05. कोटिरुद्रसंहिता | 08. केदारेश्वर तथा भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिङ्गोंके आविर्भावकी कथा तथा उनके माहात्म्यका वर्णन

05. कोटिरुद्रसंहिता | 08. केदारेश्वर तथा भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिङ्गोंके आविर्भावकी कथा तथा उनके माहात्म्यका वर्णन

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! भगवान् विष्णुके जो नर-नारायण नामक दो अवतार हैं और भारतवर्षके बदरिकाश्रमतीर्थमें तपस्या करते हैं, उन दोनोंने पार्थिव शिवलिङ्ग बनाकर उसमें स्थित हो पूजा ग्रहण करनेके लिये भगवान् शम्भुसे प्रार्थना की। शिवजी भक्तोंके अधीन होनेके कारण प्रतिदिन उनके बनाये हुए पार्थिवलिङ्गमें पूजित होनेके लिये आया करते थे। जब उन दोनोंके पार्थिव-पूजन करते बहुत दिन बीत गये, तब एक समय परमेश्वर शिवने प्रसन्न होकर कहा- 'मैं तुम्हारी आराधनासे बहुत संतुष्ट हूँ। तुम दोनों मुझसे वर माँगो ।' उस समय उनके ऐसा कहनेपर नर और नारायणने लोगोंके हितकी कामनासे कहा- 'देवेश्वर ! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मुझे वर देना चाहते हैं तो अपने स्वरूपसे पूजा ग्रहण करनेके लिये यहीं स्थित हो जाइये।'

उन दोनों बन्धुओंके इस प्रकार अनुरोध करनेपर कल्याणकारी महेश्वर हिमालयके उस केदारतीर्थमें स्वयं ज्योतिर्लिङ्गके रूपमें स्थित हो गये। उन दोनोंसे पूजित होकर सम्पूर्ण दुःख और भयका नाश करनेवाले शम्भु लोगोंका उपकार करने और भक्तोंको दर्शन देनेके लिये स्वयं केदारेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हो वहाँ रहते हैं। वे दर्शन और पूजन करनेवाले भक्तोंको सदा अभीष्ट वस्तु प्रदान करते हैं। उसी दिनसे लेकर जिसने भी भक्तिभावसे केदारेश्वरका पूजन किया, उसके लिये स्वप्नमें भी दुःख दुर्लभ हो गया। जो भगवान् शिवका प्रिय भक्त वहाँ शिवलिङ्गके निकट शिवके रूपसे अङ्कित वलय (कङ्कण या कड़ा) चढ़ाता है, वह उस वलययुक्त स्वरूपका दर्शन करके समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है, साथ ही जीवन्मुक्त भी हो जाता है। जो बदरीवनकी यात्रा करता है, उसे भी जीवन्मुक्ति प्राप्त होती है। नर और नारायणके तथा केदारेश्वर शिवके रूपका दर्शन करके मनुष्य मोक्षका भागी होता है, इसमें संशय नहीं है। केदारेश्वरमें भक्ति रखनेवाले जो पुरुष वहाँकी यात्रा आरम्भ करके उनके पासतक पहुँचनेके पहले मार्गमें ही मर जाते हैं, वे भी मोक्ष पा जाते हैं- इसमें विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। 
केदारेशस्य भक्ता ये मार्गस्थास्तस्य वै मृताः। 
तेऽपि मुक्ता भवन्त्येव नात्र कार्या विचारणा ॥
(शि० पु० कोटिरुद्रसंहिता १९ ।२२)

केदारतीर्थमें पहुँचकर वहाँ प्रेमपूर्वक केदारेश्वरकी पूजा करके वहाँका जल पी लेनेके पश्चात् मनुष्यका फिर जन्म नहीं होता। ब्राह्मणो ! इस भारतवर्षमें सम्पूर्ण जीवोंको भक्तिभावसे भगवान् नर नारायणकी तथा केदारेश्वर शम्भुकी पूजा करनी चाहिये ।

अब मैं भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिङ्गका माहात्म्य कहूँगा। कामरूप देशमें लोकहितकी कामनासे साक्षात् भगवान् शंकर ज्योतिर्लिङ्गके रूपमें अवतीर्ण हुए थे। उनका वह स्वरूप कल्याण और सुखका आश्रय है। ब्राह्मणो ! पूर्वकालमें एक महापराक्रमी राक्षस हुआ था, जिसका नाम भीम था। वह सदा धर्मका विध्वंस करता और समस्त प्राणियोंको दुःख देता था। वह महाबली राक्षस कुम्भकर्णके वीर्य और कर्कटीके गर्भसे उत्पन्न हुआ था तथा अपनी माताके साथ सह्य पर्वतपर निवास करता था। एक दिन समस्त लोकोंको दुःख देनेवाले भयानक पराक्रमी दुष्ट भीमने अपनी मातासे पूछा- 'माँ ! मेरे पिताजी कहाँ हैं ? तुम अकेली क्यों रहती हो ? मैं यह सब जानना चाहता हूँ। अतः यथार्थ बात बताओ।'

कर्कटी बोली- बेटा ! रावणके छोटे भाई कुम्भकर्ण तेरे पिता थे। भाईसहित उस महाबली वीरको श्रीरामने मार डाला। मेरे पिताका नाम कर्कट और माताका नाम पुष्कसी था। विराध मेरे पति थे, जिन्हें पूर्वकालमें रामने मार डाला। अपने प्रिय स्वामीके मारे जानेपर मैं अपने माता-पिताके पास रहती थी। एक दिन मेरे माता-पिता अगस्त्य मुनिके शिष्य सुतीक्ष्णको अपना आहार बनानेके लिये गये। वे बड़े तपस्वी और महात्मा थे। उन्होंने कुपित होकर मेरे माता-पिताको भस्म कर डाला। वे दोनों मर गये। तबसे मैं अकेली होकर बड़े दुःखके साथ इस पर्वतपर रहने लगी। मेरा कोई अवलम्ब नहीं रह गया। मैं असहाय और  दुःखसे आतुर होकर यहाँ निवास करती थी। इसी समय महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न राक्षस कुम्भकर्ण जो रावणके छोटे भाई थे, यहाँ आये। उन्होंने बलात् मेरे साथ समागम किया। फिर वे मुझे छोड़कर लङ्का चले गये । तत्पश्चात् तुम्हारा जन्म हुआ। तुम भी पिताके समान ही महान् बलवान् और पराक्रमी हो। अब मैं तुम्हारा ही सहारा लेकर यहाँ कालक्षेप करती हूँ।

सूतजी कहते है- ब्राह्मणो ! कर्कटीकी यह बात सुनकर भयानक पराक्रमी भीम कुपित हो यह विचार करने लगा कि 'मैं विष्णुके साथ कैसा बर्ताव करूँ ? इन्होंने मेरे पिताको मार डाला। मेरे नाना-नानी भी उनके भक्तके हाथसे मारे गये। विराधको भी इन्होंने ही मार डाला और इस प्रकार मुझे बहुत दुःख दिया। यदि मैं अपने पिताका पुत्र हूँ तो श्रीहरिको अवश्य पीड़ा दूँगा ।'

ऐसा निश्चय करके भीम महान् तप करनेके लिये चला गया। उसने ब्रह्माजीकी प्रसन्नताके लिये एक हजार वर्षांतक महान् तप किया। तपस्याके साथ-साथ वह मन ही-मन इष्टदेवका ध्यान किया करता था। तब लोकपितामह ब्रह्मा उसे वर देनेके लिये गये और इस प्रकार बोले ।

ब्रह्माजीने कहा- भीम ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो, उसके अनुसार वर माँगो ।

भीम बोला- देवेश्वर ! कमलासन ! यदि आप प्रसन्न हैं और मुझे वर देना चाहते हैं तो आज मुझे ऐसा बल दीजिये, जिसकी कहीं तुलना न हो ।

सूतजी कहते हैं- ऐसा कहकर उस राक्षसने ब्रह्माजीको नमस्कार किया और ब्रह्माजी भी उसे अभीष्ट वर देकर अपने धामको चले गये। ब्रह्माजीसे अत्यन्त बल पाकर राक्षस अपने घर आया और माताको प्रणाम करके शीघ्रतापूर्वक बड़े गर्वसे बोला- 'माँ ! अब तुम मेरा बल देखो। मैं इन्द्र आदि देवताओं तथा इनकी सहायता करनेवाले श्रीहरिका महान् संहार कर डालूँगा।' ऐसा कहकर भयानक पराक्रमी भीमने पहले इन्द्र आदि देवताओंको जीता और उन सबको अपने-अपने स्थानसे निकाल बाहर किया। तदनन्तर देवताओंकी प्रार्थनासे उनका पक्ष लेनेवाले श्रीहरिको भी उसने युद्धमें हराया। फिर प्रसन्नतापूर्वक पृथ्वीको जीतना प्रारम्भ किया। सबसे पहले वह कामरूप देशके राजा सुदक्षिणको जीतनेके लिये गया। वहाँ राजाके साथ उसका भयंकर युद्ध हुआ। दुष्ट असुर भीमने ब्रह्माजीके दिये हुए वरके प्रभावसे शिवके आश्रित रहनेवाले महावीर महाराज सुदक्षिणको परास्त कर दिया और सब सामग्रियोंसहित उनका राज्य तथा सर्वस्व अपने अधिकारमें कर लिया। भगवान् शिवके प्रिय भक्त धर्मप्रेमी परम धर्मात्मा राजाको भी उसने कैद कर लिया और उनके पैरोंमें बेड़ी डालकर उन्हें एकान्त स्थानमें बंद कर दिया। वहाँ उन्होंने भगवान्‌की प्रीतिके लिये शिवकी उत्तम पार्थिवमूर्ति बनाकर उन्हींका भजन-पूजन आरम्भ कर दिया । उन्होंने बारंबार गङ्गाजीकी स्तुति की और मानसिक स्नान आदि करके पार्थिव- पूजनकी विधिसे शंकरजीकी पूजा सम्पन्न की। विधिपूर्वक भगवान् शिवका ध्यान करके वे प्रणवयुक्त पञ्चाक्षरमन्त्र (ॐ नमः शिवाय) का जप करने लगे। अब उन्हें दूसरा कोई काम करनेके लिये अवकाश नहीं मिलता था। उन दिनों उनकी साध्वी पत्नी राजवल्लभा दक्षिणा प्रेमपूर्वक पार्थिव-पूजन किया करती थीं। वे दम्पति अनन्यभावसे भक्तोंका कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरका भजन करते और प्रतिदिन उन्हींकी आराधनामें तत्पर रहते थे। इधर वह राक्षस वरके अभिमानसे मोहित हो यज्ञकर्म आदि सब धर्मोंका लोप करने लगा और सबसे कहने लगा- 'तुम लोग सब कुछ मुझे ही दो ।' महर्षियो ! दुरात्मा राक्षसोंकी बहुत बड़ी सेना साथ ले उसने सारी पृथ्वीको अपने वशमें कर लिया। वह वेदों, शास्त्रों, स्मृतियों और पुराणोंमें बताये हुए धर्मका लोप करके शक्तिशाली होनेके कारण सबका स्वयं ही उपभोग करने लगा।

तब सब देवता तथा ऋषि अत्यन्त पीड़ित हो महाकोशीके तटपर गये और शिवका आराधन तथा स्तवन करने लगे। उनके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् शिव अत्यन्त प्रसन्न हो देवताओंसे बोले- 'देवगण तथा महर्षियो ! मैं प्रसन्न हूँ। वर माँगो । तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ ?' देवता बोले- देवेश्वर ! आप अन्तर्यामी हैं, अतः सबके मनकी सारी बातें जानते हैं। आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है। प्रभो ! महेश्वर ! कुम्भकर्णसे उत्पन्न कर्कटीका बलवान् पुत्र राक्षस भीम ब्रह्माजीके दिये हुए वरसे शक्तिशाली हो देवताओंको निरन्तर पीड़ा दे रहा है। अतः आप इस दुःखदायी राक्षसका नाश कर दीजिये । हमपर कृपा कीजिये, विलम्ब न कीजिये ।

शम्भुने कहा- देवताओ ! कामरूप देशके राजा सुदक्षिण मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं। उनसे मेरा एक संदेश कह दो। फिर तुम्हारा सारा कार्य शीघ्र ही पूरा हो जायगा। उनसे कहना - 'कामरूप देशके अधिपति महाराज सुदक्षिण ! प्रभो ! तुम मेरे विशेष भक्त हो। अतः प्रेमपूर्वक मेरा भजन करो। दुष्ट राक्षस भीम ब्रह्माजीका वर पाकर प्रबल हो गया है। इसीलिये उसने तुम्हारा तिरस्कार किया है। परंतु अब मैं उस दुष्टको पार डालूँगा, इसमें संदेह नहीं है।'

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! तब उन

सब देवताओंने प्रसन्नतापूर्वक वहाँ जाकर उन महाराजसे शम्भुकी कही हुई सारी बात कह सुनायी। उनसे वह संदेश कहकर देवताओं और महर्षियोंको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ और वे सब-के-सब शीघ्र ही अपने- अपने आश्रमको चले गये ।

इधर भगवान् शिव भी अपने गणोंके साथ लोकहितकी कामनासे अपने भक्तकी रक्षा करनेके लिये सादर उसके निकट गये और गुप्तरूपसे वहीं ठहर गये। इसी समय कामरूपनरेशने पार्थिव शिवके सामने गाढ़ ध्यान लगाना आरम्भ किया। इतनेमें ही किसीने राक्षससे जाकर कह दिया कि राजा तुम्हारे (नाशके) लिये कोई पुरश्चरण कर रहे हैं।

यह समाचार सुनते ही वह राक्षस कुपित हो उठा और उनको मार डालनेकी इच्छासे नंगी तलवार हाथमें लिये राजाके पास गया। वहाँ पार्थिव आदि जो सामग्री स्थित थी, उसे देखकर तथा उसके प्रयोजन और स्वरूपको समझकर राक्षसने यही माना कि राजा मेरे लिये कुछ कर रहा है।

अतः 'सब सामग्रियोंसहित इस नरेशको मैं बलपूर्वक अभी नष्ट कर देता हूँ, ऐसा विचारकर उस महाक्रोधी राक्षसने राजाको बहुत डाँटा और पूछा 'क्या कर रहे हो ?' राजाने भगवान् शंकरपर रक्षाका भार सौंपकर कहा- 'मैं चराचर जगत्‌के स्वामी भगवान् शिवका पूजन करता हूँ।' तब राक्षस भीमने भगवान् शंकरके प्रति बहुत तिरस्कारयुक्त दुर्वचन कहकर राजाको धमकाया और भगवान् शंकरके पार्थिव लिङ्गपर तलवार चलायी। वह तलवार उस पार्थिवलिङ्गका स्पर्श भी नहीं करने पायी कि उससे साक्षात् भगवान् हर वहाँ प्रकट हो गये और बोले- 'देखो, मैं भीमेश्वर हूँ और अपने भक्तकी रक्षाके लिये प्रकट हुआ हूँ। मेरा पहलेसे ही यह व्रत है कि मैं सदा अपने भक्तकी रक्षा करूँ। इसलिये भक्तोंको सुख देनेवाले मेरे बलकी ओर दृष्टिपात करो।'

ऐसा कहकर भगवान् शिवने पिनाकसे उसकी तलवारके दो टुकड़े कर दिये। तब उस राक्षसने फिर अपना त्रिशूल चलाया, परंतु शम्भुने उस दुष्टके त्रिशूलके भी सैकड़ों टुकड़े कर डाले । तदनन्तर शंकरजीके साथ उसका घोर युद्ध हुआ जिससे सारा जगत् क्षुब्ध हो उठा। तब नारदजीने भगवान् शंकरसे प्रार्थना की।

नारद बोले- लोगोंको भ्रम में डालनेवाले महेश्वर ! मेरे नाथ ! आप क्षमा करें, क्षमा करें। तिनकेको काटनेके लिये कुल्हाड़ा चलानेकी क्या आवश्यकता है। शीघ्र ही इसका संहार कर डालिये।

नारदजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भगवान् शम्भुने हुंकारमात्रसे उस समय समस्त राक्षसोंको भस्म कर डाला। मुने ! सब देवताओंके देखते-देखते शिवजीने उन सारे राक्षसोंको दग्ध कर दिया। तदनन्तर भगवान् शंकरकी कृपासे इन्द्र आदि समस्त देवताओं और मुनीश्वरोंको शान्ति मिली तथा सम्पूर्ण जगत् स्वस्थ हुआ। उस समय देवताओं और विशेषतः मुनियोंने भगवान् शंकरसे प्रार्थना की कि 'प्रभो ! आप यहाँ लोगोंको सुख देनेके लिये सदा निवास करें। यह देश निन्दित माना गया है। यहाँ आनेवाले लोगोंको प्रायः दुःख ही प्राप्त होता है। परंतु आपका दर्शन करनेसे यहाँ सबका कल्याण होगा। आप भीमशंकरके नामसे विख्यात होंगे और सबके सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करेंगे। आपका यह ज्योतिर्लिङ्ग सदा पूजनीय और समस्त आपत्तियोंका निवारण करनेवाला होगा।'

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! उनके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर लोकहितकारी एवं भक्तवत्सल परम स्वतन्त्र शिव प्रसन्नतापूर्वक वहीं स्थित हो गये। 

(अध्याय १९-२१)

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