03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 03. मायानिर्मित नगरमें शीलनिधिकी कन्यापर मोहित हुए नारदजीका भगवान् विष्णुसे उनका रूप माँगना, भगवान्का अपने रूपके साथ उन्हें वानरका-सा मुँह देना, कन्याका भगवान्को वरण करना और कुपित हुए नारदका शिवगणोंको शाप देना

03. रुद्रसंहिता | प्रथम (सृष्टि) खण्ड | 03. मायानिर्मित नगरमें शीलनिधिकी कन्यापर मोहित हुए नारदजीका भगवान् विष्णुसे उनका रूप माँगना, भगवान्का अपने रूपके साथ उन्हें वानरका-सा मुँह देना, कन्याका भगवान्को वरण करना और कुपित हुए नारदका शिवगणोंको शाप देना

सूतजी कहते हैं-महर्षियो ! जब नारदमुनि इच्छानुसार वहाँसे चले गये, तब भगवान् शिवकी इच्छासे मायाविशारद श्रीहरिने तत्काल अपनी माया प्रकट की। उन्होंने मुनिके मार्गमें एक विशाल नगरकी रचना की, जिसका विस्तार सौ योजन था । वह अद्भुत नगर बड़ा ही मनोहर था । भगवान्ने उसे अपने वैकुण्ठलोकसे भी अधिक रमणीय बनाया था। नाना प्रकार- की वस्तुएँ उस नगरकी शोभा बढ़ाती थीं। वहाँ स्त्रियों और पुरुषोंके लिये बहुत-से विहार-स्थल थे। वह श्रेष्ठ नगर चारों वर्णोंके लोगोंसे भरा था। वहाँ शीलनिधि नामक ऐश्वर्यशाली राजा राज्य करते थे। वे अपनी पुत्रीका स्वयंवर करनेके लिये उद्यत थे। अतः उन्होंने महान् उत्सवका आयोजन किया था। उनकी कन्याका वरण करनेके लिये उत्सुक हो चारों दिशाओंसे बहुत-से राजकुमार पधारे थे, जो नाना प्रकारकी वेशभूषा तथा सुन्दर शोभासे प्रकाशित हो रहे थे। उन राजकुमारोंसे वह नगर भरा-पूरा दिखायी देता था। ऐसे सुन्दर राजनगरको देख नारदजी मोहित हो गये। वे राजा शीलनिधिके द्वारपर गये। मुनिशिरोमणि नारदको आया देख महाराज शीलनिधिने श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासनपर बिठाकर उनका पूजन किया। तत्पश्चात् अपनी सुन्दरी कन्याको, जिसका नाम श्रीमती था,बुलवाया और उससे नारदजीके चरणोंमें दका शिवगणोंको शाप देना प्रणाम करवाया। उस कन्याको देखकर नारदमुनि चकित हो गये और बोले- 'राजन् ! यह देवकन्याके समान सुन्दरी महाभागा कन्या कौन है ?' उनकी यह बात सुनकर राजाने हाथ जोड़कर कहा - 'मुने ! यह मेरी पुत्री है। इसका नाम श्रीमती है। अब इसके विवाहका समय आ गया है। यह अपने लिये सुन्दर वर चुननेके निमित्त स्वयंवरमें जानेवाली है। इसमें सब प्रकारके शुभ लक्षण लक्षित होते हैं। महर्षे ! आप इसका भाग्य बताइये ।'

राजाके इस प्रकार पूछनेपर कामसे विह्वल हुए मुनिश्रेष्ठ नारद उस कन्याको प्राप्त करनेकी इच्छा मनमें लिये राजाको सम्बोधित करके इस प्रकार बोले- धा 'भूपाल ! आपकी यह पुत्री समस्त वि शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है, परम सौभाग्यवती है है। अपने महान् भाग्यके कारण यह धन्य है और साक्षात् लक्ष्मीकी भाँति समस्त गुणों- ल की आगार है। इसका भावी पति निश्चय ही भगवान् शंकरके समान वैभवशाली, च सर्वेश्वर, किसीसे पराजित न होनेवाला, वीर, कामविजयी तथा सम्पूर्ण देवताओंमें श्रेष्ठ होगा ।'

ऐसा कहकर राजासे विदा ले इच्छानुसार विचरनेवाले नारदमुनि वहाँसे चल दिये । वे कामके वशीभूत हो गये थे। शिवकी मायाने उन्हें विशेष मोहमें डाल दिया था। वे मुनि मन-ही-मन सोचने लगे कि 'मैं इस राजकुमारीको कैसे प्राप्त करूँ ? स्वयंवरमें आये हुए नरेशोंमेंसे सबको छोड़कर यह एकमात्र मेरा ही वरण करे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? समस्त नारियोंको सौन्दर्य सर्वथा प्रिय होता है। सौन्दर्यको देखकर ही वह प्रसन्नतापूर्वक मेरे अधीन हो सकती है, इसमें संशय नहीं है।'

ऐसा विचारकर कामसे विह्वल हुए मुनिवर नारद भगवान् विष्णुका रूप ग्रहण करनेके लिये तत्काल उनके लोकमें जा पहुँचे । वहाँ भगवान् विष्णुको प्रणाम करके वे इस प्रकार बोले- 'भगवन् ! मैं एकान्तमें आपसे अपना सारा वृत्तान्त कहूँगा।' तब 'बहुत अच्छा' कहकर लक्ष्मीपति श्रीहरि नारदजीके साथ एकान्तमें जा बैठे और बोले-'मुने ! अब आप अपनी बात कहिये ।'

तब नारदजीने कहा- भगवन् ! आपके भक्त जो राजा शीलनिधि हैं, वे सदा धर्म-पालनमें तत्पर रहते हैं। उनकी एक विशाललोचना कन्या है, जो बहुत ही सुन्दरी है। उसका नाम श्रीमती है। वह विश्व- मोहिनीके रूपमें विख्यात है और तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दरी है। प्रभो ! आज मैं शीघ्र ही उस कन्यासे विवाह करना चाहता हूँ। राजा शीलनिधिने अपनी पुत्रीकी इच्छासे स्वयंवर रचाया है। इसलिये चारों दिशाओंसे वहाँ सहस्रों राजकुमार पधारे हैं। नाथ ! मैं आपका प्रिय सेवक हूँ। अतः आप मुझे अपना स्वरूप दे दीजिये, जिससे राजकुमारी श्रीमती निश्चय ही मुझे वर ले।

सूतजी कहते हैं-महर्षियो ! नारद- मुनिकी ऐसी बात सुनकर भगवान् मधुसूदन हँस पड़े और भगवान् शंकरके प्रभावका अनुभव करके उन दयालु प्रभुने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया -

भगवान् विष्णु बोले- मुने ! तुम अपने अभीष्ट स्थानको जाओ। मैं उसी तरह तुम्हारा हित-साधन करूँगा, जैसे श्रेष्ठ वैद्य अत्यन्त पीड़ित रोगीका करता है; क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिय हो ।

ऐसा कहकर भगवान् विष्णुने नारदमुनिको मुख तो वानरका दे दिया और शेष अङ्गोंमें अपने-जैसा स्वरूप देकर वे वहाँसे अन्तर्धान हो गये। भगवान्की = पूर्वोक्त बात सुनकर और उनका मनोहर रूप - प्राप्त हो गया समझकर नारदमुनिको बड़ा हर्ष हुआ। वे अपनेको कृतकृत्य मानने लगे । भगवान्ने क्या प्रयत्न किया है, इसको वे समझ न सके । तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ नारद शीघ्र ही उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ राजा शीलनिधिने राजकुमारोंसे भरी हुई स्वयंवर सभाका आयोजन किया था। विप्रवरो ! राजपुत्रोंसे घिरी हुई वह दिव्य स्वयंवर-सभा दूसरी इन्द्रसभाके समान अत्यन्त शोभा पा रही थी। नारदजी उस राजसभामें जा बैठे और वहाँ बैठकर प्रसन्न मनसे बार-बार यही सोचने लगे कि 'मैं भगवान् विष्णुके समान रूप धारण किये हुए हूँ। अतः वह राजकुमारी अवश्य मेरा ही वरण करेगी, दूसरेका नहीं।' मुनिश्रेष्ठ नारदको यह ज्ञात नहीं था कि मेरा मुँह कितना कुरूप है। उस सभामें बैठे हुए सब मनुष्योंने मुनिको उनके पूर्वरूपमें ही देखा। राजकुमार आदि कोई भी उनके रूप-परिवर्तनके रहस्यको न जान सके । वहाँ नारदजीकी रक्षाके लिये भगवान् रुद्रके दो पार्षद आये थे, जो ब्राह्मणका रूप धारण करके गूढ़भावसे वहाँ बैठे थे। वे ही नारदजीके रूप-परिवर्तनके उत्तम भेदको जानते थे। मुनिको कामावेशसे मूढ हुआ जान वे दोनों पार्षद उनके निकट गये और आपसमें बातचीत करते हुए उनकी हँसी उड़ाने लगे। परंतु मुनि तो कामसे विह्वल हो रहे थे। अतः उन्होंने उनकी यथार्थ बात भी अनसुनी कर दी। वे मोहित हो श्रीमतीको प्राप्त करनेकी इच्छासे उसके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे ।

इसी बीचमें वह सुन्दरी राजकन्या स्त्रियोंसे घिरी हुई अन्तःपुरसे वहाँ आयी। उसने अपने हाथमें सोनेकी एक सुन्दर माला ले रखी थी। वह शुभलक्षणा राजकुमारी स्वयंवरके मध्यभागमें लक्ष्मीके समान खड़ी हुई अपूर्व शोभा पा रही थी। उत्तम व्रतका पालन करनेवाली वह भूपकन्या माला हाथमें लेकर अपने मनके अनुरूप वरका अन्वेषण करती हुई सारी सभामें भ्रमण करने लगी। नारदमुनिका भगवान् विष्णुके समान शरीर और वानर-जैसा मुँह देखकर वह कुपित हो गयी और उनकी ओरसे दृष्टि हटाकर प्रसन्न मनसे दूसरी ओर चली गयी। स्वयंवर-सभामें अपने मनोवाञ्छित वरको न देखकर वह भयभीत हो गयी। राजकुमारी उस सभाके भीतर चुपचाप खड़ी रह गयी। उसने किसीके गलेमें जयमाला नहीं डाली। इतनेमें ही राजाके समान वेशभूषा धारण किये भगवान् विष्णु वहाँ आ पहुँचे। किन्हीं दूसरे लोगोंने उनको वहाँ नहीं देखा। केवल उस कन्याकी ही दृष्टि उनपर पड़ी। भगवान्को देखते ही उस परमसुन्दरी राजकुमारीका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। उसने तत्काल ही उनके कण्ठमें वह माला पहना दी। राजाका रूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु उस राजकुमारीको साथ लेकर तुरंत अदृश्य हो गये और अपने धाममें जा पहुँचे। इधर सब राजकुमार श्रीमतीकी ओरसे निराश हो गये। नारदमुनि तो कामवेदनासे आतुर हो रहे थे। इसलिये वे अत्यन्त विह्वल हो उठे। तब वे दोनों विप्ररूपधारी ज्ञानविशारद रुद्रगण काम- विह्वल नारदजीसे उसी क्षण बोले-

रुद्रगणोंने कहा- हे नारद ! हे मुने ! तुम व्यर्थ ही कामसे मोहित हो रहे हो और सौन्दर्यके बलसे राजकुमारीको पाना चाहते हो । अपना वानरके समान घृणित मुँह तो देख लो।

सूतजी कहते हैं- महर्षियो ! उन रुद्रगणोंका यह वचन सुनकर नारदजीको बड़ा विस्मय हुआ। वे शिवकी मायासे मोहित थे। उन्होंने दर्पणमें अपना मुँह देखा । वानरके समान अपना मुँह देख वे तुरंत ही क्रोधसे जल उठे और मायासे मोहित होनेके कारण उन दोनों शिवगणोंको वहाँ शाप देते हुए बोले- 'अरे ! तुम दोनोंने मुझ ब्राह्मणका उपहास किया है। अतः तुम ब्राह्मणके वीर्यसे उत्पन्न राक्षस हो जाओ । ब्राह्मणकी संतान होनेपर भी तुम्हारे आकार राक्षसके समान ही होंगे।' इस प्रकार अपने लिये शाप सुनकर वे दोनों ज्ञानिशिरोमणि शिवगण मुनिको मोहित जानकर कुछ नहीं बोले । ब्राह्मणो ! वे सदा सब घटनाओंमें भगवान् शिवकी ही इच्छा मानते थे । अतः उदासीन भावसे अपने स्थानको चले गये और भगवान् शिवकी स्तुति करने लगे ।

(अध्याय ३)


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