05. कोटिरुद्रसंहिता | 04. प्रथम ज्योतिर्लिङ्ग सोमनाथके प्रादुर्भावकी कथा और उसकी महिमा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 04. प्रथम ज्योतिर्लिङ्ग सोमनाथके प्रादुर्भावकी कथा और उसकी महिमा

तदनन्तर कपिला नगरीके कालेश्वर, रामेश्वर आदिकी महिमा बताते हुए सूतजीने समुद्रके तटपर स्थित गोकर्णक्षेत्रके शिवलिङ्गोंकी महिमाका वर्णन किया। फिर महाबल नामक शिवलिङ्गका अद्भुत माहात्म्य सुनाकर अन्य बहुत-से शिवलिङ्गोंकी विचित्र माहात्म्य-कथाका वर्णन करनेके पश्चात् ऋषियोंके पूछनेपर वे ज्योतिर्लिङ्गोंका वर्णन करने लगे।

सूतजी बोले- ब्राह्मणो ! मैंने सद्गुरुसे जो कुछ सुना है, वह ज्योतिर्लिङ्गोंका माहात्म्य तथा उनके प्राकट्यका प्रसङ्ग अपनी बुद्धिके अनुसार संक्षेपसे ही सुनाऊँगा । तुम सब लोग सुनो। मुने ! ज्योतिर्लिङ्गोंमें सबसे पहले सोमनाथका नाम आता है; अतः पहले उन्हींके माहात्म्यको सावधान होकर सुनो। मुनीश्वरो ! महामना प्रजापति दक्षने अपनी अश्विनी आदि सत्ताईस कन्याओंका विवाह चन्द्रमाके साथ किया था। चन्द्रमाको स्वामीके रूपमें पाकर वे दक्षकन्याएँ विशेष शोभा पाने लगीं तथा चन्द्रमा भी उन्हें पत्नीके रूपमें पाकर निरन्तर सुशोभित होने लगे।

उन सब पत्नियोंमें भी जो रोहिणी नामकी पत्नी थी, एकमात्र वही चन्द्रमाको जितनी प्रिय थी, उतनी दूसरी कोई पत्नी कदापि प्रिय नहीं हुई। इससे दूसरी स्त्रियोंको बड़ा दुःख हुआ। वे सब अपने पिताकी शरणमें गयीं। वहाँ जाकर उन्होंने जो भी दुःख था, उसे पिताको निवेदन किया। द्विजो ! वह सब सुनकर दक्ष भी दुःखी हो गये और चन्द्रमाके पास आकर शान्तिपूर्वक बोले । 51

दक्षने कहा- कलानिधे ! तुम निर्मल कुलमें उत्पन्न हुए हो। तुम्हारे आश्रयमें रहनेवाली जितनी स्त्रियाँ हैं, उन सबके प्रति तुम्हारे मनमें न्यूनाधिकभाव क्यों है ? तुम किसीको अधिक और किसीको कम प्यार क्यों करते हो ? अबतक जो किया, सो किया, अब आगे फिर कभी ऐसा विषमता- पूर्ण बर्ताव तुम्हें नहीं करना चाहिये; क्योंकि उसे नरक देनेवाला बताया गया है।

सूतजी कहते हैं- महर्षियो ! अपने दामाद चन्द्रमासे स्वयं ऐसी प्रार्थना करके प्रजापति दक्ष घरको चले गये। उन्हें पूर्ण निश्चय हो गया था कि अब फिर आगे ऐसा नहीं होगा। पर चन्द्रमाने प्रबल भावीसे विवश होकर उनकी बात नहीं मानी। वे रोहिणीमें इतने आसक्त हो गये थे कि दूसरी किसी पत्नीका कभी आदर नहीं करते थे। इस बातको सुनकर दक्ष दुःखी हो फिर स्वयं आकर चन्द्रमाको उत्तम नीतिसे समझाने तथा न्यायोचित बर्तावके लिये प्रार्थना करने लगे।

दक्ष बोले- चन्द्रमा ! सुनो, मैं पहले अनेक बार तुमसे प्रार्थना कर चुका हूँ। फिर भी तुमने मेरी बात नहीं मानी। इसलिये आज शाप देता हूँ कि तुम्हें क्षयका रोग हो जाय ।

सूतजी कहते हैं- दक्षके इतना कहते ही क्षणभरमें चन्द्रमा क्षयरोगसे ग्रस्त हो गये। उनके क्षीण होते ही उस समय सब ओर महान् हाहाकार मच गया। सब देवता और ऋषि कहने लगे कि 'हाय ! हाय ! अब क्या करना चाहिये, चन्द्रमा कैसे ठीक होंगे ?' मुने ! इस प्रकार दुःखमें पड़कर वे सब लोग विह्वल हो गये। चन्द्रमाने इन्द्र आदि सब देवताओं तथा ऋषियोंको अपनी अवस्था सूचित की। तब इन्द्र आदि देवता तथा वसिष्ठ आदि ऋषि ब्रह्माजीकी शरणमें गये।

उनकी बात सुनकर ब्रह्माजीने कहा- देवताओ ! जो हुआ, सो हुआ। अब वह निश्चय ही पलट नहीं सकता। अतः उसके निवारणके लिये मैं तुम्हें एक उत्तम उपाय बताता हूँ। आदरपूर्वक सुनो। चन्द्रमा देवताओंके साथ प्रभास नामक शुभ क्षेत्रमें जायँ और वहाँ मृत्युञ्जयमन्त्रका विधिपूर्वक अनुष्ठान करते हुए भगवान् शिवकी आराधना करें। अपने सामने शिवलिङ्गकी स्थापना करके वहाँ चन्द्रदेव नित्य तपस्या करें। इससे प्रसन्न होकर शिव उन्हें क्षयरहित कर देंगे।

तब देवताओं तथा ऋषियोंके कहनेसे ब्रह्माजीकी आज्ञाके अनुसार चन्द्रमाने वहां छः महीनेतक निरन्तर तपस्या की, मृत्युञ्जय मन्त्रसे भगवान् वृषभध्वजका पूजन किया। दस करोड़ मन्त्रका जप और मृत्युञ्जयका ध्यान करते हुए चन्द्रमा वहाँ स्थिरचित्त होकर लगातार खड़े रहे। उन्हें तपस्या करते देख भक्तवत्सल भगवान् शंकर प्रसन्न हो उनके सामने प्रकट हो गये और अपने भक्त चन्द्रमासे बोले ।

शंकरजीने कहा- चन्द्रदेव ! तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मनमें जो अभीष्ट हो, वह वर माँगो ! मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हें सम्पूर्ण उत्तम वर प्रदान करूँगा ।

चन्द्रमा बोले- देवेश्वर ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरे लिये क्या असाध्य हो सकता है; तथापि प्रभो ! शंकर ! आप मेरे शरीरके इस क्षयरोगका निवारण कीजिये । मुझसे जो अपराध बन गया हो, उसे क्षमा कीजिये।

शिवजीने कहा- चन्द्रदेव । एक पक्षमें प्रतिदिन तुम्हारी कला क्षीण हो और दूसरे पक्षमें फिर वह निरन्तर बढ़ती रहे। 

तदनन्तर चन्द्रमाने भक्तिभावसे भगवान् शंकरकी स्तुति की। इससे पहले निराकार होते हुए भी वे भगवान् शिव फिर साकार हो गये । देवताओंपर प्रसन्न हो उस क्षेत्रके माहात्म्यको बढ़ाने तथा चन्द्रमाके यशका विस्तार करनेके लिये भगवान् शंकर उन्हींके नामपर वहाँ सोमेश्वर कहलाये और सोमनाथके नामसे तीनों लोकोंमें विख्यात हुए। ब्राह्मणो ! सोमनाथका पूजन करनेसे वे उपासकके क्षय तथा कोढ़ आदि रोगोंका नाश कर देते हैं। ये चन्द्रमा धन्य हैं, कृतकृत्य हैं, जिनके नामसे तीनों लोकोंके स्वामी साक्षात् भगवान् शंकर भूतलको पवित्र करते हुए प्रभासक्षेत्रमें विद्यमान हैं। वहीं सम्पूर्ण देवताओंने सोमकुण्डकी भी स्थापना की है, जिसमें शिव और ब्रह्माका सदा निवास माना जाता है। चन्द्रकुण्ड इस भूतलपर पापनाशन तीर्थके रूपमें प्रसिद्ध है। जो मनुष्य उसमें स्नान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। क्षय आदि जो असाध्य रोग होते हैं, वे सब उस कुण्डमें छः मासतक स्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य जिस फलके उद्देश्यसे इस उत्तम तीर्थका सेवन करता है, उस फलको सर्वथा प्राप्त कर लेता है- इसमें संशय नहीं है।

चन्द्रमा नीरोग होकर अपना पुराना कार्य सँभालने लगे। इस प्रकार मैंने सोमनाथकी उत्पत्तिका सारा प्रसङ्ग सुना दिया। मुनीश्वरो ! इस तरह सोमेश्वरलिङ्गका प्रादुर्भाव हुआ है। जो मनुष्य सोमनाथके प्रादुर्भावकी इस कथाको सुनता अथवा दूसरोंको सुनाता है, वह सम्पूर्ण अभीष्टको पाता और सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।

(अध्याय ८-१४)


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