी कथा तथा उनकी महिमा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 05. मल्लिकार्जुन और महाकालनामक ज्योतिर्लिङ्गोंके आविर्भावकी कथा तथा उनकी महिमा

सूतजी कहते हैं - महर्षियो ! अब मैं मल्लिकार्जुनके प्रादुर्भावका प्रसङ्ग सुनाता हूँ, जिसे सुनकर बुद्धिमान् पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जब महाबली तारकशत्रु शिवापुत्र कुमार कार्तिकेय सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करके फिर कैलास पर्वतपर आये और गणेशके विवाह आदिकी बात सुनकर क्रौञ्च पर्वतपर चले गये, पार्वती और शिवजीके वहाँ जाकर अनुरोध करनेपर भी नहीं लौटे तथा वहाँसे भी बारह कोस दूर चले गये, तब शिव और पार्वती ज्योतिर्मय स्वरूप धारण करके वहाँ प्रतिष्ठित हो गये।

वे दोनों पुत्रस्नेहसे आतुर हो पर्वके दिन अपने पुत्र कुमारको देखनेके लिये उनके पास जाया करते हैं। अमावस्याके दिन भगवान् शंकर स्वयं वहाँ जाते हैं और पौर्णमासीके दिन पार्वतीजी निश्चय ही वहाँ पदार्पण करती हैं। उसी दिनसे लेकर भगवान् शिवका मल्लिकार्जुन नामक एक लिङ्ग तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हुआ। (उसमें पार्वती और शिव दोनोंकी ज्योतियाँ प्रतिष्ठित हैं। 'मल्लिका' का अर्थ पार्वती है और 'अर्जुन' शब्द शिवका वाचक है।) उस लिङ्गका जो दर्शन करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है और सम्पूर्ण अभीष्टको प्राप्त कर लेता है। इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार मल्लिकार्जुन नामक द्वितीय ज्योतिर्लिङ्गका वर्णन किया गया, जो दर्शनमात्रसे लोगोंके लिये सब प्रकारका सुख देनेवाला बताया गया है।

ऋषियोंने कहा- प्रभो ! अब आप विशेष कृपा करके तीसरे ज्योतिर्लिङ्गका वर्णन कीजिये ।

सूतजीने कहा - ब्राह्मणो ! मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ, जो आप श्रीमानोंका सङ्ग मुझे प्राप्त हुआ। साधु पुरुषोंका सङ्ग निश्चय ही धन्य है। अतः मैं अपना सौभाग्य समझकर पापनाशिनी परम पावनी दिव्य कथाका वर्णन करता हूँ। तुमलोग आदरपूर्वक सुनो। अवन्ति नामसे प्रसिद्ध एक रमणीय नगरी है, जो समस्त देहधारियोंको मोक्ष प्रदान करनेवाली है। वह भगवान् शिवको बहुत ही प्रिय, परम पुण्यमयी और लोकपावनी है। उस पुरीमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे, जो शुभकर्मपरायण, वेदोंके स्वाध्यायमें संलग्न तथा वैदिक कर्मोंके अनुष्ठानमें सदा तत्पर रहनेवाले थे। वे घरमें अग्निकी स्थापना करके प्रतिदिन अग्निहोत्र करते और शिवकी पूजामें सदा तत्पर रहते थे। वे ब्राह्मण देवता प्रतिदिन पार्थिव शिवलिङ्ग बनाकर उसकी पूजा किया करते थे। वेदप्रिय नामक वे ब्राह्मण देवता सम्यक् ज्ञानार्जनमें लगे रहते थे; इसलिये उन्होंने सम्पूर्ण कर्मोंका फल पाकर वह सद्गति प्राप्त कर ली, जो संतोंको ही सुलभ होती है। उनके शिवपूजापरायण चार तेजस्वी पुत्र थे, जो पिता-मातासे सद्गुणोंमें कम नहीं थे। उनके नाम थे- देवप्रिय, प्रियमेधा, सुकृत और सुव्रत ।

उनके सुखदायक गुण वहाँ सदा बढ़ने लगे। उनके कारण अवन्ति नगरी ब्रह्मतेजसे परिपूर्ण हो गयी थी।

उसी समय रत्नमाल पर्वतघर दूषण नामक एक धर्मद्वेषी असुरने ब्रह्माजीसे का पाकर वेद, धर्म तथा धर्मात्माओंपा आक्रमण किया। अन्तमें उसने सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) के ब्राह्मणोंपर भी चढ़ाई कर दी। उसकी आज्ञासे चार भयानक दैत्य चारों दिशाओंमें प्रलयाग्निके समान प्रकट हो गये, परंतु वे शिवविश्वासी ब्राह्मण-बन्धु उनसे डरे नहीं। जब नगरके ब्राह्मण बहुत घबरा गये, तब उन्होंने उनको आश्वासन देते हुए कहा - 'आपलोग भक्तवत्सल भगवान् शंकरपर भरोसा रखें।' यों कह शिव- लिङ्गका पूजन करके वे भगवान् शिवका ध्यान करने लगे ।

इतनेमें ही सेनासहित दूषणने आकर उन ब्राह्मणोंको देखा और कहा- 'इन्हें मार डालो, बाँध लो।' वेदप्रियके पुत्र उन ब्राह्मणोंने उस समय उस दैत्यकी कही हुई वह बात नहीं सुनी; क्योंकि वे भगवान् शम्भुके ध्यान-मार्गमें स्थित थे। उस दुष्टात्मा दैत्यने ज्यों ही उन ब्राह्मणोंको मारनेकी इच्छा की, त्यों ही उनके द्वारा पूजित पार्थिव शिवलिङ्गके स्थानमें बड़ी भारी आवाजके साथ एक गड्डा प्रकट हो गया। उस गड्डेसे तत्काल विकटरूपधारी भगवान् शिव प्रकट हो गये, जो महाकाल नामसे विख्यात हुए। वे दुष्टोंके विनाशक तथा सत्पुरुषोंके आश्रयदाता हैं। उन्होंने उन दैत्योंसे कहा- 'अरे खल ! मैं तुझ जैसे दुष्टोंके लिये महाकाल प्रकट हुआ हूँ। तुम इन ब्राह्मणोंके निकटसे दूर भाग जाओ।'

ऐसा कहकर महाकाल शंकरने सेनासहित दूषणको अपने हुंकारमात्रसे तत्काल भस्म कर दिया। कुछ सेना उनके द्वारा मारी गयी और कुछ भाग खड़ी हुई। परमात्मा शिवने दूषणका वध कर डाला। जैसे सूर्यको देखकर सम्पूर्ण अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् शिवको देखकर उसकी सारी सेना अदृश्य हो गयी। देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं और आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी। उन ब्राह्मणोंको आश्वासन दे सुप्रसन्न हुए स्वयं महाकाल महेश्वर शिवने उनसे कहा- तुमलोग वर माँगो।' उनकी वह बात सुनकर वे सब ब्राह्मण हाथ जोड़ भक्ति- भावसे भलीभाँति प्रणाम करके नतमस्तक हो बोले।

द्विजोंने कहा- महाकाल ! महादेव ! दुष्टोंको दण्ड देनेवाले प्रभो ! शम्भो ! आप हमें संसारसागरसे मोक्ष प्रदान करें । शिव ! आप जनसाधारणकी रक्षाके लिये सदा यहीं रहें। प्रभो ! शम्भो ! अपना दर्शन करनेवाले मनुष्योंका आप सदा ही उद्धार करें।

सूतजी कहते हैं- महर्षियो ! उनके ऐसा कहनेपर उन्हें सद्गति दे भगवान् शिव अपने भक्तोंकी रक्षाके लिये उस परम सुन्दर गड्डेमें स्थित हो गये। वे ब्राह्मण मोक्ष पा गये और वहाँ चारों ओरकी एक-एक कोस भूमि लिङ्गरूपी भगवान् शिवका स्थल बन गयी । वे शिव भूतलपर महाकालेश्वरके नामसे विख्यात हुए। ब्राह्मणो ! उनका दर्शन करनेसे स्वप्नमें भी कोई दुःख नहीं होता। जिस-जिस कामनाको लेकर कोई उस लिङ्गकी उपासना करता है, उसे वह अपना मनोरथ प्राप्त हो जाता है तथा परलोकमें मोक्ष भी मिल जाता है।
(अध्याय १५-१६)

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