02. विद्येश्वरसंहिता || 23-24. शिवनाम-जप तथा भस्मधारणकी महिमा, त्रिपुण्ड्रके देवता और स्थान आदिका प्रतिपादन

02. विद्येश्वरसंहिता || 23-24. शिवनाम-जप तथा भस्मधारणकी महिमा, त्रिपुण्ड्रके देवता और स्थान आदिका प्रतिपादन

ऋषि बोले-महाभाग व्यासशिष्य सूतजी ! आपको नमस्कार है। अब आप उस परम उत्तम भस्म-माहात्यका ही वर्णन कीजिये। भस्म-माहात्म्य, रुद्राक्ष-माहात्म्य तथा उत्तम नाम-माहात्य-इन तीनोंका परम प्रसन्नतापूर्वक प्रतिपादन कीजिये और हमारे हृदयको आनन्द दीजिये ।

बहुत उत्तम बात पूछी है। यह समस्त सूतजीने कहा- महर्षियो ! आपने लोकोंके लिये हितकारक विषय है। जो लोग भगवान् शिवकी उपासना करते हैं, वे धन्य हैं, कृतार्थ हैं; उनका देहधारण सफल है तथा उनके समस्त कुलका उद्धार हो गया। जिनके मुखमें भगवान् शिवका नाम है, जो अपने मुखसे सदाशिव और शिव इत्यादि नामोंका उच्चारण करते रहते हैं, पाप उनका उसी तरह स्पर्श नहीं करते, जैसे खदिर वृक्षके अङ्गारको छूनेका साहस कोई भी प्राणी नहीं कर सकते। 'हे श्रीशिव ! आपको नमस्कार है' (श्रीशिवाय नमस्तुभ्यम्) ऐसी बात जब मुँहसे निकलती है, तब वह मुख समस्त पापोंका विनाश करनेवाला पावन तीर्थ बन जाता है। जो मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक उस मुखका दर्शन करता है, उसे निश्चय ही तीर्थसेवनजनित फल प्राप्त होता है। ब्राह्मणो ! शिवका नाम, विभूति (भस्म) तथा रुद्राक्ष - ये तीनों त्रिवेणीके समान परम पुण्यमय माने गये हैं। जहाँ ये तीनों शुभतर वस्तुएँ सर्वदा रहती हैं, उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य त्रिवेणी-स्नानका फल पा लेता है। भगवान् शिवका नाम 'गङ्गा' है, विभूति 'यमुना' मानी गयी है तथा रुद्राक्षको सरस्वती कहा गया है। इन तीनोंकी संयुक्त त्रिवेणी समस्त पापोंका नाश करनेवाली है। श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! इन तीनोंकी महिमाको सदसद्विलक्षण भगवान् महेश्वरके बिना दूसरा कौन भलीभाँति जानता है। इस ब्रह्माण्डमें जो कुछ है, वह सब तो केवल महेश्वर ही जानते हैं। 

विप्रगण ! मैं अपनी श्रद्धा-भक्तिके अनुसार संक्षेपसे भगवन्नामोंकी महिमाका कुछ वर्णन करता हूँ। तुम सब लोग प्रेमपूर्वक सुनो। यह नाम-माहात्य समस्त पापोंको हर लेनेवाला सर्वोत्तम साधन है। 'शिव' इस नामरूपी दावानलसे महान् पातकरूपी पर्वत अनायास ही भस्म हो जाता है- यह सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं है। शौनक ! पापमूलक जो नाना प्रकारके दुःख हैं, वे एकमात्र शिवनाम (भगवन्नाम) से ही नष्ट होनेवाले हैं। दूसरे साधनोंसे सम्पूर्ण यत्न करनेपर भी पूर्णतया नष्ट नहीं होते हैं। जो मनुष्य इस भूतलपर सदा भगवान् शिवके नामोंके जपमें ही लगा हुआ है, वह वेदोंका ज्ञाता है, वह पुण्यात्मा है, वह धन्यवादका पात्र है तथा वह विद्वान् माना गया है। मुने ! जिनका शिवनाम-जपमें विश्वास है, उनके द्वारा आचरित नाना प्रकारके धर्म तत्काल फल देनेके लिये उत्सुक हो जाते हैं। महर्षे ! भगवान् शिवके नामसे जितने पाप नष्ट होते हैं, उतने पाप मनुष्य इस भूतलपर कर नहीं सकते। 

भवन्ति विविधा धर्मास्तेषां सद्यः फलोन्मुखाः। 
येषां भवति विश्वासः शिवनामजपे मुने ॥ 
पातकानि विनश्यन्ति यावन्ति शिवनामतः। 
भुवि तावन्ति पापानि क्रियन्ते न नरैर्मुने ॥
सं० शि० पु० (मोटा टाइप) ४- ( शि० पु० वि० २३ । २६-२७)
* जो शिवनामरूपी नौकापर आरूढ़ हो संसार- रूपी समुद्रको पार करते हैं, उनके जन्म- मरणरूप संसारके मूलभूत वे सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। महामुने ! संसारके मूलभूत पातकरूपी पादपोंका शिवनामरूपी कुठारसे निश्चय ही नाश हो जाता है। जो पापरूपी दावानलसे पीड़ित है, उन्हें शिव-नामरूपी अमृतका पान करना चाहिये। पापोंके दावानलसे दग्ध होनेवाले नहीं मिल सकती। जो शिवनामरूपी सुधाकी वृष्टिजनित धारामें गोते लगा रहे हैं, वे संसाररूपी दावानलके बीचमें खड़े होनेपर भी कदापि शोकके भागी नहीं होते। जिन महात्माओंके मनमें शिवनामके प्रति बड़ी भारी भक्ति है, ऐसे लोगोंकी सहसा और सर्वथा मुक्ति होती है।* 
शिवनामतरीं प्राप्यं संसाराब्धि तरन्ति ते । 
संसारमूलपापानि तानि नश्यन्त्यसंशयम् ॥ 
संसारमूलभूतानां पातकानां महामुने ।
शिवनामकुठारेण विनाशो जायते ध्रुवम् ॥ 
शिवनामामृतं पेयं पापदावानलार्दितैः । 
पापदावाग्नितप्तानां शान्तिस्तेन विना न हि ॥ 
शिवेति नामपीयूषवर्षाधारापरिप्लुताः । 
संसारदवमध्येऽपि न शोचन्ति कदाचन ॥ 
शिवनाम्नि महद्भक्तिर्जाता येषां महात्मनाम्। 
तद्विधानां तु सहसा मुक्तिर्भवति सर्वथा ॥ 
(शि० पु० वि० २३ । २९-३३)

मुनीश्वर ! जिसने अनेक जन्मोंतक तपस्या की है, उसीकी शिवनामके प्रति भक्ति होती है, जो समस्त पापोंका नाश करनेवाली है।

जिसके मनमें भगवान् शिवके नामके प्रति कभी खण्डित न होनेवाली असाधारण भक्ति प्रकट हुई है, उसीके लिये मोक्ष सुलभ है - यह मेरा मत है। जो अनेक पाप करके भी भगवान् शिवके नाम-जपमें आदरपूर्वक लग गया है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो ही जाता है- इसमें संशय नहीं है। जैसे वनमें दावानलसे दग्ध हुए वृक्ष भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिवनामरूपी दावानलसे दग्ध होकर उस समयतकके सारे पाप भस्म हो जाते हैं। शौनक ! जिसके अङ्ग नित्य भस्म लगानेसे पवित्र हो गये हैं तथा जो शिवनाम- जपका आदर करने लगा है, वह घोर संसार-सागरको भी पार कर ही लेता है।

सम्पूर्ण वेदोंका अवलोकन करके पूर्ववर्ती महर्षियोंने यही निश्चित किया है कि भगवान शिवके नामका जप संसार-सागरको पार करनेके लिये सर्वोत्तम उपाय है। मुनिवरो ! अधिक कहनेसे क्या लाभ, मैं शिव-नामके सर्वपापापहारी माहात्म्यका एक ही इलोकमें वर्णन करता हूँ। भगवान् शंकरके एक नाममें भी पापहरणकी जितनी शक्ति है, उतना पातक मनुष्य कभी कर ही नहीं सकता। 
पापानां हरणे शम्भोर्नान्निः शक्तिर्हि यावती । 
शक्नोति पातकं तावत् कर्तुं नापि नरः क्वचित् ॥ 
(शि० पु० वि० २३ । ४२)

मुने ! पूर्वकालमें महापापी राजा इन्द्रद्युम्नने शिवनामके प्रभावसे ही उत्तम सद्गति प्राप्त की थी। इसी तरह कोई ब्राह्मणी युवती भी जो बहुत पाप कर चुकी थी, शिवनामके प्रभावसे ही उत्तम गतिको प्राप्त हुई। द्विजवरो ! इस प्रकार मैंने तुमसे भगवन्नामके उत्तम माहात्म्यका वर्णन किया है। अब तुम भस्मका माहात्म्य सुनो, जो समस्त पावन वस्तुओंको भी पावन करनेवाला है।

महर्षियो ! भस्म सम्पूर्ण मङ्गलोंको देनेवाला तथा उत्तम है; उसके दो भेद बताये गये हैं, उन भेदोंका मैं वर्णन करता हूँ, सावधान होकर सुनो। एकको 'महाभस्म' जानना चाहिये और दूसरेको 'स्वल्पभस्म' । महाभस्मके भी अनेक भेद हैं। वह तीन प्रकारका कहा गया है-श्रौत, स्मार्त और लौकिक । स्वल्पभस्मके भी बहुत-से भेदोंका वर्णन किया गया है। श्रौत और स्मार्त भस्मको केवल द्विजोंके ही उपयोगमें आनेके योग्य कहा गया है। तीसरा जो लौकिक भस्म है, वह अन्य सब लोगोंके भी उपयोगमें आ सकता है। श्रेष्ठ महर्षियोंने यह बताया है कि द्विजोंको वैदिक मन्त्रके उच्चारणपूर्वक भस्म धारण करना चाहिये। दूसरे लोगोंके लिये बिना मन्त्रके ही केवल धारण करनेका विधान है। जले हुए गोबरसे प्रकट होनेवाला भस्म आग्नेय कहलाता है। महामुने ! वह भी त्रिपुण्ड्रका द्रव्य है, ऐसा कहा गया है। अग्निहोत्रसे उत्पन्न हुए भस्मका भी मनीषी पुरुषोंको संग्रह करना चाहिये। अन्य यज्ञसे प्रकट हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्र धारणके काममें आ सकता है। जाबालोपनिषद्‌में आये हुए 'अग्निः' इत्यादि सात मन्त्रोंद्वारा जलमिश्रित भस्मसे धूलन (विभिन्न अंगोंमें मर्दन या लेपन) करना चाहिये। महर्षि जाबालिने सभी वर्णों और आश्रमोंके लिये मन्त्रसे या बिना मन्त्रके भी आदरपूर्वक भस्मसे त्रिपुण्ड्र लगानेकी आवश्यकता बतायी है। समस्त अङ्गोंमें सजल भस्मको मलना अथवा विभिन्न अङ्गोंमें तिरछा त्रिपुण्ड्र लगाना - इन कार्योंको मोक्षार्थी पुरुष प्रमादसे भी न छोड़े, ऐसा श्रुतिका आदेश है। भगवान् शिव और विष्णुने भी तिर्यक् त्रिपुण्ड्र धारण किया है। अन्य देवियोंसहित भगवती उमा और लक्ष्मी देवीने भी वाणीद्वारा इसकी प्रशंसा की है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों तथा जातिभ्रष्ट पुरुषोंने भी उद्धूलन एवं त्रिपुण्डूके रूपमें भस्म धारण किया है।

इसके पश्चात भस्म धारण तथा त्रिपुण्ड्रकी महिमा एवं विधि बताकर सूतजीने फिर कहा- महर्षियो ! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे त्रिपुण्ड्रका माहात्म्य बताया है। यह समस्त प्राणियोंके लिये गोपनीय रहस्य है। अतः तुम्हें भी इसे गुप्त ही रखना चाहिये। मुनिवरो ! ललाट आदि सभी निर्दिष्ट स्थानोंमें जो भस्मसे तीन तिरछी रेखाएँ बनायी जाती हैं, उन्हींको विद्वानोंने त्रिपुण्ड्र कहा है। भौहोंके मध्य भागसे लेकर जहाँतक भौहोंका अन्त है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाटमें धारण करना चाहिये। मध्यमा और अनामिका अंगुलीसे दो रेखाएँ करके बीचमें अङ्गुष्ठद्वारा प्रतिलोमभावसे की गयी रेखा त्रिपुण्डू कहलाती है अथवा बीचकी तीन अंगुलियोंसे भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्तिभावसे ललाटमें त्रिपुण्ड्र धारण करे। त्रिपुण्ड्र अत्यन्त उत्तम तथा भोग और मोक्षको देनेवाला है। त्रिपुण्ड्की तीनों रेखाओंमेंसे प्रत्येकके नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अङ्गोंमें स्थित हैं; मैं उनका परिचय देता हूँ। सावधान होकर सुनो। मुनिवरो ! प्रणवका प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, प्रातः सवन तथा महादेव - ये त्रिपुण्ड्रकी प्रथम रेखाके नौ देवता हैं, यह बात शिव-दीक्षापरायण पुरुषोंको अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये। प्रणवका दूसरा अक्षर उकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्त्वगुण, यजुर्वेद, मध्यंदिनसवन, इच्छाशक्ति, अन्तरात्मा तथा महेश्वर - ये दूसरी रेखाके नौ देवता हैं। प्रणवका तीसरा अक्षर मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीयसवन तथा शिव-ये तीसरी रेखाके नौ देवता हैं। इस प्रकार स्थान-देवताओंको उत्तम भक्तिभावसे नित्य नमस्कार करके स्नान आदिसे शुद्ध हुआ पुरुष यदि त्रिपुण्ड्र धारण करे तो भोग और मोक्षको भी प्राप्त कर लेता है। मुनीश्वर ! ये सम्पूर्ण अङ्गोंमें स्थान-देवता बताये गये हैं; अब उनके सम्बन्धी स्थान बताता हूँ, भक्तिपूर्वक सुनो। बत्तीस, सोलह, आठ अथवा पाँच स्थानोंमें त्रिपुण्ड्रका न्यास करे। मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों हाथों, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पार्श्वभाग, नाभि, दोनों अण्डकोष, दोनों ऊरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर - ये बत्तीस उत्तम स्थान हैं, इनमें क्रमशः अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दस दिक्प्रदेश, दस दिक्पाल तथा आठ वसुओंका निवास है। धर, ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास - ये आठ वसु कहे गये हैं। इन सबका नाममात्र लेकर इनके स्थानोंमें विद्वान् पुरुष त्रिपुण्ड्र धारण करे ।

अथवा एकाग्रचित्त हो सोलह स्थानमें ही त्रिपुण्ड्र धारण करे । मस्तक, ललाट, कण्ठ, दोनों कंधों, दोनों भुजाओं, दोनों कोहनियों तथा दोनों कलाइयोंमें, हृदयमें, नाभिमें, दोनों पसलियोंमें तथा पृष्ठभागमें त्रिपुण्ड्र लगाकर वहाँ दोनों अश्विनी कुमारोंका शिव, शाक्त, रुद्र, ईश तथा नारदका और वामा आदि नौ शक्तियोंका पूजन करे । ये सब मिलकर सोलह देवता हैं। अश्विनीकुमार दो कहे गये हैं। नासत्य और दस्त्र अथवा मस्तक, केश, दोनों कान, मुख, दोनों भुजा, हृदय, नाभि, दोनों ऊरु, दोनों जानु, दोनों पैर और पृष्ठभाग - इन सोलह स्थानोंमें सोलह त्रिपुण्ड्का न्यास करे। मस्तकमें शिव, केशमें चन्द्रमा, दोनों कानोंपे रुद्र और ब्रह्मा, मुखमें विघ्नराज गणेश, दोनों भुजाओंमें विष्णु और लक्ष्मी, हृदयमें शम्बु, नाभिमें प्रजापति, दोनों ऊरुओंमें नाग और नागकन्याएँ, दोनों घुटनोंमें ऋषिकन्याएँ, दोनों पैरोंमें समुद्र तथा विशाल पृष्ठभाग में सम्पूर्ण तीर्थ देवतारूपसे विराजमान हैं। इस प्रकार सोलह स्थानोंका परिचय दिया गया। अब आठ स्थान बताये जाते हैं। गुह्य स्थान, ललाट, परम उत्तम कर्णयुगल, दोनों कंधे, हृदय और नाभि-ये आठ स्थान हैं। इनमें ब्रह्मा तथा सप्तर्षि-ये आठ देवता बताये गये हैं। मुनीश्वरो ! भस्मके स्थानको जाननेवाले विद्वानोंने इस तरह आठ स्थानोंका परिचय दिया है अथवा मस्तक, दोनों भुजाएँ, हृदय और नाभि इन पाँच स्थानोंको भस्मवेत्ता पुरुषोंने भस्म धारणके योग्य बताया है। यथासम्भव देश, काल आदिकी अपेक्षा रखते हुए उद्धूलन (भस्म) को अभिमन्त्रित करना और जलमें मिलाना आदि कार्य करे। यदि उद्धृलनमें भी असमर्थ हो तो त्रिपुण्ड्र आदि लगाये। त्रिनेत्रधारी, तीनों गुणोंके आधार तथा तीनों देवताओंके जनक भगवान् शिवका स्मरण करते हुए 'नमः शिवाय' कहकर ललाटमें त्रिपुण्ड्र लगाये। 'ईशाभ्यां नमः' ऐसा कहकर दोनों पार्श्वभागोंमें त्रिपुण्ड्र धारण करे । 'बीजाभ्यां नमः' यह बोलकर दोनों कलाइयोंमें भस्म लगावे । 'पितृभ्यां नमः' कहकर नीचेके अङ्गमें, 'उमेशाभ्यां नमः' कहकर ऊपरके अङ्गमें तथा 'भीमाय नमः' कहकर पीठमें और सिरके पिछले भागमें त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये ।

(अध्याय २३-२४)

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