05. कोटिरुद्रसंहिता | 12. पत्नीसहित गौतमकी आराधनासे संतुष्ट हो भगवान् शिवका उन्हें दर्शन देना, गङ्गाको वहाँ स्थापित करके स्वयं भी स्थिर होना, देवताओंका वहाँ बृहस्पतिके सिंहराशिपर आनेपर गङ्गाजीके विशेष माहात्म्यको स्वीकार करना, गङ्गाका गौतमी (या गोदावरी) नामसे और शिवका त्र्यम्बक ज्योतिर्लिङ्गके नामसे विख्यात होना तथा इन दोनोंकी महिमा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 12. पत्नीसहित गौतमकी आराधनासे संतुष्ट हो भगवान् शिवका उन्हें दर्शन देना, गङ्गाको वहाँ स्थापित करके स्वयं भी स्थिर होना, देवताओंका वहाँ बृहस्पतिके सिंहराशिपर आनेपर गङ्गाजीके विशेष माहात्म्यको स्वीकार करना, गङ्गाका गौतमी (या गोदावरी) नामसे और शिवका त्र्यम्बक ज्योतिर्लिङ्गके नामसे विख्यात होना तथा इन दोनोंकी महिमा

सूतजी कहते हैं- पत्नीसहित गौतम ऋषिके इस प्रकार आराधना करनेपर संतुष्ट हुए भगवान् शिव वहाँ शिवा और प्रमथगणोंके साथ प्रकट हो गये। तदनन्तर प्रसन्न हुए कृपानिधान शंकरने कहा- 'महामुने ! मैं तुम्हारी उत्तम भक्तिसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर माँगो।' उस समय महात्मा शम्भुके सुन्दर रूपको देखकर आनन्दित हुए गौतमने भक्तिभावसे शंकरको प्रणाम करके उनकी स्तुति की। लंबी स्तुति और प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर वे उनके सामने खड़े हो गये और बोले- 'देव ! मुझे निष्पाप कर दीजिये ।'

भगवान् शिवने कहा- मुने ! तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो और सदा ही निष्पाप हो। इन दुष्टोंने तुम्हारे साथ छल किया । जगत्‌के लोग तुम्हारे दर्शनसे पापरहित हो जाते हैं। फिर सदा मेरी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले तुम क्या पापी हो ? मुने ! जिन दुरात्माओंने तुमपर अत्याचार किया है, वे ही पापी, दुराचारी और हत्यारे हैं। उनके दर्शनसे दूसरे लोग पापिष्ठ हो जायेंगे। वे सब-के सब कृतघ्न हैं। उनका कभी उद्धार नहीं हो सकता ।

महादेवजीकी यह बात सुनकर महर्षि गौतम मन-ही-मन बड़े विस्मित हुए। उन्होंने भक्तिपूर्वक शिवको प्रणाम करके हाथ जोड़ पुनः इस प्रकार कहा ।

गौतम बोले- महेश्वर ! उन ऋषियोंने तो मेरा बहुत बड़ा उपकार किया। यदि उन्होंने यह बर्ताव न किया होता तो मुझे आपका दर्शन कैसे होता ? धन्य हैं वे महर्षि, जिन्होंने मेरे लिये परम कल्याणकारी कार्य किया है। उनके इस दुराचारसे ही मेरा महान् स्वार्थ सिद्ध हुआ है।

गौतमजीकी यह बात सुनकर महेश्वर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने गौतमको कृपादृष्टिसे देखकर उन्हें शीघ्र ही यों उत्तर दिया।

शिवजी बोले- विप्रवर ! तुम बन्य हो, सभी ऋषियोंमें श्रेष्ठतर हो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। ऐसा जानकर तुम मुझसे उत्तम वर माँगो ।

गौतम बोले- नाथ ! आप सच कहते हैं, तथापि पाँच आदमियोंने जो कह दिया या कर दिया, वह अन्यथा नहीं हो सकता। अतः जो हो गया, सो रहे। देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे गङ्गा प्रदान कीजिये और ऐसा करके लोकका महान् उपकार कीजिये। आपको मेरा नमस्कार है, नमस्कार है।

यों कहकर गौतमने देवेश्वर भगवान् शिवके दोनों चरणारविन्द पकड़ लिये और लोकहितकी कामनासे उन्हें नमस्कार किया। तब शंकरदेवने पृथिवी और स्वर्गक सारभूत जलको निकालकर, जिसे उन्होंने पहलेसे ही रख छोड़ा था और विवाहमें ब्रह्माजीके दिये हुए जलमेंसे जो कुछ शेष रह गया था, वह सब भक्तवत्सल शम्भुने उन गौतम मुनिको दे दिया। उस समय गङ्गाजीका जल परम सुन्दर स्त्रीका रूप धारण करके वहाँ खड़ा हुआ। तब मुनिवर गौतमने उन गङ्गाजीकी स्तुति करके उन्हें नमस्कार किया। गौतम बोले- गङ्गे ! तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो। तुमने सम्पूर्ण भुवनको पवित्र किया है। इसलिये निश्चित रूपसे नरकमें गिरते हुए मुझ गौतमको पवित्र करो ।

तदनन्तर शिवजीने गङ्गासे कहा- देवि ! तुम मुनिको पवित्र करो और तुरंत वापस न जाकर वैवस्वत मनुके अट्ठाईसवें कलियुगतक यहीं रहो।

गङ्गाने कहा- महेश्वर ! यदि मेरा माहात्य सब नदियोंसे अधिक हो और अम्बिका तथा गणोंके साथ आप भी यहाँ रहें, तभी मैं इस धरातलपर रहूँगी।

गङ्गाजीकी यह बात सुनकर भगवान् शिव बोले- गङ्गे ! तुम धन्य हो। मेरी बात सुनो। मैं तुमसे अलग नहीं हूँ, तथापि मैं तुम्हारे कथनानुसार यहाँ स्थित रहूँगा। तुम भी स्थित होओ ।

अपने स्वामी परमेश्वर शिवकी यह बात सुनकर गङ्गाने मन-ही-मन प्रसन्न हो उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसी समय देवता, प्राचीन ऋषि, अनेक उत्तम तीर्थ और नाना प्रकारके क्षेत्र वहाँ आ पहुँचे। उन सबने बड़े आदरसे जय-जयकार करते हुए गौतम, गङ्गा तथा गिरिशायी शिवका पूजन किया। तदनन्तर उन सब देवताओंने मस्तक झुका हाथ जोड़कर उन सबकी प्रसन्नतापूर्वक स्तुति की। उस समय प्रसन्न हुई गङ्गा और गिरीशने उनसे कहा- 'श्रेष्ठ देवताओ ! वर माँगो। तुम्हारा प्रिय करनेकी इच्छासे वह वर हम तुम्हें देंगे।'

देवता बोले- देवेश्वर ! यदि आप संतुष्ट हैं और सरिताओंमें श्रेष्ठ गङ्गे ! यदि आप भी प्रसन्न हैं तो हमारा तथा मनुष्योंका प्रिय करनेके लिये आपलोग कृपापूर्वक यहाँ निवास करें।

गङ्गा बोलीं- देवताओ ! फिर तो सबका प्रिय करनेके लिये आपलोग स्वयं ही यहाँ क्यों नहीं रहते ? मैं तो गौतमजीके पापका प्रक्षालन करके जैसे आयी हूँ, उसी तरह लौट जाऊँगी। आपके समाजमें यहाँ मेरी कोई विशेषता समझी जाती है, इस बातका पता कैसे लगे ? यदि आप यहाँ मेरी विशेषता सिद्ध कर सकें तो मैं अवश्य यहाँ रहूँगी- इसमें संशय नहीं है।

सब देवताओंने कहा- सरिताओंमें श्रेष्ठ गङ्गे ! सबके परम सुहृद् बृहस्पतिजी जब-जब सिंह राशिपर स्थित होंगे, तब-तब हम सब लोग यहाँ आया करेंगे, इसमें संशय नहीं है। ग्यारह वर्षांतक लोगोंका जो पातक यहाँ प्रक्षालित होगा, उससे मलिन हो जानेपर हम उसी पापराशिको धोनेके लिये आदरपूर्वक तुम्हारे पास आयेंगे। हमने यह सर्वथा सच्ची बात कही है। सरिद्वरे ! महादेवि ! अतः तुमको और भगवान् शंकरको समस्त लोकोंपर अनुग्रह तथा हमारा प्रिय करनेके लिये यहाँ नित्य निवास करना चाहिये। गुरु जबतक सिंह राशिपर रहेंगे, तभीतक हम यहाँ निवास करेंगे। उस समय तुम्हारे जलमें त्रिकालस्नान और भगवान् शंकरका दर्शन करके हम शुद्ध होंगे। फिर तुम्हारी आज्ञा लेकर अपने स्थानको लौटेंगे ।

सूतजी कहते हैं- इस प्रकार उन देवताओं तथा महर्षि गौतमके प्रार्थना करनेपर भगवान् शंकर और सरिताओंमें श्रेष्ठ गङ्गा दोनों वहाँ स्थित हो गये। वहाँकी गङ्गा गौतमी (गोदावरी) नामसे विख्यात हुई और भगवान् शिवका ज्योतिर्मय लिङ्ग त्र्यम्बक कहलाया। यह ज्योतिर्लिङ्ग महान् पातकोंका नाश करनेवाला है। उसी दिनसे लेकर जब-जब बृहस्पति सिंह राशिमें स्थित होते हैं, तब-तब सब तीर्थ, क्षेत्र, देवता, पुष्कर आदि सरोवर, गङ्गा आदि नदियाँ तथा श्रीविष्णु आदि देवगण अवश्य ही गौतमीके तटपर पधारते और वास करते हैं। वे सब जबतक गौतमीके किनारे रहते हैं, तबतक अपने स्थानपर उनका कोई फल नहीं होता।

जब वे अपने प्रदेशमें लौट आते हैं, तभी वहाँ इनके सेवनका फल मिलता है। यह त्र्यम्बक नामसे प्रसिद्ध ज्योतिर्लिङ्ग गौतमीके तटपर स्थित है और बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। जो भक्ति-भावसे इस त्र्यम्बक लिङ्गका दर्शन, पूजन, स्तवन एवं वन्दन करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है। गौतमके द्वारा पूजित त्र्यम्बक नामक ज्योतिर्लिङ्ग इस लोकमें समस्त अभीष्टोंको देनेवाला तथा परलोकमें उत्तम मोक्ष प्रदान करनेवाला है। मुनीश्वरो ! इस प्रकार तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहते हो, कहो। मैं उसे भी तुम्हें बताऊँगा, इसमे संशय नहीं है। 

(अध्याय २६)





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