05. कोटिरुद्रसंहिता | 10. वाराणसी तथा विश्वेश्वरका माहात्म्य

05. कोटिरुद्रसंहिता | 10. वाराणसी तथा विश्वेश्वरका माहात्म्य

सूतजी कहते हैं-मुनीश्वरो ! मैं संक्षेपसे ही वाराणसी तथा विश्वेश्वरके परम सुन्दर माहात्म्यका वर्णन करता हूँ, सुनो। एक समयकी बात है कि पार्वती देवीने लोक-हितकी कामनासे बड़ी प्रसन्नताके साथ भगवान् शिवसे अविमुक्त क्षेत्र और अविमुक्त लिङ्गका माहात्म्य पूछा । 

तब परमेश्वर शिवने कहा- यह वाराणसीपुरी सदाके लिये मेरा गुह्यतम क्षेत्र है और सभी जीवोंकी मुक्तिका सर्वथा हेतु है। इस क्षेत्रमें सिद्धगण सदा मेरे व्रतका आश्रय ले नाना प्रकारके वेष धारण किये मेरे लोकको पानेकी इच्छा रखकर जितात्मा और जितेन्द्रिय हो नित्य महायोगका अभ्यास करते हैं। उस उत्तम महायोगका नाम है पाशुपत योग । उसका श्रुतियोंद्वारा प्रतिपादन हुआ है। वह भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है। महेश्वरि ! वाराणसी पुरीमें निवास करना मुझे सदा ही अच्छा लगता है। जिस कारणसे मैं सब कुछ छोड़कर काशीमें रहता हूँ, उसे बताता हूँ, सुनो। जो मेरा भक्त तथा मेरे तत्त्वका ज्ञानी है, वे दोनों अवश्य ही मोक्षके भागी होते हैं। उनके लिये तीर्थकी अपेक्षा नहीं है। विहित और अविहित दोनों प्रकारके कर्म उनके लिये समान हैं। उन्हें जीवन्मुक्त ही समझना चाहिये। वे दोनों कहीं भी मरें, तुरंत ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। यह मैंने निश्चित बात कही है। सर्वोत्तमशक्ति देवी उमे ! इस परम उत्तम अविमुक्त तीर्थमे जो विशेष बात है, उसे तुम मन लगाकर सुनो। सभी वर्ण और समस्त आश्रमोंके लोग चाहे वे बालक, जवान या बूढ़े, कोई भी क्यों न हों- यदि इस पुरीमें मर जायें तो मुक्त हो ही जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। स्त्री अपवित्र हो या पवित्र, कुमारी हो या विवाहिता, विधवा हो या वन्ध्या, रजस्वला, प्रसूता, संस्कारहीना अथवा जैसी-तैसी- कैसी ही क्यों न हो, यदि इस क्षेत्रमें मरी हो तो अवश्य मोक्षकी भागिनी होती है- इसमें संदेह नहीं है। स्वेदज, अण्डज, उ‌द्भिज्ज अथवा जरायुज प्राणी जैसे यहाँ मरनेपर मोक्ष पाता है, वैसे और कहीं नहीं पाता। देवि ! यहाँ मरनेवालेके लिये न ज्ञानकी अपेक्षा है न भक्तिकी; न कर्मकी आवश्यकता है न दानकी; न कभी संस्कृतिकी अपेक्षा है और न धर्मकी ही; यहाँ नामकीर्तन, पूजन तथा उत्तम जातिकी भी अपेक्षा नहीं होती। जो मनुष्य मेरे इस मोक्षदायक क्षेत्रमें निवास करता है, वह चाहे जैसे मरे, उसके लिये मोक्षकी प्राप्ति सुनिश्चित है। प्रिये ! मेरा यह दिव्य पुर गुहासे भी गुह्यलर है। ब्रह्मा आदि देवता भी इसके माहात्म्यको नहीं जानते। इसलिये यह महान् क्षेत्र अविमुक्त नामसे प्रसिद्ध है; क्योंकि नैमिष आदि सभी तीर्थोसे यह श्रेष्ठ है। यह मरनेपर अवश्य मोक्ष देनेवाला है। धर्मका सार सत्य है, मोक्षका सार समता है तथा समस्त क्षेत्रों एवं तीर्थोंका सार यह 'अविमुक्त' तीर्थ (काशी) है-ऐसी विद्वानोंकी मान्यता है। इच्छानुसार भोजन, शयन, क्रीड़ा तथा विविध कर्मोंका अनुष्ठान करता हुआ भी मनुष्य यदि इस अविमुक्त तीर्थमें प्राणोंका परित्याग करता है तो उसे मोक्ष मिल जाता है। जिसका चित्त विषयोंमें आसक्त है और जिसने धर्मकी रुचि त्याग दी है, वह भी यदि इस क्षेत्रमें मृत्युको प्राप्त होता है तो पुनः संसार-बन्धनमें नहीं पड़ता। फिर जो ममतासे रहित, धीर, सत्त्वगुणी, दम्भहीन, कर्मकुशल और कर्तापनके अभिमानसे रहित होनेके कारण किसी भी कर्मका आरम्भ न करनेवाले हैं, उनकी तो बात ही क्या है। वे सब मुझमें ही स्थित हैं।

इस काशीपुरीमें शिवभक्तोंद्वारा अनेक शिवलिङ्ग स्थापित किये गये हैं। पार्वति ! वे सम्पूर्ण अभीष्टोंको देनेवाले और मोक्षदायक हैं। चारों दिशाओंमें पाँच-पाँच कोस फैला हुआ यह क्षेत्र 'अविमुक्त' कहा गया है, वह सब ओरसे मोक्षदायक है। जीवको मृत्यु कालमें यह क्षेत्र उपलब्ध हो जाय तो उसे अवश्य मोक्षकी प्राप्ति होती है। यदि निष्पाप मनुष्य काशीमें मरे तो उसका तत्काल मोक्ष हो जाता है और जो पापी मनुष्य मरता है। 

वह कायव्यूहोंको प्राप्त होता है। उसे पहले यातनाका अनुभव करके ही पीछे मोक्षकी प्राप्ति होती है। सुन्दरि ! जो इस अविमुक्त क्षेत्रमें पातक करता है, वह हजारों वर्षोंतक भैरवी यातना पाकर पापका फल भोगनेके पश्चात् ही मोक्ष पाता है। शतकोटि कल्पोंमें भी अपने किये हुए कर्मका क्षय नहीं होता । जीवको अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। केवल अशुभ कर्म नरक देनेवाला होता है, केवल शुभ कर्म स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला होता है तथा शुभ और अशुभ दोनों कर्मोंसे मनुष्य-योनिकी प्राप्ति बतायी गयी है। अशुभ कर्मकी कमी और शुभ कर्मकी अधिकता होनेपर उत्तम जन्म प्राप्त होता है। शुभ कर्मकी कमी और अशुभ कर्मकी अधिकता होनेपर यहाँ अधम जन्मकी प्राप्ति होती है। पार्वति ! जब शुभ और अशुभ दोनों ही कर्मोंका क्षय हो जाता है, तभी जीवको सच्चा मोक्ष प्राप्त होता है। यदि किसीने पूर्वजन्ममें आदरपूर्वक काशीका दर्शन किया है, तभी उसे इस जन्ममें काशीमें पहुँचकर मृत्युकी प्राप्ति होती है। जो मनुष्य काशी जाकर गङ्गामें स्नान करता है, उसके क्रियमाण और संचित कर्मका नाश हो जाता है। परंतु प्रारब्ध कर्म भोगे बिना नष्ट नहीं होता, यह निश्चित बात है। जिसकी काशीमें मुक्ति हो जाती है, उसके प्रारब्ध कर्मका भी क्षय हो जाता है। प्रिये ! जिसने एक ब्राह्मणको भी काशीवास करवाया है, वह स्वयं भी काशीवासका अवसर पाकर मोक्ष लाभ करता है।

सूतजी कहते हैं - मुनिवरो ! इस तरह सूतजी कहते हैं - मुनिवरो ! इस तरह काशीका तथा विश्वेश्वरलिङ्गका प्रचुर माहात्म्य बताया गया है, जो सत्पुरुषोंको भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसके बाद मैं त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिङ्गका माहात्म्य बताऊँगा, जिसे सुनकर मनुष्य क्षणभरमें समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है। 

(अध्याय २३)


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