05. कोटिरुद्रसंहिता | 11. त्र्यम्बक ज्योतिर्लिङ्गके प्रसङ्गमें महर्षि गौतमके द्वारा किये गये परोपकारकी कथा, उनका तपके प्रभावसे अक्षय जल प्राप्त करके ऋषियोंकी अनावृष्टिके कष्टसे रक्षा करना; ऋषियोंका छलपूर्वक उन्हें गोहत्यामें फँसाकर आश्रमसे निकालना और शुद्धिका उपाय बताना

05. कोटिरुद्रसंहिता | 11. त्र्यम्बक ज्योतिर्लिङ्गके प्रसङ्गमें महर्षि गौतमके द्वारा किये गये परोपकारकी कथा, उनका तपके प्रभावसे अक्षय जल प्राप्त करके ऋषियोंकी अनावृष्टिके कष्टसे रक्षा करना; ऋषियोंका छलपूर्वक उन्हें गोहत्यामें फँसाकर आश्रमसे निकालना और शुद्धिका उपाय बताना

सूतजी कहते हैं- मुनिवरो ! सुनो, मैंने सद्गुरु व्यासजीके मुखसे जैसी सुनी है, उसी रूपमें एक पापनाशक कथा तुम्हें सुना रहा हूँ। पूर्वकालकी बात है, गौतम नामसे विख्यात एक श्रेष्ठ ऋषि रहते थे, जिनकी परम धार्मिक पत्नीका नाम अहल्या था। दक्षिण दिशामें जो ब्रह्मगिरि है, वहीं उन्होंने दस हजार वर्षांतक तपस्या की थी। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षियो ! एक समय वहाँ सौ वर्षोंतक बड़ा भयानक अवर्षण हो गया। सब लोग महान् दुःखमें पड़ गये। इस भूतलपर कहीं गीला पत्ता भी नहीं दिखायी देता था। फिर जीवोंका आधारभूत जल कहाँसे दृष्टिगोचर होता। उस समय मुनि, मनुष्य, पशु, पक्षी और मृग- सब वहाँसे दसों दिशाओंको चले गये। तब गौतम ऋषिने छः महीनेतक तप करके वरुणको प्रसन्न किया । वरुणने प्रकट होकर वर माँगनेको कहा - ऋषिने वृष्टिके लिये प्रार्थना की। वरुणने कहा- 'देवताओंके विधानके विरुद्ध वृष्टि न करके मैं तुम्हारी इच्छाके अनुसार तुम्हें सदा अक्षय रहनेवाला जल देता हूँ। तुम एक गड्डा तैयार करो ।'

उनके ऐसा कहनेपर गौतमने एक हाथ

गहरा गड्डा खोदा और वरुणने उसे दिव्य जलके द्वारा भर दिया तथा परोपकारसे सुशोभित होनेवाले मुनिश्रेष्ठ गौतमसे कहा- 'महामुने ! कभी क्षीण न होनेवाला यह जल तुम्हारे लिये तीर्थरूप होगा और पृथ्वीपर तुम्हारे ही नामसे इसकी ख्याति होगी। यहाँ किये हुए दान, होम, तप, देवपूजन तथा पितरोंका श्राद्ध- सभी अक्षय होंगे।' ऐसा कहकर उन महर्षिसे प्रशंसित हो

वरुणदेव अन्तर्धान हो गये। उस जलके द्वारा दूसरोंका उपकार करके महर्षि गौतमको भी बड़ा सुख मिला। महात्मा पुरुषका आश्रय मनुष्योंके लिये महत्त्वकी ही प्राप्ति करानेवाला होता है। महान् पुरुष ही महात्माके उस स्वरूपको देखते और समझते हैं, दूसरे अधम मनुष्य नहीं। मनुष्य जैसे पुरुषका सेवन करता है, वैसा ही फल पाता है। महान् पुरुषकी सेवासे महत्ता मिलती है और क्षुद्रकी सेवासे क्षुद्रता । उत्तम पुरुषोंका यह स्वभाव ही है कि वे दूसरोंके दुःखको नहीं सहन कर पाते। अपनेको दुःख प्राप्त हो जाय, इसे भी स्वीकार कर लेते हैं। किंतु दूसरोंके दुःखका निवारण ही करते हैं। दयालु, अभिमानशून्य, उपकारी और जितेन्द्रिय - ये पुण्यके चार खंभे हैं, जिनके आधारपर यह पृथ्वी टिकी हुई है।

उत्तमानां स्वभावोऽयं परदुःखासहिष्णुता ॥
स्वयं दुःखं च सम्प्राप्तं मन्यतेऽन्यस्य वार्यते ।
दयालुरमदस्पर्श उपकारी जितेन्द्रियः ॥
एतैश्च पुण्यस्तम्भैस्तु चतुर्भिर्धार्यते मही।
             (शि० पु० कोटि० सं० २४। २४-२६)

गणेशजीने कहाऋषियो ! तुम सब लोग सुनो। इस समय तुम उचित कार्य नहीं कर रहे हो। बिना किसी अपराधके उनपर क्रोध करनेके कारण तुम्हारी हानि ही होगी। जिन्होंने पहले उपकार किया हो, उन्हें यदि दुःख दिया जाय तो वह अपने लिये हितकारक नहीं होता। जब उपकारीको दुःख दिया जाता है, तब उससे इस जगत्में अपना ही नाश होता है। ऐसी तपस्या करके उत्तम फलकी सिद्धि की जाती है। स्वयं ही शुभ फलका परित्याग करके अहितकारक फलको नहीं ग्रहण किया जाता। ब्रह्माजीने जो यह कहा है कि असाधु कभी साधुताको और साधु कभी असाधुताको नहीं ग्रहण

(शि० पु० कोटि० सं० २४। २४-२६)
तदनन्तर गौतमजी वहाँ उस परम दुर्लभ जलको पाकर विधिपूर्वक नित्य नैमित्तिक कर्म करने लगे। उन मुनीश्वरने वहाँ नित्य होमकी सिद्धिके लिये धान, जौ और अनेक प्रकारके नीवार बोआ दिये। तरह-तरहके धान्य, भाँति-भाँतिके वृक्ष और अनेक प्रकारके फल-फूल वहाँ लहलहा उठे। यह समाचार सुनकर वहाँ दूसरे दूसरे सहस्त्रों ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी तथा बहुसंख्यक जीव जाकर रहने लगे। वह वन इस भूमण्डलमें बड़ा सुन्दर हो गया। उस अक्षय जलके संयोगसे अनावृष्टि वहाँके लिये दुःखदायिनी नहीं रह गयी। उस वनमें अनेक शुभकर्म परायण ऋषि अपने शिष्य, भार्या और पुत्र आदिके साथ वास करने लगे। उन्होंने कालक्षेप करनेके लिये वहाँ धान बोआ दिये। गौतमजीके प्रभावसे उस वनमें सब ओर आनन्द छा गया।

एक बार वहाँ गौतमके आश्रममें जाकर बसे हुए ब्राह्मणोंकी स्त्रियाँ जलके प्रसङ्गको लेकर अहल्यापर नाराज हो गयीं। उन्होंने अपने पतियोंको उकसाया। उन लोगोंने गौतमका अनिष्ट करनेके लिये गणेशजीकी आराधना की। भक्तपराधीन गणेशजीने प्रकट होकर वर माँगनेके लिये कहा-तब ये बोले- 'भगवन् ! यदि आप हमें वर देना चाहते हैं तो ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे समस्त ऋषि डॉट-फटकारकर गौतमको आश्रमसे बाहर निकाल दें।'

गणेशजीने कहाऋषियो ! तुम सब लोग सुनो। इस समय तुम उचित कार्य नहीं कर रहे हो। बिना किसी अपराधके उनपर क्रोध करनेके कारण तुम्हारी हानि ही होगी। जिन्होंने पहले उपकार किया हो, उन्हें यदि दुःख दिया जाय तो वह अपने लिये हितकारक नहीं होता। जब उपकारीको दुःख दिया जाता है, तब उससे इस जगत्में अपना ही नाश होता है। 

अपराधं बिना तस्मै क्रुध्यतां हानिरेव च ॥ 
उपस्कृतं पुरा यैस्तु तेभ्यो दुःखं हितं नहि ।
यदा च दीयते दुःखं तदा नाशो भवेदिह ॥
(शि०० पु० को० रु० सं० २५।१४-१५)

ऐसी तपस्या करके उत्तम फलकी सिद्धि की जाती है। स्वयं ही शुभ फलका परित्याग करके अहितकारक फलको नहीं ग्रहण किया जाता। ब्रह्माजीने जो यह कहा है कि असाधु कभी साधुताको और साधु कभी असाधुताको नहीं ग्रहण करता, यह बात निश्चय ही ठीक जान पड़ती है। पहले उपवासके कारण जब तुमलोगोंको दुःख भोगना पड़ा था, तब महर्षि गौतमने जलकी व्यवस्था करके तुम्हें सुख दिया। परंतु इस समय तुम सब लोग उन्हें दुःख दे रहे हो। संसारमें ऐसा कार्य करना कदापि उचित नहीं। इस बातपर तुम सब लोग सर्वथा विचार कर लो। स्त्रियोंकी शक्तिसे मोहित हुए तुमलोग यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा यह बर्ताव गौतमके लिये अत्यन्त हितकारक ही होगा, इसमें संशय नहीं है। ये मुनिश्रेष्ठ गौतम तुम्हें पुनः निश्चय ही सुख देंगे। अतः उनके साथ छल करना कदापि उचित नहीं। इसलिये तुमलोग कोई दूसरा वर माँगो ।

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! महात्मा गणेशने ऋषियोंसे जो यह बात कही, वह यद्यपि उनके लिये हितकर थी, तो भी उन्होंने इसे नहीं स्वीकार किया। तब भक्तोंके अधीन होनेके कारण उन शिवकुमारने कहा- 'तुमलोगोंने जिस वस्तुके लिये प्रार्थना की है, उसे मैं अवश्य करूँगा। पीछे जो होनहार होगी, वह होकर ही रहेगी।' ऐसा कहकर वे अन्तर्धान हो गये। मुनीश्वरो ! उसके बाद उन दुष्ट ऋषियोंके प्रभावसे तथा उन्हें प्राप्त हुए वरके कारण जो घटना घटित हुई, उसे सुनो। वहाँ गौतमके खेतमें जो धान और जौ थे, उनके पास गणेशजी एक दुर्बल गाय बनकर गये। दिये हुए वरके कारण वह गौ काँपती हुई वहाँ जाकर धान और जौ चरने लगी। इसी समय दैववश गौतमजी वहाँ आ गये। वे दयालु ठहरे, इसलिये मुट्ठीभर तिनके लेकर उन्हींसे उस गौको हाँकने लगे। उन तिनकोंका स्पर्श होते ही वह गौ पृथ्वीपर गिर पड़ी और ऋषिके देखते-देखते उसी क्षण मर गयी।

वे दूसरे-दूसरे (द्वेषी) ब्राह्मण और उनकी दुष्ट स्त्रियाँ वहाँ छिपे हुए सब कुछ देख रहे थे। उस गौके गिरते ही वे सब-के सब बोल उठे- 'गौतमने यह क्या का डाला ?' गौतम भी आश्चर्यचकित हो, अहल्याको बुलाकर व्यथित हृदयसे दुःखपूर्वक बोले- 'देवि ! यह क्या हुआ, कैसे हुआ ? जान पड़ता है परमेश्वर मुझपर कुपित हो गये हैं। अब क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ? मुझे हत्या लग गयी ।'

इसी समय ब्राह्मण और उनकी पत्नियाँ गौतमको डाँटने और दुर्वचनोंद्वारा अहल्याको पीड़ित करने लगीं। उनके दुर्बुद्धि शिष्य और पुत्र भी गौतमको बारंबार फटकारने और धिक्कारने लगे ।

ब्राह्मण बोले- अब तुम्हें अपना मुँह नहीं दिखाना चाहिये। यहाँसे जाओ, जाओ। गोहत्यारेका मुँह देखनेपर तत्काल वस्त्रसहित स्नान करना चाहिये । जबतक तुम इस आश्रममें रहोगे, तबतक अग्निदेव और पितर हमारे दिये हुए किसी भी हव्य- कव्यको ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिये पापी गोहत्यारे ! तुम परिवारसहित यहाँसे अन्यत्र चले जाओ। विलम्ब न करो।

सूतजी कहते हैं- ऐसा कहकर उन सबने उन्हें पत्थरोंसे मारना आरम्भ किया। वे गालियाँ दे-देकर गौतम और अहल्याको सताने लगे। उन दुष्टोंके मारने और धमकानेपर गौतम बोले- 'मुनियो ! मैं यहाँसे अन्यत्र जाकर रहूँगा' ऐसा कहकर गौतम उस स्थानसे तत्काल निकल गये और उन सबकी आज्ञासे एक कोस दूर जाकर उन्होंने अपने लिये आश्रम बनाया। वहाँ भी जाकर उन ब्राह्मणोंने कहा- 'जबतक तुम्हारे ऊपर हत्या लगी है, तबतक तुम्हें कोई यज्ञ-यागादि कर्म नहीं करना चाहिये। किसी भी वैदिक देवयज्ञ या पितृयज्ञके अनुष्ठानका तुम्हें अधिकार नहीं रह गया है।' मुनिवर गौतम उनके कथनानुसार किसी तरह एक पक्ष बिताकर उस दुःखसे दुःखी हो बारंबार उन मुनियोंसे अपनी शुद्धिके लिये प्रार्थना करने लगे। उनके दीनभावसे प्रार्थना करनेपर उन ब्राह्मणोंने कहा- 'गौतम ! तुम अपने पापको प्रकट करते हुए तीन बार सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीनेतक व्रत करो। उसके बाद इस ब्रह्मगिरिकी एक सौ एक परिक्रमा करनेके पश्चात् तुम्हारी शुद्धि होगी। अथवा यहाँ गङ्गाजीको ले आकर उन्हींके जलसे स्नान करो तथा एक करोड़ पार्थिवलिङ्ग बनाकर महादेवजीकी आराधना करो। फिर गङ्गामें स्त्रान करके इस पर्वतकी ग्यारह बार परिक्रमा करो। तत्पश्चात् सौ घड़ोंके जलसे पार्थिव शिवलिङ्गको स्नान करानेपर तुम्हारा उद्धार होगा।' उन ऋषियोंके इस प्रकार कहनेपर गौतमने 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी बात मान ली। वे बोले- 'मुनिवरो ! मैं आप श्रीमानोंकी आज्ञासे यहाँ पार्थिवपूजन तथा ब्रह्मगिरिकी परिक्रमा करूँगा।' ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ गौतमने उस पर्वतकी परिक्रमा करनेके पश्चात् पार्थिवलिङ्गोंका निर्माण करके उनका पूजन किया। साध्वी अहल्याने भी साथ रहकर वह सब कुछ किया। उस समय शिष्य- प्रशिष्य उन दोनोंकी सेवा करते थे।

(अध्याय २४-२५)



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