05. कोटिरुद्रसंहिता | 14. नागेश्वर नामक ज्योतिर्लिङ्गका प्रादुर्भाव और उसकी महिमा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 14. नागेश्वर नामक ज्योतिर्लिङ्गका प्रादुर्भाव और उसकी महिमा

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! अब मैं परमात्मा शिवके नागेश नामक परम उत्तम ज्योतिर्लिङ्गके आविर्भावका प्रसङ्ग सुनाऊँगा। दारुका नामसे प्रसिद्ध कोई राक्षसी थी, जो पार्वतीके वरदानसे सदा घमंडमें भरी रहती थी। अत्यन्त बलवान् राक्षस दारुक उसका पति था। उसने बहुत से राक्षसोंको साथ लेकर वहाँ सत्पुरुषोंका संहार मचा रखा था। वह लोगोंके यज्ञ और धर्मका नाश करता फिरता था। पश्चिम समुद्रके तटपर उसका एक वन था, जो सम्पूर्ण समृद्धियोंसे भरा रहता था। उस वनका विस्तार सब ओरसे सोलह योजन था। दारुका अपने विलासके लिये जहाँ जाती थी, वहीं भूमि, वृक्ष तथा अन्य सब उपकरणोंसे युक्त वह वन भी चला जाता था। देवी पार्वतीने उस वनकी देख-रेखका भार दारुकाको सौंप दिया था। दारुका अपने पतिके साथ इच्छानुसार उसमें विचरण करती थी। राक्षस दारुक अपनी पत्नी दारुकाके साथ वहाँ रहकर सबको भय देता था। उससे पीड़ित हुई प्रजाने महर्षि और्वकी शरणमें जाकर उनको अपना दुःख सुनाया। और्वने शरणागतोंकी रक्षाके लिये राक्षसोंको यह शाप दे दिया कि 'ये राक्षस यदि पृथ्वीपर प्राणियोंकी हिंसा या यज्ञोंका विध्वंस करेंगे तो उसी समय अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठेंगे।' देवताओंने जब यह बात सुनी, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसोंपर चढ़ाई कर दी। राक्षस घबराये। यदि वे लड़ाईमें देवताओंको मारते तो मुनिके शापसे स्वयं मर जाते हैं और यदि नहीं मारते तो पराजित होकर भूखों मर जाते हैं। उस अवस्थामें राक्षसी दारुकाने कहा कि 'भवानीके वरदानसे मैं इस सारे वनको जहाँ चाहूँ, ले जा सकती हूँ !' यों कहकर वह समस्त बनको ज्यों-का-त्यों ले जाकर समुद्रमें जा बसी। राक्षसलोग पृथ्वीपर न रहकर जलमें निर्भय निर्भय रहने लगे और वहाँ प्राणियोंको पीड़ा देने लगे ।

एक बार बहुत-सी नावें उधर आ निकलीं, जो मनुष्योंसे भरी थीं। राक्षसोंने उनमें बैठे हुए सब लोगोंको पकड़ लिया और बेड़ियोंसे बाँधकर कारागारमें डाल दिया। वे उन्हें बारंबार धमकियाँ देने लगे। उनमें सुप्रिय नामसे प्रसिद्ध एक वैश्य था, जो उस दलका सरदार था। वह बड़ा सदाचारी, भस्म-रुद्राक्षधारी तथा भगवान् शिवका परम भक्त था। सुप्रिय शिवकी पूजा किये बिना भोजन नहीं करता था। वह स्वयं तो शंकरका पूजन करता ही था, बहुत से अपने साथियोंको भी उसने शिवकी पूजा सिखा दी थी। फिर सब लोग 'नमः शिवाय' मन्त्रका जप और शंकरजीका ध्यान करने लगे। सुप्रियको भगवान् शिवका दर्शन भी होता था। दारुक राक्षसको जब इस बातका पता लगा, तब उसने आकर सुप्रियको धमकाया। उसके साथी राक्षस सुप्रियको मारने दौड़े। उन राक्षसोंको आया देख सुप्रियके नेत्र भयसे कातर हो गये, वह बड़े प्रेमसे शिवका चिन्तन और उनके नामोंका जप करने लगा ।

वैश्यपतिने कहा- देवेश्वर शंकर ! मेरी रक्षा कीजिये । कल्याणकारी त्रिलोकीनाथ! दुष्टहन्ता भक्तवत्सल शिव ! हमें इस दुष्टसे बचाइये । देव ! अब आप ही मेरे सर्वस्व हैं। प्रभो! मैं आपका हैं, आपके अधीन हैं और आप ही सदा मेरे जीवन एवं प्राण हैं।

प्रभो ! मैं आपका हूँ, आपके अधीन हूँ और आप ही सदा मेरे जीवन एवं प्राण हैं।

सूतजी कहते हैं- सुप्रियके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भगवान् शंकर एक विवरसे निकल पड़े। उनके साथ ही चार दरवाजोंका एक उत्तम मन्दिर भी प्रकट हो गया। उसके मध्यभागमें अद्भुत ज्योतिर्मय शिवलिङ्ग प्रकाशित हो रहा था। उसके साथ शिव- परिवारके सब लोग विद्यमान थे। सुप्रियने उनका दर्शन करके पूजन किया, पूजित होनेपर भगवान् शम्भुने प्रसन्न हो स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रधान-प्रधान राक्षसों, उनके सारे उपकरणों तथा सेवकोंको भी तत्काल ही नष्ट कर दिया और उन दुष्टहन्ता शंकरने अपने भक्त सुप्रियकी रक्षा की। तत्पश्चात् अद्भुत लीला करनेवाले और लीलासे ही शरीर धारण करनेवाले शम्भुने उस वनको यह वर दिया कि आजसे इस वनमें सदा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चारों वर्णोंक धर्मोंका पालन हो । यहाँ श्रेष्ठ मुनि निवास करें और तमोगुणी राक्षस इसमें कभी न रहें। शिवधर्मके उपदेशक, प्रचारक और प्रवर्तक लोग इसमें निवास करें !

सूतजी कहते हैं- इसी समय राक्षसी दारुकाने दीनचित्तसे देवी पार्वतीकी स्तुति की। देवी पार्वती प्रसन्न हो गयीं और बोलीं- 'बताओ, तेरा क्या कार्य करूँ ?' उसने कहा- 'मेरे वंशकी रक्षा कीजिये ?' देवी बोलीं- 'मैं सच कहती हूँ, तेरे कुलकी रक्षा करूँगी।' ऐसा कहकर देवी भगवान् शिवसे बोलीं- 'नाथ ! आपकी यह बात युगके अन्तमें सच्ची होगी। तबतक तामसी सृष्टि भी रहे, ऐसा मेरा विचार है। मैं भी आपकी ही हूँ और आपके ही आश्रयमें रहती हूँ। अतः मेरी बातको भी प्रमाणित (सत्य) कीजिये। यह राक्षसी दारुका देवी है-मेरी ही शक्ति है और राक्षसियोंमें बलिष्ठ है। अतः यही राक्षसोंके राज्यका शासन करे। ये राक्षस-पत्नियाँ जिन पुत्रोंको पैदा करेंगी, वे सब मिलकर इस वनमें निवास करें, ऐसी मेरी इच्छा है।

शिव बोले- प्रिये ! यदि तुम ऐसी बात कहती हो तो मेरा यह वचन सुनो। मैं भक्तोंका पालन करनेके लिये प्रसन्नतापूर्वक इस वनमें रहूँगा। जो पुरुष यहाँ वर्णधर्मके पालनव तत्पर हो प्रेमपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा होगा। कलियुगके अन्त और सत्ययुगके आरम्भमें महासेनका पुत्र वीरसेन राजाओंका भी राजा होगा। वह मेरा भक्त और अत्यन्त पराक्रमी होगा और यहाँ आका मेरा दर्शन करेगा। दर्शन करते ही वह चक्रवर्ती सम्राट् हो जायगा।

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! इस प्रकार बड़ी-बड़ी लीलाएँ करनेवाले वे दम्पति परस्पर हास्ययुक्त वार्तालाप करके स्वयं वहाँ स्थित हो गये। ज्योतिर्लिङ्गस्वरूप महादेवजी वहाँ नागेश्वर कहलाये और शिवा देवी नागेश्वरीके नामसे विख्यात हुई। वे दोनों ही सत्पुरुषोंको प्रिय हैं।

इस प्रकार ज्योतियोंके स्वामी नागेश्वर नामक महादेवजी ज्योतिर्लिङ्गके रूपमें प्रकट हुए। वे तीनों लोकोंकी सम्पूर्ण कामनाओंको सदा पूर्ण करनेवाले हैं। जो प्रतिदिन आदरपूर्वक नागेश्वरके प्रादुर्भावका यह प्रसङ्ग सुनता है, वह बुद्धिमान् मानव महापातकोंका नाश करनेवाले सम्पूर्ण मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है।

(अध्याय २९-३०)

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