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Showing posts from August, 2024

05. कोटिरुद्रसंहिता | 17. शंकरजीकी आराधनासे भगवान् विष्णुको सुदर्शन चक्रकी प्राप्ति तथा उसके द्वारा दैत्योंका संहार

05. कोटिरुद्रसंहिता | 17. शंकरजीकी आराधनासे भगवान् विष्णुको सुदर्शन चक्रकी प्राप्ति तथा उसके द्वारा दैत्योंका संहार व्यासजी कहते है- सूतका यह वचन सुनकर उन मुनीश्वरोंने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके लोकहितकी कामनासे इस प्रकार कहा। ऋषि बोले- सूतजी ! आप सब जानते हैं। इसलिये हम आपसे पूछते हैं। प्रभो ! हरीश्वर-लिङ्गकी महिमाका वर्णन कीजिये। तात ! हमने पहलेसे सुन रखा है कि भगवान् विष्णुने शिवकी आराधनासे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था। अतः उस कथापर भी विशेषरूपसे प्रकाश डालिये । सूतजीने कहा- मुनिवरो । हरीश्वर- लिङ्गकी शुभ कथा सुनो ! भगवान् विष्णुने पूर्वकालमें हरीश्वर शिवसे ही सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था। एक समयकी बात है, दैत्य अत्यन्त प्रबल होकर लोगोंको पीड़ा देने और धर्मका लोप करने लगे। उन महाबली और पराक्रमी दैत्योंसे पीड़ित हो देवताओंने देवरक्षक भगवान् विष्णुसे अपना सारा दुःख कहा। तब श्रीहरि कैलासपर जाकर भगवान् शिवकी विधिपूर्वक आराधना करने लगे। वे हजार नामोंसे शिवकी स्तुति करते तथा प्रत्येक नामपर एक कमल चढ़ाते थे। तब भगवान् शंकरने विष्णुके भक्तिभावकी परीक्षा करनेके लिये उनके लाये हुए एक हजार कम

शतरुद्रसंहिता | शिवजीके द्वादश ज्योतिर्लिङ्गावतारोंका सविस्तर वर्णन

शिवजीके द्वादश ज्योतिर्लिङ्गावतारोंका सविस्तर वर्णन नन्दीश्वरजी कहते है- मुने ! अब तुम सर्वव्यापी भगवान् शंकरके बारह अन्य ज्योतिर्लिङ्गस्वरूपी अवतारोंका वर्णन श्रवण करो, जो अनेक प्रकारके मङ्गल करनेवाले हैं। (उनके नाम ये हैं-) सौराष्ट्रमें सोमनाथ, श्रीशैलपर मल्लिकार्जुन, उज्जयिनीमें महाकाल, ओंकारमें अमरेश्वर, हिमालयपर केदार, डाकिनीमें भीमशंकर, काशीमें विश्वनाथ, गौतमीके तटपर त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमिमें वैद्यनाथ, दारुकवनमें नागेश्वर, सेतुबन्धपर रामेश्वर और शिवालयमें घुश्मेश्वर । मुने ! परमात्मा शम्भुके ये ही वे बारह अवतार हैं। ये दर्शन और स्पर्श करनेसे मनुष्योंको सब प्रकारका आनन्द प्रदान करते है।  मुने ! उनमें पहला अवतार सोमनाथका है। यह चन्द्रमाके दुःखका विनाश करनेवाला है। इनका पूजन करनेसे क्षय और कुष्ठ आदि रोगोंका नाश हो जाता है। यह सोमेश्वर नामक शिवावतार सौराष्ट्र नामक पावन प्रदेशमें लिङ्गरूपसे स्थित है। पूर्वकालमें चन्द्रमाने इनकी पूजा की थी। वहीं सम्पूर्ण पापोंका विनाश करनेवाला एक चन्द्रकुण्ड है, जिसमें स्त्रान करनेसे बुद्धिमान् मनुष्य सम्पूर्ण रोगोंसे मुक्त हो जाता है। परमात्मा शिवके

05. कोटिरुद्रसंहिता | 16. घुश्माकी शिवभक्तिसे उसके मरे हुए पुत्रका जीवित होना, घुश्मेश्वर शिवका प्रादुर्भाव तथा उनकी महिमाका वर्णन

05. कोटिरुद्रसंहिता | 16. घुश्माकी शिवभक्तिसे उसके मरे हुए पुत्रका जीवित होना, घुश्मेश्वर शिवका प्रादुर्भाव तथा उनकी महिमाका वर्णन सूतजी कहते हैं- अब मैं घुश्मेश नामक ज्योतिर्लिङ्गके प्रादुर्भावका और उसके माहात्म्यका वर्णन करूँगा। मुनिवरो ! ध्यान देकर सुनो। दक्षिण दिशामें एक श्रेष्ठ पर्वत है, जिसका नाम देवगिरि है। वह देखनेमें अद्भुत तथा नित्य परम शोभासे सम्पन्न है। उसीके निकट कोई भरद्वाज कुलमें उत्पन्न सुधर्मा नामक ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण रहते थे। उनकी प्रिय पत्नीका नाम सुदेहा था, वह सदा शिवधर्मके पालनमें तत्पर रहती थी, घरके काम-काजमें कुशल थी और सदा पतिकी सेवामें लगी रहती थी। द्विजश्रेष्ठ सुधर्मा भी देवताओं और अतिथियोंके पूजक थे। वे वेदवर्णित मार्गपर चलते और नित्य अग्निहोत्र किया करते थे। तीनों कालकी संध्या करनेसे उनकी कान्ति सूर्यके समान उद्दीप्त थी। वे वेद-शास्त्रके मर्मज्ञ थे और शिष्योंको पढ़ाया करते थे। धनवान् होनेके साथ ही बड़े दाता थे। सौजन्य आदि सद्‌गुणोंके भाजन थे। शिवसम्बन्धी पूजनादि कार्यमें ही सदा लगे रहते थे। वे स्वयं तो शिवभक्त थे ही, शिवभक्तोंसे बड़ा प्रेम रखते थे। शिवभक्त

05. कोटिरुद्रसंहिता | 15. रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिङ्गके आविर्भाव तथा माहात्म्यका वर्णन

05. कोटिरुद्रसंहिता | 15. रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिङ्गके आविर्भाव तथा माहात्म्यका वर्णन सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! अब मैं यह बता रहा हूँ कि रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिङ्ग पहले किस प्रकार प्रकट हुआ। इस प्रसङ्गको तुम आदरपूर्वक सुनो। भगवान् विष्णुके रामावतारमें जब रावण सीताजीको हरकर लङ्कामें ले गया, तब सुग्रीवके साथ अठारह पद्म वानरसेना लेकर श्रीराम समुद्रतटपर आये। वहाँ वे विचार करने लगे कि कैसे हम समुद्रको पार करेंगे और किस प्रकार रावणको जीतेंगे। इतनेमें ही श्रीरामको प्यास लगी। उन्होंने जल माँगा और वानर मीठा जल ले आये। श्रीरामने प्रसन्न होकर वह जल ले लिया। तबतक उन्हें स्मरण हो आया कि 'मैंने अपने स्वामी भगवान् शंकरका दर्शन तो किया ही नहीं। फिर यह जल कैसे ग्रहण कर सकता हूँ?' ऐप्सा कहकर उन्होंने उस जलको नहीं पिया। जल रख देनेके पश्चात् रघुनन्दनने पार्थिव पूजन किया। आवाहन आदि सोलह उपचारोंको प्रस्तुत करके विधिपूर्वक बड़े प्रेमसे शंकरजीकी अर्चना की। प्रणाम तथा दिव्य स्तोत्रोंद्वारा यत्नपूर्वक शंकरजीको संतुष्ट करके श्रीरामने भक्तिभावसे उनसे प्रार्थना की। श्रीराम बोले- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले म

05. कोटिरुद्रसंहिता | 14. नागेश्वर नामक ज्योतिर्लिङ्गका प्रादुर्भाव और उसकी महिमा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 14. नागेश्वर नामक ज्योतिर्लिङ्गका प्रादुर्भाव और उसकी महिमा सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! अब मैं परमात्मा शिवके नागेश नामक परम उत्तम ज्योतिर्लिङ्गके आविर्भावका प्रसङ्ग सुनाऊँगा। दारुका नामसे प्रसिद्ध कोई राक्षसी थी, जो पार्वतीके वरदानसे सदा घमंडमें भरी रहती थी। अत्यन्त बलवान् राक्षस दारुक उसका पति था। उसने बहुत से राक्षसोंको साथ लेकर वहाँ सत्पुरुषोंका संहार मचा रखा था। वह लोगोंके यज्ञ और धर्मका नाश करता फिरता था। पश्चिम समुद्रके तटपर उसका एक वन था, जो सम्पूर्ण समृद्धियोंसे भरा रहता था। उस वनका विस्तार सब ओरसे सोलह योजन था। दारुका अपने विलासके लिये जहाँ जाती थी, वहीं भूमि, वृक्ष तथा अन्य सब उपकरणोंसे युक्त वह वन भी चला जाता था। देवी पार्वतीने उस वनकी देख-रेखका भार दारुकाको सौंप दिया था। दारुका अपने पतिके साथ इच्छानुसार उसमें विचरण करती थी। राक्षस दारुक अपनी पत्नी दारुकाके साथ वहाँ रहकर सबको भय देता था। उससे पीड़ित हुई प्रजाने महर्षि और्वकी शरणमें जाकर उनको अपना दुःख सुनाया। और्वने शरणागतोंकी रक्षाके लिये राक्षसोंको यह शाप दे दिया कि 'ये राक्षस यदि पृथ्वीपर प्राणि

05. कोटिरुद्रसंहिता | 13. वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिङ्गके प्राकट्यकी कथा तथा महिमा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 13. वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिङ्गके प्राकट्यकी कथा तथा महिमा सूतजी कहते हैं- अब मैं वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिङ्गका पापहारी माहात्म्य बताऊँगा। सुनो ! राक्षसराज रावण जो बड़ा अभिमानी और अपने अहंकारको प्रकट करनेवाला था, उत्तम पर्वत कैलासपर भक्तिभावसे भगवान् शिवकी आराधना कर रहा था। कुछ कालतक आराधना करनेपर जब महादेवजी प्रसन्न नहीं हुए, तब वह शिवकी प्रसन्नताके लिये दूसरा तप करने लगा। पुलस्त्यकुलनन्दन श्रीमान् रावणने सिद्धिके स्थानभूत हिमालय पर्वतसे दक्षिण वृक्षोंसे भरे हुए वनमें पृथ्वीपर एक बहुत बड़ा गड्डा खोदकर उसमें अग्निकी स्थापना की और उसके पास ही भगवान् शिवको स्थापित करके हवन आरम्भ किया। ग्रीष्म ऋतुमें वह पाँच अग्नियोंके बीचमें बैठता, वर्षा ऋतुमें खुले मैदानमें चबूतरेपर सोता और शीतकालमें जलके भीतर खड़ा रहता। इस तरह तीन प्रकारसे उसकी तपस्या चलती थी। इस रीतिसे रावणने बहुत तप किया तो भी दुरात्माओंके लिये जिनको रिझाना कठिन है, वे परमात्मा महेश्वर उसपर प्रसन्न नहीं हुए। तब महामनस्वी दैत्यराज रावणने अपना मस्तक काटकर शंकरजीका पूजन आरम्भ किया। विधिपूर्वक शिवकी पूजा करके वह अपन

05. कोटिरुद्रसंहिता | 12. पत्नीसहित गौतमकी आराधनासे संतुष्ट हो भगवान् शिवका उन्हें दर्शन देना, गङ्गाको वहाँ स्थापित करके स्वयं भी स्थिर होना, देवताओंका वहाँ बृहस्पतिके सिंहराशिपर आनेपर गङ्गाजीके विशेष माहात्म्यको स्वीकार करना, गङ्गाका गौतमी (या गोदावरी) नामसे और शिवका त्र्यम्बक ज्योतिर्लिङ्गके नामसे विख्यात होना तथा इन दोनोंकी महिमा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 12. पत्नीसहित गौतमकी आराधनासे संतुष्ट हो भगवान् शिवका उन्हें दर्शन देना, गङ्गाको वहाँ स्थापित करके स्वयं भी स्थिर होना, देवताओंका वहाँ बृहस्पतिके सिंहराशिपर आनेपर गङ्गाजीके विशेष माहात्म्यको स्वीकार करना, गङ्गाका गौतमी (या गोदावरी) नामसे और   शिवका त्र्यम्बक ज्योतिर्लिङ्गके नामसे विख्यात   होना तथा इन दोनोंकी महिमा सूतजी कहते हैं- पत्नीसहित गौतम ऋषिके इस प्रकार आराधना करनेपर संतुष्ट हुए भगवान् शिव वहाँ शिवा और प्रमथगणोंके साथ प्रकट हो गये। तदनन्तर प्रसन्न हुए कृपानिधान शंकरने कहा- 'महामुने ! मैं तुम्हारी उत्तम भक्तिसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर माँगो।' उस समय महात्मा शम्भुके सुन्दर रूपको देखकर आनन्दित हुए गौतमने भक्तिभावसे शंकरको प्रणाम करके उनकी स्तुति की। लंबी स्तुति और प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर वे उनके सामने खड़े हो गये और बोले- 'देव ! मुझे निष्पाप कर दीजिये ।' भगवान् शिवने कहा- मुने ! तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो और सदा ही निष्पाप हो। इन दुष्टोंने तुम्हारे साथ छल किया । जगत्‌के लोग तुम्हारे दर्शनसे पापरहित हो जाते हैं। फिर सदा मेरी भक्तिमें तत

05. कोटिरुद्रसंहिता | 11. त्र्यम्बक ज्योतिर्लिङ्गके प्रसङ्गमें महर्षि गौतमके द्वारा किये गये परोपकारकी कथा, उनका तपके प्रभावसे अक्षय जल प्राप्त करके ऋषियोंकी अनावृष्टिके कष्टसे रक्षा करना; ऋषियोंका छलपूर्वक उन्हें गोहत्यामें फँसाकर आश्रमसे निकालना और शुद्धिका उपाय बताना

05. कोटिरुद्रसंहिता | 11. त्र्यम्बक ज्योतिर्लिङ्गके प्रसङ्गमें महर्षि गौतमके द्वारा किये गये परोपकारकी कथा, उनका तपके प्रभावसे अक्षय जल प्राप्त करके ऋषियोंकी अनावृष्टिके कष्टसे रक्षा करना; ऋषियोंका छलपूर्वक उन्हें गोहत्यामें फँसाकर आश्रमसे निकालना और शुद्धिका उपाय बताना सूतजी कहते हैं- मुनिवरो ! सुनो, मैंने सद्गुरु व्यासजीके मुखसे जैसी सुनी है, उसी रूपमें एक पापनाशक कथा तुम्हें सुना रहा हूँ। पूर्वकालकी बात है, गौतम नामसे विख्यात एक श्रेष्ठ ऋषि रहते थे, जिनकी परम धार्मिक पत्नीका नाम अहल्या था। दक्षिण दिशामें जो ब्रह्मगिरि है, वहीं उन्होंने दस हजार वर्षांतक तपस्या की थी। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षियो ! एक समय वहाँ सौ वर्षोंतक बड़ा भयानक अवर्षण हो गया। सब लोग महान् दुःखमें पड़ गये। इस भूतलपर कहीं गीला पत्ता भी नहीं दिखायी देता था। फिर जीवोंका आधारभूत जल कहाँसे दृष्टिगोचर होता। उस समय मुनि, मनुष्य, पशु, पक्षी और मृग- सब वहाँसे दसों दिशाओंको चले गये। तब गौतम ऋषिने छः महीनेतक तप करके वरुणको प्रसन्न किया । वरुणने प्रकट होकर वर माँगनेको कहा - ऋषिने वृष्टिके लिये प्रार्थना की। वरुणने कहा-

05. कोटिरुद्रसंहिता | 10. वाराणसी तथा विश्वेश्वरका माहात्म्य

05. कोटिरुद्रसंहिता | 10. वाराणसी तथा विश्वेश्वरका माहात्म्य सूतजी कहते हैं-मुनीश्वरो ! मैं संक्षेपसे ही वाराणसी तथा विश्वेश्वरके परम सुन्दर माहात्म्यका वर्णन करता हूँ, सुनो। एक समयकी बात है कि पार्वती देवीने लोक-हितकी कामनासे बड़ी प्रसन्नताके साथ भगवान् शिवसे अविमुक्त क्षेत्र और अविमुक्त लिङ्गका माहात्म्य पूछा ।  तब परमेश्वर शिवने कहा- यह वाराणसीपुरी सदाके लिये मेरा गुह्यतम क्षेत्र है और सभी जीवोंकी मुक्तिका सर्वथा हेतु है। इस क्षेत्रमें सिद्धगण सदा मेरे व्रतका आश्रय ले नाना प्रकारके वेष धारण किये मेरे लोकको पानेकी इच्छा रखकर जितात्मा और जितेन्द्रिय हो नित्य महायोगका अभ्यास करते हैं। उस उत्तम महायोगका नाम है पाशुपत योग । उसका श्रुतियोंद्वारा प्रतिपादन हुआ है। वह भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है। महेश्वरि ! वाराणसी पुरीमें निवास करना मुझे सदा ही अच्छा लगता है। जिस कारणसे मैं सब कुछ छोड़कर काशीमें रहता हूँ, उसे बताता हूँ, सुनो। जो मेरा भक्त तथा मेरे तत्त्वका ज्ञानी है, वे दोनों अवश्य ही मोक्षके भागी होते हैं। उनके लिये तीर्थकी अपेक्षा नहीं है। विहित और अविहित दोनों प्रकारके कर्म उन

05. कोटिरुद्रसंहिता | 09. विश्वेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग और उनकी महिमाके प्रसङ्गमें पञ्चकोशीकी महत्ताका प्रतिपादन

05. कोटिरुद्रसंहिता | 09. विश्वेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग और उनकी महिमाके प्रसङ्गमें पञ्चकोशीकी महत्ताका प्रतिपादन सूतजी कहते हैं- मुनिवरो ! अब मैं काशीके विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिङ्गका माहात्य बताऊँगा, जो महापातकोंका भी नाश करनेवाला है। तुमलोग सुनो, इस भूतलपर जो कोई भी वस्तु दृष्टिगोचर होती है, वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्विकार एवं सनातन ब्रह्मरूप है। अपने कैवल्य (अद्वैत) भावमें ही रमनेवाले उन अद्वितीय परमात्मामें कभी एकसे दो हो जानेकी इच्छा जाग्रत् हुई।  स द्वितीयमैच्छत्' (बृहदारण्यक उ०-१।४।३) इस श्रुतिसे भी यही बात सिद्ध होती है। फिर वे ही परमात्मा सगुणरूपमें प्रकट हो शिव कहलाये। वे शिव ही पुरुष और स्त्री दो रूपोंमें प्रकट हो गये। उनमें जो पुरुष था, उसका 'शिव' नाम हुआ और जो स्त्री हुई, उसे 'शक्ति' कहते हैं। उन चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्तिने स्वयं अदृष्ट रहकर स्वभावसे ही दो चेतनों (प्रकृति और पुरुष) की सृष्टि की। मुनिवरो ! उन दोनों माता-पिताओंको उस समय सामने न देखकर वे दोनों प्रकृति और पुरुष महान् संशयमें पड़ गये। उस समय निर्गुण परमात्मासे आकाशवाणी प्रकट हुई - 'तुम दोन

05. कोटिरुद्रसंहिता | 08. केदारेश्वर तथा भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिङ्गोंके आविर्भावकी कथा तथा उनके माहात्म्यका वर्णन

05. कोटिरुद्रसंहिता | 08. केदारेश्वर तथा भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिङ्गोंके आविर्भावकी कथा तथा उनके माहात्म्यका वर्णन सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! भगवान् विष्णुके जो नर-नारायण नामक दो अवतार हैं और भारतवर्षके बदरिकाश्रमतीर्थमें तपस्या करते हैं, उन दोनोंने पार्थिव शिवलिङ्ग बनाकर उसमें स्थित हो पूजा ग्रहण करनेके लिये भगवान् शम्भुसे प्रार्थना की। शिवजी भक्तोंके अधीन होनेके कारण प्रतिदिन उनके बनाये हुए पार्थिवलिङ्गमें पूजित होनेके लिये आया करते थे। जब उन दोनोंके पार्थिव-पूजन करते बहुत दिन बीत गये, तब एक समय परमेश्वर शिवने प्रसन्न होकर कहा- 'मैं तुम्हारी आराधनासे बहुत संतुष्ट हूँ। तुम दोनों मुझसे वर माँगो ।' उस समय उनके ऐसा कहनेपर नर और नारायणने लोगोंके हितकी कामनासे कहा- 'देवेश्वर ! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मुझे वर देना चाहते हैं तो अपने स्वरूपसे पूजा ग्रहण करनेके लिये यहीं स्थित हो जाइये।' उन दोनों बन्धुओंके इस प्रकार अनुरोध करनेपर कल्याणकारी महेश्वर हिमालयके उस केदारतीर्थमें स्वयं ज्योतिर्लिङ्गके रूपमें स्थित हो गये। उन दोनोंसे पूजित होकर सम्पूर्ण दुःख और भयका नाश करनेवाले शम्

05. कोटिरुद्रसंहिता | 07. विन्ध्यकी तपस्या, ओंकारमें परमेश्वरलिङ्गके प्रादुर्भाव और उसकी महिमाका वर्णन

05. कोटिरुद्रसंहिता | 07. विन्ध्यकी तपस्या, ओंकारमें परमेश्वरलिङ्गके प्रादुर्भाव और उसकी महिमाका वर्णन ऋषियोंने कहा- महाभाग सूतजी ! आपने अपने भक्तकी रक्षा करनेवाले महाकाल नामक शिवलिङ्गकी बड़ी अद्भुत कथा सुनायी है। अब कृपा करके चौथे ज्योतिर्लिङ्गका परिचय दीजिये - ओंकार तीर्थमें सर्वपातकहारी परमेश्वरका जो ज्योतिर्लिङ्ग है, उसके आविर्भावकी कथा सुनाइये । सूतजी बोले-महर्षियो ! ओंकार तीर्थमें परमेशसंज्ञक ज्योतिर्लिङ्ग जिस प्रकार प्रकट हुआ, वह बताता हूँ; प्रेमसे सुनो। एक समयकी बात है, भगवान् नारद मुनि गोकर्ण नामक शिवके समीप जा बड़ी भक्तिके साथ उनकी सेवा करने लगे। कुछ कालके बाद वे मुनिश्रेष्ठ वहाँसे गिरिराज विन्ध्यपर आये और विन्ध्यने वहाँ बड़े आदरके साथ उनका पूजन किया। मेरे यहाँ सब कुछ है, कभी किसी बातकी कमी नहीं होती है, इस भावको मनमें लेकर विन्ध्याचल नारदजीके सामने खड़ा हो गया। उसकी वह अभिमानभरी बात सुनकर अहंकारनाशक नारद मुनि लंबी साँस खींचकर चुपचाप खड़े रह गये। यह देख विन्ध्य पर्वतने पूछा- 'आपने मेरे यहाँ कौन-सी कमी देखी है ? आपके इस तरह लंबी साँस खींचनेका क्या कारण है ?' नारदजीने क

05. कोटिरुद्रसंहिता | 06. महाकालके माहात्म्यके प्रसङ्गमें शिवभक्त राजा चन्द्रसेन तथा गोप-बालक श्रीकरकी कथा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 06. महाकालके माहात्म्यके प्रसङ्गमें शिवभक्त राजा चन्द्रसेन तथा गोप-बालक श्रीकरकी कथा सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! भक्तोंकी रक्षा करनेवाले महाकाल नामक ज्योतिर्लिङ्गका माहात्म्य भक्तिभावको बढ़ानेवाला है। उसे आदरपूर्वक सुनो। उज्जयिनीमें चन्द्रसेन नामक एक महान् राजा थे, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ, शिवभक्त और जितेन्द्रिय थे। शिवके पार्षदोंमें प्रधान तथा सर्वलोकवन्दित मणिभद्रजी राजा चन्द्रसेनके सखा हो गये थे। एक समय उन्होंने राजापर प्रसन्न होकर उन्हें चिन्तामणि नामक महामणि प्रदान की, जो कौस्तुभ- मणि तथा सूर्यके समान देदीप्यमान थी। वह देखने, सुनने अथवा ध्यान करनेपर भी मनुष्योको निश्चय ही मङ्गल प्रदान करती थी । भगवान् शिवके आश्रित रहनेवाले राजा चन्द्रसेन उस चिन्तामणिको कण्ठमें धारण करके जब सिंहासनपर बैठते, तब देवताओंमें सूर्य नारायणकी भाँति उनकी शोभा होती थी । नृपश्रेष्ठ चन्द्रसेनके कण्ठमें चिन्तामणि शोभा देती है, यह सुनकर समस्त राजाओंके मनमें उस मणिके प्रति लोभकी मात्रा बढ़ गयी और वे क्षुब्ध रहने लगे। तदनन्तर वे सब राजा चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आकर युद्धमें चन्द्रसेनक

05. कोटिरुद्रसंहिता | 05. मल्लिकार्जुन और महाकालनामक ज्योतिर्लिङ्गोंके आविर्भावकी कथा तथा उनकी महिमा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 05. मल्लिकार्जुन और महाकालनामक ज्योतिर्लिङ्गोंके आविर्भावकी कथा तथा उनकी महिमा सूतजी कहते हैं - महर्षियो ! अब मैं मल्लिकार्जुनके प्रादुर्भावका प्रसङ्ग सुनाता हूँ, जिसे सुनकर बुद्धिमान् पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जब महाबली तारकशत्रु शिवापुत्र कुमार कार्तिकेय सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करके फिर कैलास पर्वतपर आये और गणेशके विवाह आदिकी बात सुनकर क्रौञ्च पर्वतपर चले गये, पार्वती और शिवजीके वहाँ जाकर अनुरोध करनेपर भी नहीं लौटे तथा वहाँसे भी बारह कोस दूर चले गये, तब शिव और पार्वती ज्योतिर्मय स्वरूप धारण करके वहाँ प्रतिष्ठित हो गये। वे दोनों पुत्रस्नेहसे आतुर हो पर्वके दिन अपने पुत्र कुमारको देखनेके लिये उनके पास जाया करते हैं। अमावस्याके दिन भगवान् शंकर स्वयं वहाँ जाते हैं और पौर्णमासीके दिन पार्वतीजी निश्चय ही वहाँ पदार्पण करती हैं। उसी दिनसे लेकर भगवान् शिवका मल्लिकार्जुन नामक एक लिङ्ग तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हुआ। (उसमें पार्वती और शिव दोनोंकी ज्योतियाँ प्रतिष्ठित हैं। 'मल्लिका' का अर्थ पार्वती है और 'अर्जुन' शब्द शिवका वाचक है।) उस लिङ्गका जो दर्शन

05. कोटिरुद्रसंहिता | 04. प्रथम ज्योतिर्लिङ्ग सोमनाथके प्रादुर्भावकी कथा और उसकी महिमा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 04. प्रथम ज्योतिर्लिङ्ग सोमनाथके प्रादुर्भावकी कथा और उसकी महिमा तदनन्तर कपिला नगरीके कालेश्वर, रामेश्वर आदिकी महिमा बताते हुए सूतजीने समुद्रके तटपर स्थित गोकर्णक्षेत्रके शिवलिङ्गोंकी महिमाका वर्णन किया। फिर महाबल नामक शिवलिङ्गका अद्भुत माहात्म्य सुनाकर अन्य बहुत-से शिवलिङ्गोंकी विचित्र माहात्म्य-कथाका वर्णन करनेके पश्चात् ऋषियोंके पूछनेपर वे ज्योतिर्लिङ्गोंका वर्णन करने लगे। सूतजी बोले- ब्राह्मणो ! मैंने सद्गुरुसे जो कुछ सुना है, वह ज्योतिर्लिङ्गोंका माहात्म्य तथा उनके प्राकट्यका प्रसङ्ग अपनी बुद्धिके अनुसार संक्षेपसे ही सुनाऊँगा । तुम सब लोग सुनो। मुने ! ज्योतिर्लिङ्गोंमें सबसे पहले सोमनाथका नाम आता है; अतः पहले उन्हींके माहात्म्यको सावधान होकर सुनो। मुनीश्वरो ! महामना प्रजापति दक्षने अपनी अश्विनी आदि सत्ताईस कन्याओंका विवाह चन्द्रमाके साथ किया था। चन्द्रमाको स्वामीके रूपमें पाकर वे दक्षकन्याएँ विशेष शोभा पाने लगीं तथा चन्द्रमा भी उन्हें पत्नीके रूपमें पाकर निरन्तर सुशोभित होने लगे। उन सब पत्नियोंमें भी जो रोहिणी नामकी पत्नी थी, एकमात्र वही चन्द्रमाको जितनी प्रि

05. कोटिरुद्रसंहिता | 03. ऋषिकापर भगवान् शिवकी कृपा, एक असुरसे उसके धर्मकी रक्षा करके उसके आश्रममें 'नन्दिकेश' नामसे निवास करना और वर्षमें एक दिन गङ्गाका भी वहाँ आना

05. कोटिरुद्रसंहिता | 03. ऋषिकापर भगवान् शिवकी कृपा, एक असुरसे उसके धर्मकी रक्षा करके उसके आश्रममें 'नन्दिकेश' नामसे निवास करना और वर्षमें एक दिन गङ्गाका भी वहाँ आना तदनन्तर श्रीसूतजीने जब बहुत-से शिवलिङ्गोंके कथाप्रसङ्ग सुना दिये, तब ऋषियोंने पूछा- 'महामते सूतजी ! वैशाख शुक्ला सप्तमीके दिन गङ्गाजी नर्मदामें कैसे आयीं ? इसका विशेषरूपसे वर्णन कीजिये। वहाँ महादेवजीका नाम नन्दिकेश्वर कैसे हुआ ? इस बातको भी प्रसन्नतापूर्वक बताइये ।' सूतजीने कहा- महर्षियो ! एक ब्राह्मणी थी, जिसका नाम ऋषिका था। वह किसी ब्राह्मणकी पुत्री थी और एक ब्राह्मणको ही विधिपूर्वक व्याही गयी थी। विप्रवरो ! यद्यपि वह द्विजपत्नी उत्तम व्रतका पालन करनेवाली थी, तथापि अपने पूर्वजन्मके किसी अशुभ कर्मके प्रभावसे 'बालवैधव्य' को प्राप्त हो गयी। तब वह ब्राह्मणपत्नी ब्रह्मचर्यव्रतके पालनमें तत्पर हो पार्थिवपूजनपूर्वक अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगी। उस समय अवसर पाकर मूढ़ नामसे प्रसिद्ध एक दुष्ट और बलवान् असुर, जो बड़ा मायावी था, कामबाणसे पीड़ित होकर वहाँ गया। उस अत्यन्त सुन्दरी कामिनीको तपस्या करती देख वह असु

05. कोटिरुद्रसंहिता | 02. काशी आदिके विभिन्न लिङ्गोंका वर्णन तथा अत्रीश्वरकी उत्पत्तिके प्रसङ्गये गङ्गा और शिवके अत्रिके तपोवनमें नित्य निवास करनेकी कथा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 02. काशी आदिके विभिन्न लिङ्गोंका वर्णन तथा अत्रीश्वरकी उत्पत्तिके प्रसङ्गये गङ्गा और शिवके अत्रिके तपोवनमें नित्य निवास करनेकी कथा सूतजी कहते हैं- मुनीश्वरो ! गङ्गाजीके तटपर मुक्तिदायिनी काशीपुरी सुप्रसिद्ध है। वह भगवान् शिवकी निवासस्थली मानी गयी है। उसे शिवलिङ्ग- मयी ही समझना चाहिये। इतना कहकर सूतजीने काशीके अविमुक्त कृत्तिवासेश्वर, तिलभाण्डेश्वर, दशाश्वमेध आदि और गङ्गासागर आदिके संगमेश्वर, भूतेश्वर, नारीश्वर, वटुकेश्वर, पूरेश्वर, सिद्धनाथेश्वर, दूरेश्वर, शृङ्गेश्वर, वैद्यनाथ, जप्येश्वर, गोपेश्वर, रंगेश्वर, वामेश्वर, नागेश, कामेश, विमलेश्वर; प्रयागके ब्रह्मेश्वर, सोमेश्वर, भारद्वाजेश्वर, शूलटङ्केश्वर, माधवेश तथा अयोध्याके नागेश आदि अनेक प्रसिद्ध शिवलिङ्गोंका वर्णन करके अत्रीश्वरकी कथाके प्रसङ्गमें यह बतलाया कि अत्रिपत्नी अनसूयापर कृपा करके गङ्गाजी वहाँ पधारीं। अनसूयाने गङ्गाजीसे सदा वहाँ निवास करनेके लिये प्रार्थना की। तब गङ्गाजीने कहा- अनसूये ! यदि तुम एक वर्षतक की हुई शंकरजीकी पूजा और पतिसेवाका फल मुझे दे दो तो मैं देवताओंका उपकार करनेके लिये यहाँ सदा ही स्थित

05. कोटिरुद्रसंहिता | 01. द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों तथा उनके उपलिङ्गोंका वर्णन एवं उनके दर्शन-पूजनकी महिमा

05. कोटिरुद्रसंहिता | 01. द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों तथा उनके उपलिङ्गोंका वर्णन एवं उनके दर्शन-पूजनकी महिमा यो धत्ते निजमाययैव भुवनाकारं विकारोज्झितो  यस्याहु: करुणाकटाक्षविभवी स्वर्गापवर्गाभिधौ । प्रत्यग्बोधसुखाद्वयं हदि सदा पश्यन्ति यं योगिन- स्तस्मै शैलसुताञ्चितार्द्धवपुषे शश्वन्नमस्तेजसे ॥ १॥ जो निर्विकार होते हुए भी अपनी मायासे ही विराट् विश्वका आकार धारण कर लेते हैं, स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) जिनके कृपा कटाक्षके ही वैभव बताये जाते हैं तथा योगीजन जिन्हें सदा अपने हृदयके भीतर अद्वितीय आत्मज्ञानानन्दस्वरूपमें ही देखते हैं, उन तेजोमय भगवान् शंकरको, जिनका आधा शरीर शैलराजकुमारी पार्वतीसे सुशोभित है, निरन्तर मेरा नमस्कार है ॥ १ ॥ कृपाललितवीक्षणं स्मितमनोज्ञवक्त्राम्बुजं शशाङ्ककलयोज्ज्वलं  शमितघोरतापत्रयम् ।  करोतु किमपि स्फुरत्परमसौख्यसच्चिद्वपु-   र्धराधरसुताभुजोद्वलयितं महो मङ्गलम्  ॥ २ ॥  जिसकी कृपापूर्ण चितवन बड़ी ही सुन्दर है, जिसका मुखारविन्द मन्द मुस्कानकी छटासे अत्यन्त मनोहर दिखायी देता है, जो चन्द्रमाकी कलासे परम उज्ज्वल है, जो आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंको शान्त कर देनेमें समर्थ है,