01. शिवपुराण माहात्म्य || 04. चञ्चलाकी प्रार्थनासे ब्राह्मणका उसे पूरा शिवपुराण सुनाना और समयानुसार शरीर छोड़कर शिवलोकमें जा चञ्चुलाका पार्वतीजीकी सखी एवं सुखी होना

01. शिवपुराण माहात्म्य || 04. चञ्चलाकी प्रार्थनासे ब्राह्मणका उसे पूरा शिवपुराण सुनाना और समयानुसार शरीर छोड़कर शिवलोकमें जा चञ्चुलाका पार्वतीजीकी सखी बनना एवं सुखी होना
ब्राह्मण बोले
नारी ! सौभाग्यकी बात है कि भगवान् शंकरकी कृपासे शिवपुराणकी इस वैराग्ययुक्त कथाको सुनकर तुम्हें समयपर चेत हो गया है। ब्राह्मणपत्नी तुम डरो मत। भगवान् शिवकी शरण में जाओ। शिवकी कृपासे सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। मैं तुमसे भगवान् शिवकी कीर्तिकथासे युक्त उस परम वस्तुका वर्णन करूंगा, जिससे तुम्हें सदा सुख देनेवाली उत्तम गति प्राप्त होगी। शिवकी उत्तम कथा सुननेसे ही तुम्हारी बुद्धि इस तरह पश्चात्तापसे युक्त एवं शुद्ध हो गयी है। साथ ही तुम्हारे मनमें विषयोंके प्रति वैराग्य हो गया है। पश्चात्ताप ही पाप करनेवाले पापियोंके लिये सबसे बड़ा प्रायश्चित है। सत्पुरुषोंने सबके लिये पश्चातापको ही समस्त पापोंका शोधक बताया है, पश्चात्तापसे ही पापोंकी शुद्धि होती है। जो पश्चात्ताप करता है, वही वास्तव में पापोंका प्रायश्चित करता है; क्योंकि सत्पुरुषोंने समस्त पापोंकी शुद्धिके लिये जैसे प्रायश्चितका उपदेश किया है, वह सब पश्चात्तापसे सम्पन्न हो जाता है। जो पुरुष विधिपूर्वक प्रायश्चित करके निर्भय हो जाता है, पर अपने कुकर्मके लिये पश्चात्ताप नहीं करता, उसे प्रायः उत्तम गति नहीं प्राप्त होती परंतु जिसे अपने कुकृत्यपर हार्दिक पश्चाताप होता है, वह अवश्य उत्तम गतिका भागी होता है, इसमें संशय नहीं। 

इस शिवपुराणकी कथा सुननेसे जैसी चित्तशुद्धि होती है, वैसी दूसरे उपायोंसे नहीं होती। जैसे दर्पण साफ करनेपर निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार इस शिवपुराणकी कथासे चित अत्यन्त शुद्ध हो जाता है-इसमें संशय नहीं है। मनुष्योंके शुद्धचित्तमें जगदम्बा पार्वती सहित भगवान् शिव विराजमान रहते हैं। इससे वह विशुद्धात्मा पुरुष श्रीसाम्ब सदाशिव के पदको प्राप्त होता है। इस उत्तम कथाका श्रवण समस्त मनुष्योंके लिये कल्याणका बीज है। अतः यथोचित इसकी पूजा (शास्त्र) तरीके से की जानी चाहिए या इसकी सेवा की जानी चाहिए। यह बंधन के रोग का नाश करने वाला है। भगवान शिव की कथा सुनने के बाद मन ही मन उस पर मनन करना चाहिए। इससे मन की पूर्ण शुद्धि होती है। मन के शुद्ध होने से महेश्वर की भक्ति निश्चित रूप से अपने दो पुत्रों (ज्ञान और त्याग) के साथ प्रकट होती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि महेश्वर की कृपा से दिव्य मुक्ति प्राप्त होती है। जो मुक्ति से वंचित है उसे पशु समझना चाहिए; क्योंकि उसका मन माया के बन्धन में लगा हुआ है। निश्चय ही वह संसार के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता।

इसलिए आपको अपने मन को विषयों से हटा देना चाहिए और भगवान शिव की इस परम पवित्र कथा को भक्ति के साथ सुनना चाहिए।भगवान शिव की इस कथा को सुनने से आपका मन शुद्ध हो जाएगा और आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी। जो शुद्ध मन से भगवान शिव के चरणकमलों का ध्यान करता है, उसे एक जन्म में ही मुक्ति मिल जाती है।

सूतजी कहते हैं
शौनक ! इतना कहकर वे श्रेष्ठ शिवभक्त ब्राह्मण चुप हो गये। उनका हृदय करुणासे आद्र हो गया था। वे शुद्धचित्त महात्मा भगवान् शिवके ध्यानमें मग्न हो गये। तदनन्तर बिन्दुगकी पत्री चञ्चला मन-ही-मन प्रसन्न हो उठी। ब्राह्मणका उक्त उपदेश सुनकर उसके नेत्रोमें आनन्दके आँसू छलक आये थे। वह ब्राह्मणपत्नी चञ्चला हर्षभरे हृदयसे उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके दोनों चरणोंमें गिर पड़ी और हाथ जोड़कर बोली- 'मैं कृतार्थ हो गयी।" तत्पश्चात उठकर वैराग्ययुक्त उत्तम बुद्धिवाली वह स्त्री, जो अपने पापोंके कारण आतङ्कित थी, उन महान् शिव-भक्त ब्राह्मणसे हाथ जोड़कर गदगद वाणीमें बोली।

चञ्चलाने कहा
ब्रह्मन् । शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ स्वामिन्! आप धन्य है, परमार्थदर्शी है और सदा परोपकारमें लगे रहते हैं। इसलिये श्रेष्ठ साधु पुरुषोंने प्रशंसा के योग्य है। साधो । मैं नरकके समुद्रमें गिर रही हूँ। आप मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये। पौराणिक अर्थतत्व से सम्पन्न जिस सुन्दर शिवपुराणकी कथाको सुनकर मेरे मनमें सम्पूर्ण विषयोंसे वैराग्य उत्पन्न हो गया, उसी इस शिवपुराणको सुननेके लिये इस समय मेरे मनमें बड़ी श्रद्धा हो रही है।

सूतजी कहते हैं
ऐसा कहकर हाथ जोड़ उनका अनुग्रह पाकर चञ्चला उस शिवपुराणकी कथाको सुननेकी इच्छा मनमें लिये उन ब्राह्मणदेवताकी सेवामें तत्पर हो वहाँ रहने लगी। तदनन्तर शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ और शुद्ध बुद्धिवाले उन ब्राह्मणदेवने उसी स्थानपर उस स्त्रीको शिवपुराणकी उत्तम कथा सुनायी। इस प्रकार उस गोकर्ण नामक महाक्षेत्रमें उन्हीं श्रेष्ठ ब्राह्मणसे उसने शिवपुराणकी यह परम उत्तम कथा सुनी, जो भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको बढ़ानेवाली तथा मुक्ति देनेवाली है। उस परम उत्तम कथाको सुनकर वह ब्राह्मण पत्नी अत्यन्त कृतार्थ हो गयी। उसका चित्त शीघ्र ही शुद्ध हो गया। फिर भगवान् शिवके अनुग्रहसे उसके हृदयमें शिवके सगुणरूपका चिन्तन होने लगा। इस प्रकार उसने भगवान् शिवमें लगी रहनेवाली उत्तम बुद्धि पाकर शिवके सच्चिदानन्दमय स्वरूपका बारंबार चिन्तन आरम्भ किया। तत्पश्चात् समयके पूरे होनेपर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे युक्त हुई चञ्चलाने अपने शरीरको बिना किसी कष्टके त्याग दिया! इतनेमें ही त्रिपुरशत्रु भगवान् शिवका भेजा हुआ एक दिव्य विमान द्रुत गतिसे वहाँ पहुँचा, जो उनके अपने गणोंसे संयुक्त और भाँति भांतिके शोधा-साधनोंसे सम्पन्न था। चञ्चला उस विमानपर आरूढ़ हुई और भगवान् शिवके श्रेष्ठ पार्षदोंने उसे तत्काल शिवपुरीमें पहुँचा दिया। उसके सारे मल धुल गये थे। वह दिव्यरूपधारिणी दिव्याङ्गना हो गयी थी। उसके दिव्य अवयव उसकी शोभा बढ़ाते थे। मस्तकपर अर्धचन्द्राकार मुकुट धारण किये वह गौराङ्गी देवी शोभाशाली दिव्य आभूषणोंसे विभूषित थी। शिवपुरीमें पहुंचकर उसने सनातन देवता त्रिनेत्रधारी महादेवजीको देखा। सभी मुख्य-मुख्य देवता उनकी सेवा में खड़े थे। गणेश, भृङ्गी, नन्दीश्वर तथा वीरभद्रेश्वर आदि उनकी सेवामें उत्तम भक्तिभावसे उपस्थित थे। उनकी अंगकान्ति करोड़ों सूर्योॉके समान प्रकाशित हो रही थी। कण्ठमें नील चिह्न शोभा पाता था। पाँच मुख और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र थे। मस्तकपर अर्द्धचन्द्राकार मुकुट शोभा देता था। उन्होंने अपने वामाङ्ग भागमें गौरी देवीको बिठा रखा था, जो विद्युत्-पुञ्जके समान प्रकाशित थीं। गौरीपति महादेवजीकी कान्ति कपूरके समान गौर थी। उनका सारा शरीर श्वेत भस्मसे भासित हो रहा था। शरीरपर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहे थे। इस प्रकार परम उज्ज्वल भगवान् शंकरका दर्शन करके वह ब्राह्मण पत्नी चञ्चला बहुत प्रसन्न हुई।

अत्यन्त प्रीतियुक्त होकर उसने बड़ी उतावलीके साथ भगवान्‌को बारंबार प्रणाम किया। फिर हाथ जोड़कर वह बड़े प्रेम, आनन्द और संतोषसे युक्त हो विनीतभावसे खड़ी हो गयी। उसके नेत्रोंसे आनन्दाश्रुओं की अविरल धारा बहने लगी तथा सम्पूर्ण शरीरमें रोमाञ्च हो गया। उस समय भगवती पार्वती और भगवान् शंकरने उसे बड़ी करुणाके साथ अपने पास बुलाया और सौम्य दृष्टिसे उसकी ओर देखा। पार्वतीजीने तो दिव्यरूपधारिणी बिन्दुगप्रिया चञ्चुलाको प्रेमपूर्वक अपनी सखी बना लिया। वह उस परमानन्दवन ज्योतिःस्वरूप सनातन धाममें अविचल निवास पाकर दिव्य सौख्यसे सम्पन्न हो अक्षय सुखका अनुभव करने लगी। 
(अध्याय 4)




पश्चात्ताप: पापकृतां पापानां निष्कृतिः परा। सर्वेषां वर्णितं सद्भिः सर्वपापविशोधनम् ॥ 
पश्चात्तापेनैव शुद्धिः प्रायचित्तं करोति सः। यथोपदिष्टं सद्भर्हि सर्वपापविशोधनम् ॥

(शिवपुराण माहात्म्य अंक 3 श्लोक 5-6)

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