02. विद्येश्वरसंहिता || 05 - 08 तक || भगवान् शिव लिङ्ग एवं साकार विग्रहकी पूजाके रहस्य तथा महत्त्वका वर्णन

02. विद्येश्वरसंहिता  || 05 - 08 तक || भगवान् शिव लिङ्ग एवं साकार विग्रहकी पूजाके रहस्य तथा महत्त्वका वर्णन

सूतजी कहते हैं 
शौनक ! जो श्रवण, कीर्तन और मनन -इन तीनों साधनोंके नित्य अनुष्ठान में समर्थ न हो, वह भगवान् शंकरके लिङ्ग एवं मूर्तिकी स्थापना करके उसकी पूजा करे तो संसार-सागरसे  पार हो सकता है। वञ्चना अथवा छल न करते हुए अपनी शक्तिके अनुसार धनराशि ले जाय और उसे शिवलिङ्ग अथवा Preमूर्ति सेवाके लिये अर्पित कर दे। साथ ही निरन्तर उसलिंग एवं मूर्तिकी पूजा भी करे। उसके लिये भक्तिभावसे मण्डप, गोपुर, तीर्थ, मठ एवं क्षेत्रकी स्थापना करे तथा उत्सव रचाये । वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा पूआ और शाक आदि व्यञ्जनोंसे युक्त भाँति-भाँति के भक्ष्य भोजन अन्न नैवेद्यके रूपमें समर्पित करे। छञ, ध्वजा, व्यजन, वामर तथा अन्य अङ्गसहित राजोपचारकी भाँति सब सामान भगवान् शिवके लिङ्ग एवं मूर्तिको चढ़ाये प्रदक्षिणा, नमस्कार तथा यथाशक्ति जप करे। आवाहनसे लेकर विसर्जनतक सारा कार्य प्रतिदिन भक्तिभावसे सम्पन्न करे। इस प्रकार शिवलिङ्ग अथवा शिवमूर्ति भगवान् शंकरकी पूजा करनेवाला पुरुष श्रवणादि साधनोंका अनुष्ठान न करे तो भी भगवान् शिवकी प्रसन्नतासे सिद्धि प्राप्त कर लेता है। पहलेके बहुत से महात्मा पुरुष लिङ्ग तथा शिवमूर्तिकी पूजा करनेमात्रसे भवबन्धनसे मुक्त हो चुके हैं।

ऋषियो पूछा
मूर्ति में ही सर्वत्र देवताओंकी पूजा होती है (लिङ्गमें नहीं), परंतु भगवान् शिवकी पूजा सब जगह मूर्तियें और लिङ्गमें भी क्यों की जाती है ?

सूतजीने कहा
मुनीश्वरो ! तुम्हारा यह प्रश्न तो बड़ा ही पवित्र और अत्यन्त अद्भुत । इस विषयमें महादेवजी ही बक्ता हो सकते हैं। दूसरा कोई पुरुष कभी और कहीं भी इसका प्रतिपादन नहीं कर सकता। इस प्रश्नके समाधानके लिये भगवान् शिवने जो कुछ कहा है और उसे मैंने गुरुजीके मुखसे जिस प्रकार सुना है, उसी तरह क्रमशः वर्णन करूँगा। एकमात्र भगवान् शिव ही ब्रह्मरूप होनेके कारण 'निष्कल' (निराकार) कहे गये हैं। रूपवान् होनेके कारण उन्हें 'सकल' भी कहा गया है। इसलिये वे सकल और निष्कल दोनों हैं। शिवके निष्कल निराकार होनेके कारण ही उनकी पूजाका आधारभूत लिङ्ग भी निराकार ही प्राप्त हुआ है। अर्थात् शिवलिङ्ग शिवके निराकार स्वरूपका प्रतीक है। इसी तरह शिवके सकल या साकार होनेके कारण उनकी पूजाका आधारभूत विग्रह साकार प्राप्त होता है अर्थात् शिवका साकार विग्रह उनके साकार स्वरूपका प्रतीक होता है। सकल और अकल (समस्त अङ्ग आकार सहित साकार और अङ्ग आकारसे सर्वथा रहित निराकार) रूप होनेसे ही वे 'ब्रह्म' शब्दसे कहे जानेवाले परमात्मा हैं। यही कारण है कि सब लोग लिङ्ग (निराकार) और मूर्ति (साकार) दोनोंमें ही सदा भगवान् शिवकी पूजा करते हैं। शिवसे भिन्न जो दूसरे दूसरे देवता हैं, वे साक्षात् ब्रह्म नहीं हैं। इसलिये कहीं भी उनके लिये निराकार लिङ्ग नहीं उपलब्ध होता ।

पूर्वकालमें बुद्धिमान् ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार मुनिने मन्दराचलपर नन्दिकेश्वरसे इसी प्रकारका प्रश्न किया था ।

सनत्कुमार बोले 
भगवन्! शिवसे भिन्न जो देवता हैं। उन सबकी पूजाके लिये सर्वत्र प्रायः वेर (मूर्ति) मात्र ही अधिक संख्यामें देखा और सुना जाता है। केवल भगवान् शिवकी ही पूजामें लिग और वेर दोनोंका उपयोग देखनेमें आता है। अतः कल्याणमय नन्दिकेश्वर ! इस विषयमें जो तत्त्वकी बात हो, उसे मुझे इस प्रकार बताइये, जिससे अच्छी तरह समझमें आ जाय।

नन्दिकेश्वर ने कहा
निष्याप ब्रह्मकुमार ! आपके इस प्रश्नका हम जैसे लोगोंके द्वारा कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता; क्योंकि यह गोपनीय विषय है और लिङ्ग साक्षात् ब्रह्मका प्रतीक है। तथापि आप शिवभक्त है। इसलिये इस विषयमें भगवान् शिवने जो कुछ बताया है, उसे ही आपके समक्ष कहता । भगवान् शिव ब्रह्मस्वरूप और निष्कल (निराकार) है इसलिये उन्हींकी पूजामें निष्कल लिंगका उपयोग होता है। सम्पूर्ण वेदोंका यही मत है।

सनत्कुमार बोले
महाभाग योगीन्द्र ! आपने भगवान् शिव तथा दूसरे देवताओंके पूजनमें लिङ्ग और वेरके प्रचारका जो रहस्य विभागपूर्वक बताया है, वह यथार्थ है। इसलिये लिङ्ग और वेरकी आदि उत्पत्तिका जो उत्तम वृत्तान्त है, उसीको में इस समय सुनना चाहता हूँ। लिङ्गके प्राकट्यका रहस्य सूचित करनेवाला प्रसङ्ग मुझे सुनाइये। इसके उत्तरमें नन्दिकेश्वरने भगवान् महादेवके निष्कल स्वरूप लिङ्गके आविर्भावका प्रसङ्ग सुनाना आरम्भ किया। उन्होंने ब्रह्मा तथा विष्णुके विवाद, देवताओंकी व्याकुलता एवं चिन्ता, देवताओंका दिव्य कैलास शिखरपर गमन, उनके द्वारा चन्द्रशेखर महादेवका स्तवन, देवताओंसे प्रेरित हुए महादेवजीका ब्रह्मा और विष्णुके विवाद-स्थलमें आगमन तथा दोनोंके बीचमें निष्कल आदि-अन्तरहित भीषण अग्निस्तम्भके रूपमें उनका आविर्भाव आदि प्रसङ्गों की कथा कही तदनन्तर श्रीब्रह्मा और विष्णु दोनोंके द्वारा उस ज्योतिर्मय स्तम्भकी ऊँचाई और गहराईंका थाह लेनेकी चेष्टा एवं केतकी पुष्पके शाप वरदान आदिके प्रसङ्ग भी सुनाये। 
(अध्याय 5 - 8 तक)

Comments

Popular posts from this blog

02. विद्येश्वरसंहिता || 19. पार्थिवलिङ्गके निर्माणकी रीति तथा वेद-मन्त्रोंद्वारा उसके पूजनकी विस्तृत एवं संक्षिप्त विधिका वर्णन

शमी पत्र व मंदार की मार्मिक कथा

02. विद्येश्वरसंहिता || 20. पार्थिवलिङ्गके निर्माणकी रीति तथा सरल पूजन विधिका वर्णन